उत्प्रेरण लेख जारी करने के आधारों का वर्णन कीजिए। Examine the grounds to issue writ of certiorari.
उत्प्रेषण लेख (Certiorari) –
लैटिन शब्द ‘सरसिओराई’ का अर्थ है प्रमाणित करना। इसी को हिन्दी में उत्प्रेषण कहते हैं। इस लेख द्वारा अधीनस्थ या न्यायिक या अर्धन्यायिक कार्य करने वाले निकायों में चलने वाले मुकदमों को वरिष्ठ न्यायालयों में भेजने की आज्ञा दी जाती है जिसके अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों की जाँच हो सके और यदि वे त्रुटिपूर्ण हों तो उन्हें निरस्त किया जा सके।
उत्प्रेषण एक साधारण विधिक अनुतोष है जो शुद्धीकरण की प्रकृति की रिट है। यह एक आदेश के रूप में एक प्रवर न्यायालय द्वारा ऐसे अवर न्यायाधिकरण को जो व्यक्तियों के सिविल अधिकारों से सम्बन्धित निर्णय लेता है, जारी किया जाता है जिससे वह अपने यहाँ की कार्यवाहियों के अभिलेख उसके न्यायिक पुनरीक्षण के लिए भेजे और अधिकारिता सम्बन्धी दोष, प्रक्रिया सम्बन्धी अधिनियमितता तथा कार्यवाही में प्रथम दृष्टया विधि सम्बन्धी त्रुटि होने की दशा में उससे हस्तक्षेप करे।
आधार-उत्प्रेषण रिट को निम्न आधारों पर जारी किया जा सकता है-
(i) अधिकारिता की गलती-
जब कोई अवर न्यायालय या अधिकरण बिना अधिकारिता के या अधिकारिता से बाहर कार्य करता है या उसको विधि द्वारा दी गई अधिकारिता का प्रयोग नहीं करता है तो उसके विरुद्ध उत्प्रेषण रिट जारी किया जा सकता है।
(ii) अधिकारिता वाला तथ्य-
अंधिकारिता का अभाव भी कुछ प्रारम्भिक तथ्यों के न होने से जो अधिकरण द्वारा अधिकारिता के प्रयोग करने से पहले अवश्य विद्यमान हों, हो सकता है। इनको अधिकारिता वाले’ या ‘सांपार्श्विक’ तथ्य कहा जाता है। अवर न्यायालय या अधिकरण के द्वारा अधिकारिता ग्रहण करने से पूर्व इन तथ्यों का होना अनिवार्य या पूर्व शर्ते हैं। सरल भाषा में, प्रशासनिक एजेंसी के कार्य करने की शक्ति जिस तथ्य ता तथ्यों पर निर्भर करती है उसे अधिकारिता वाला तथ्य’ कहा जाता है। यदि अधिकारिता वाला तथ्य विद्यमान नहीं है तो न्यायालय या अधिकरण कार्य नहीं कर सकता है। यदि कोई अवर न्यायालय या अधिकरण गलत इसका ढंग से ऐसे तथ्य की अवधारणा करता है तो उत्प्रेषण रिट जारी किया जा सकता आधारभूत सिद्धान्त यह है कि गलत ढंग से ऐसी विद्यमानता की कल्पना करके, अवर न्यायालय या अधिकरण अपने आप उस अधिकारिता को अपने को नहीं दे सकता है जो विधि द्वारा उसे नहीं दी गई है।
यह सुस्पष्ट है कि अवर न्यायालय के निर्णय को जो उसकी अधिकरिता में है इस आधार पर कि वह निर्णय गलत है, रिट जारी करके अभिखण्डित नहीं किया जा सकता है। इस रिट के जारी करने से पूर्व यह दिखाना अत्यंत आवश्यक है कि कानूनी प्राधिकारी जिसने आदेश पारित किया है उसने अधिकारिता के बिना या अधिकारिता के बाहर कार्य किया है।
परन्तु यदि प्राधिकारी को प्रारम्भिक तथ्य के निर्णय का अधिकार दिया जाता है और वह गलत निर्णय करता है तो उत्प्रेषण रिट नहीं मिल सकता है। आदेश को केवल अपील या पुनरीक्षण के द्वारा ठीक किया जा सकता है बशर्ते ऐसा करने का अधिनियम में उपबन्ध किया गया हो।
(iii) अभिलेख को देखने से ही प्रकट गलती-
यदि विधि की कोई गलती है जो अभिलेख को देखने से ही प्रकट है तो अवर न्यायालय या अधिकरण के निर्णय को उत्प्रेषण रिट के द्वारा अभिखण्डित किया जा सकता है। परन्तु ऐसी गलती कार्यवाही में प्रकट या स्पष्ट होनी आवश्यक है और उसको साक्ष्य के द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। परन्तु अभिलेख को देखने से ही प्रकट गलती है क्या? विधि की गलती मात्र में और अभिलेख को देखने से ही विधि की प्रकट गलती में क्या अन्तर है? कब एक गलती मात्र गलती नहीं रहती है और अभिलेख को देखते ही प्रकट गलती बन जाती है? यद्यपि इसकी कोई संक्षिप्त, सम्पूर्ण और व्यापक परिभाषा करना संभव नहीं है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि यदि कोई अवर न्यायालय या अधिकरण असंगत बातों पर विचार करता है या संगत बातों पर ध्यान नहीं देता है अथवा गलत तरीके से अग्राह्य साक्ष्य को स्वीकार करता है या ग्राह्य साक्ष्य को मानने से इन्कार करता है अथवा तथ्य का निष्कर्ष बिना साक्ष्य के है तो ऐसी गलती है।
(iv) प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का उल्लंघन-
उत्प्रेषण रिट को प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों के उल्लंघन होने पर भी जारी किया जाता है। प्राकृतिक न्याय के दो सर्वमान्य सिद्धान्त हैं-
- न्यायालय की निष्पक्षता
- सुनवाई का अवसर। यदि इनमें से किसी भी एक अधिकार का उल्लंघन होता है तो उत्प्रेषण लेख को जारी किया जा सकता है।
सूर्यादेवी राय बनाम राम चन्द्र राय (2003 SC) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि उत्प्रेषण की रिट किसी मामले में तभी जारी की जाती है जब अधीनस्थ न्यायालय एवं न्यायाधिकरण द्वारा किसी मामले में प्रक्रिया सम्बन्धी त्रुटि की गई हो, जिसके फलस्वरूप किसी भी पक्ष को न्याय मिलना मुश्किल हो जाता है अथवा कोई भी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा कोई गम्भीर त्रुटि की गई हो या अपने क्षेत्राधिकार की सीमा को पार कर लिया हो अथवा नैसर्गिक न्याय के उल्लंघन कोई कार्य या हो, उस स्थिति में राज्य के उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय उत्प्रेषण की रिट जारी कर सकती है।
उत्प्रेषण रिट एक विवेकीय उपचार है। यदि व्यथित पक्षकार के पास दूसरे अन्य उपचार हैं तो उत्प्रेषण रिट देने से मना किया जा सकता है। परन्तु वैकल्पिक उपचार के उपलब्ध होने के बावजूद यदि यह लगता है कि अवर न्यायालय या अधिकरण ने निर्णय के बाहर जाकर कार्य किया अथवा नैसर्गिक न्याय की विधि का उल्लंघन किया है तो वह लेख जारी किया जा सकता है।
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