परमादेश याचिका की प्रकृति एवं विस्तार का वर्णन कीजिए। Discuss the nature and scope of writ of mandamus.
परमादेश रिट (Write of mandamus) –
परमादेश का शाब्दिक अर्थ है हम आदेश देते हैं। इस प्रकार परमादेश वरिष्ठ न्यायालय का एक आदेश है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति या लोक प्राधिकरी जिसमें सरकार एवं निगम भी सम्मिलित है, को उनके विधिक अथवा लोक कर्तव्य या किसी संविधि के अधीन आरोपित कर्तव्य को करने का आदेश दिया जाता है अथवा उन कर्त्तव्यों को अवैध रूप से न करने का आदेश दिया जाता है।
क्षेत्र- परमादेश एक न्यायिक उपचार है जो वरिष्ठ न्यायालय (उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय) से एक आदेश के रूप में किसी सरकार, न्यायालय, निगम या लोक प्राधिकारी को किसी विनिर्दिष्ट कार्य को करने या नहीं करने जिसको वह निकाय विधि के अधीन करने या नहीं करने के लिए जैसा भी मामला हो, बाध्य है, किया जाता है और जो लोक कर्तव्य की प्रकृति का है और कुछ मामलों में कानूनी कर्तव्य है। परमादेश केवल आज्ञापक लोक कर्तव्य के लिए ही जारी किया जायेगा। विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए यह उपचार नहीं दिया जाता है। यदि राज्य सरकार को अपने कर्मचारियों को महँगाई भत्ता देने या न देने का विवेकाधिकार है और सरकारी कर्मचारियों को ऐसा भत्ता प्राप्त करने का विधिक अधिकार नहीं है तो सरकार को महँगाई भत्ता देने के लिए परमादेश के रिट द्वारा बाध्य नहीं किया जा सकता है। इस रिट के लिए याची को यह सिद्ध करना होता है कि उसका विधिक अधिकार है जिसको मानने के लिए प्रत्यर्थी विधि द्वारा आज्ञापक रूप से आबद्ध है। परमादेश विनिर्दिष्ट विधिक अधिकार को प्रवर्तित करवाने के लिए तभी जारी किया जायेगा जब तक कि उस अधिकार के प्रवर्तन के लिए विशिष्ट उपचार उपलब्ध न हो। अत: याची के पास विधिक अधिकार और प्रत्यर्थी के पास आज्ञापक विधिक कर्तव्य होने की दशा में ही परमादेश रिट स्वीकार किया जायेगा।
आवेदन कौन कर सकता है?-
जिस व्यक्ति के अधिकार का अतिलंघन हुआ है वह परमादेश रिट के लिए आवेदन कर सकता है। ऐसा अधिकार याचिका दायर करते समय अस्तित्व में होना चाहिए। इसलिए एक निगमित कम्पनी को स्वयं ही याचिका दायर करनी होगी। यदि कोई व्यक्ति किसी संस्था के अधिकार के प्रवर्तन के लिए याचिका दायर करता है तो उसे वह संबंध बताना चाहिए जो उसे उस संस्था की ओर से आवेदन का हक देता है।
आधार- परमोदश रिट के जारी किये जाने के प्रमुख आधार निम्न हैं-
(i) विधिक अधिकार-
याची का विधिक अधिकार होना अनिवार्य है। इस प्रकार याची का तर्क था कि सरकार ने उससे कनिष्ठ लोगों को प्रोन्नति दे दी है और उसको छोड़ दिया है। यह पाया गया कि याची उस पद के लिए अर्ह नहीं था और उसकी याचिका खारिज कर दी गई।
(ii) विधिक कर्तव्य-
प्राधिकारी पर विधिक कर्तव्य अधिरोपित होना आवश्यक है और उस कर्तव्य को करना वैवेकिक या ऐच्छिक नहीं बल्कि अनिवार्य होना चाहिए। आवेदक के पास विरोधी द्वारा किसी कर्तव्य को कराने की बाध्यता का अधिकार होना चाहिए। यदि सरकार अपने विवेक से कर्मचारियों का महँगाई भत्ता देने का नियम बनाती है तो वह कोई विधिक कर्तव्य नहीं है और सरकार के विरुद्ध इस कर्तव्य को पूर्ण करने हेतु परमादेश रिट जारी नहीं किया जा सकता।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम जी०सी० मँडावार, (1954 SC) के वाद में तथ्य यह थे कि मध्य प्रदेश सरकार ने एक नियम बनाया था जिसके अन्तर्गत महंगाई-भत्ता देने का स्वविवेक प्राप्त था। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि राज्य सरकार को अपनी शक्ति का प्रयोग करने के लिए बाध्य करने के लिये परमादेश रिट जारी नहीं किया जा सकता।
मंजुला मंजरी बनाम डायरेक्टर आफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन (1925 Orissa) के वाद में एक उड़िया भाषा के पुस्तक के प्रकाशक ने शिक्षा निदेशक से अपनी प्रकाशित की हुई एक पुस्तक को स्कूलों के लिए स्वीकृति प्राप्त पुस्तकों की सूची में शामिल करने के लिये अनुरोध किया तथा उक्त शिक्षा निदेशक ने ऐसा न करने पर न्यायालय में परमादेश-रिट जारी करने की याचिका दायर कर दी। न्यायालय ने याची के रिट-पिटीशन को खारिज करते हुए यह निर्णीत किया कि शिक्षा निदेशक को इस प्रकार की पुस्तकों की सूची में किसी पुस्तक विशेष को शामिल करने या न करने का पूर्ण विवेक है।
(iii) माँग और इन्कार-
परमादेश रिट से पहले न्याय की माँग की जानी और उससे इन्कार किया जाना आवश्यक है। हैल्सबरी ने इंग्लैण्ड की विधि (लॉज ऑफ इंग्लैण्ड) में कहा गया है-साधारण नियम के अनुसार जब तक वह पक्ष जिसकी शिकायत की गई है यह नहीं जानता कि वह क्या है जो उसे करना है और जिस पर वह यह विचार कर सके कि उसका अनुपालन करना है या नहीं तथा उसको साक्ष्य से दर्शाना होगा कि उसकी एक निश्चित माँग थी जिसको परमोदश को माँगने वाला पक्षकार प्रवर्तित करना चाहता है और उस माँग को माना नहीं गया है, समादेश नहीं दिया जाएगा। ये सिद्धान्त भारत में भी स्वीकार किए गए हैं।
(iv) सद्भावपूर्वक-
परमादेश के लिए आवेदन सद्भावपूर्वक करना आवश्यक है। यह किसी अन्तस्थ हेतु या अस्पष्ट प्रयोजन के लिए नहीं होना चाहिए। परमादेश के लिए याचिका भले ही सद्भावपूर्वक दी गई हो, यदि इसका प्रयोजन प्रत्यर्थी को तंग करना है या उससे व्यक्तिगत रंजिश निकालनी है तो वह स्वीकार नहीं की जाएगी।
भारत में परमादेश रिट व्यथित पक्षकारों द्वारा व्यापक रूप से एवं सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाने वाला प्रसिद्ध लेख है। इसलिये न्यायाधीशों का यह कर्तव्य है कि वे इस प्रक्रिया को लेखों के माध्यम से विशेषतः परमादेश लेख या रिट के माध्यम से बनाये रखे।
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