संवैधानिक विधि/constitutional law

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति एवं क्षेत्राधिकार

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति एवं क्षेत्राधिकार

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति एवं क्षेत्राधिकार

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिये। Explain the appointment and jurisdiction of Judges of the High Court.

न्यायाधीश की नियुक्ति-

अनुच्छेद 216 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। ऐसी नियुक्ति करते समय वह भारत के मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल की सलाह लेता है और मुख्य न्यायाधीश से भिन्न अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सम्बन्धित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सलाह भी लेता है। ये सभी न्यायाधीश अपनी 62 वर्ष की आयु तक अपना पद धारण करते हैं। किन्तु अनुच्छेद 224 के अन्तर्गत नियुक्त किये गये न्यायाधीश और कार्यकारी न्यायाधीश भी 62 वर्ष के अधीन रहते हुए क्रमशः दो वर्ष के लिए उच्च न्यायालय के अवर न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकेगा।

जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त होता है तो यह जब मुख्य न्यायाधीश अनुपस्थिति या अन्य कारण से अपने पद का कार्य करने पर असमर्थ होता है तब राष्ट्रपति उसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश की नियुक्ति कार्यकारी न्यायाधीश के रूप में कर सकता है।

किसी न्यायाधीश का उच्च न्यायालय के दूसरे उच्च न्यायालय को अन्तरण-

अनुच्छेद 222 के अन्तर्गत राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति से परामर्श करने के पश्चात् किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में अन्तरण कर सकता है।

एस. सी. एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ के अपने ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके स्थानान्तरण के मामले में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय अन्तिम माना जायेगा, सरकार का नहीं।

उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानान्तरण के मामले में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय ही अन्तिम होगा जो वह अपने दो सहयोगियों से परामर्श करके करेगा। सरकार केवल अयोग्य नियुक्तियाँ रोक सकती हैं।

इनरी प्रेसीडेंसियन रिफरेन्स (जो न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानान्तरण मामले के नाम से प्रसिद्ध है) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श करके ही राष्ट्रपति को भारत के मुख्य न्यायमूर्ति अपनी सिफारिश भेजेगा और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना चाहिए।

उपर्युक्त मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह भी निर्धारित किया है कि उच्चतम और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले में परामर्श प्रक्रिया का पालन किये बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा भेजी गयी सिफारिशों को मानने के लिए कार्यपालिका बाध्य नहीं है।

भारत संघ बनाम प्रतिभा बनर्जी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि उच्च न्यायालय के न्यायधीश और उसके अधिकारी सरकारी सेवक नहीं है।

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की अर्हतायें-

अनुच्छेद 217 के अनुसार उच्च न्यायालय न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएं होनी चाहिये-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह भारतीय राज्य क्षेत्र में कम-से-कम दस वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका हो, या
  3. वह किसी उच्च न्यायालय में या दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार दस वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो।

पद त्याग, पद से हटाया जाना या पद की रिक्तियाँ-

अनुच्छेद 217 के अन्तर्गत कोई न्यायाधीश, राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित रिट द्वारा अपना पद त्याग सकता है। किसी न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए अनुच्छेद 124 के खण्ड (4) के उपबन्धित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।

अनुच्छेद 124 खण्ड (4) के अनुसार उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जायेगा जब तक साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ऐसे हटाये जाने के लिए संसद के प्रत्येक सदन द्वारा और कुल सदस्यों के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से समर्थित समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दे दिया है।

उच्च न्यायालय की अधिकारिता-

उच्च न्यायालय को निम्न अधिकारिता प्राप्त है-

1. अभिलेख न्यायालय की अधिकारिता-

उच्चतम न्यायालय की तरह उच्च न्यायालय भी एक अभिलेख न्यायालय है और अपनी अवमानना के लिए दण्ड देने की शक्ति है। (अनुच्छेद 215)

2. रिट की अधिकारिता-

अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत, उच्च न्यायालयों को संविधान के भाग-3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए और किसी अन्य प्रयोजन के लिए अपने सम्बन्धित राज्यों में किसी व्यक्ति या प्राधिकारी को समुचित मामलों में किसी सरकार को शामिल करते हुए निदेश, आदेश या बन्दी प्रत्यक्षीकरण, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा,, परमादेश और उत्प्रेषण की प्रकृति के रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी है।

उच्च न्यायालयों को प्रदत्त रिट जारी करने का उपर्युक्त क्षेत्राधिकार अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त क्षेत्राधिकार के अधीन नहीं है।

मुमताज पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री कालेज बनाम लखनऊ विश्वविद्यालय के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वैकल्पिक अनुतोष एक पूर्ण रोक नहीं है। याची नैसर्गिक न्याय के उल्लंघन होने पर सीधे अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सकता है। उच्चतम न्यायालय ने यह भी धारित किया उच्च न्यायालय केवल इस आधार पर ही अपनी रिट अधिकारिता का प्रयोग करने से इन्कार नहीं कर सकता कि याची को अन्य वैकल्पिक अनुतोष उपलब्ध है। कुछ परिस्थितियों में वैकल्पिक अनुतोष उपलब्ध होने पर भी न्यायालय अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत अनुतोष प्रदान कर सकता है जैसे कि नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन।

अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 में पारस्परिक सम्बन्ध- अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय को और अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालयों को रिट निकालने की असाधारण शक्ति प्राप्त है। उच्च न्यायालय को रिट निकालने की अधिकारिता उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता से अधिक विस्तारवान् है। उच्चतम न्यायालय तभी रिट निकाल सकता है जब मूल अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। उच्च न्यायालय मूल अधिकारों एवं विधिक अधिकारों के अतिलंघन के मामले में रिट निकाल सकता है यदि रिट ही उचित उपचार है।

व्यक्ति सीधे उच्चतम न्यायालय में अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत मौलिक अधिकार का उल्लंघन होने पर पहुँच सकता है। अनुच्छेद 32 अपने आप में मूल अधिकार है। (रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य)। अनुच्छेद 226 स्वयं में कोई मूल अधिकार नहीं है।

यद्यपि अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार व्यापक है किन्तु उच्च न्यायालय की शक्ति अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति को अल्पीकृत नहीं करती है। अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में पारित आदेश को अधिष्ठित करेगा।

3. अधीक्षण की शक्ति-

प्रत्येक उच्च न्यायालय को अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के अधीक्षण करने की शक्ति प्राप्त है। (अनु. 227)

वह इन अधीनस्थ न्यायालयों से विवरणी मंगा सकता है, उनकी कार्य-प्रणाली और कार्यवाहियों का विनियमन करने के लिए साधारण नियम बनाकर जारी कर सकता है और उनके पदाधिकारियों द्वारा रखी जाने वाली पुस्तकों, प्रविष्टियों और लेखाओं के प्रपत्रों को विहित कर सकता है। [अनुच्छेद 227 (2)]

राधेश्याम बनाम छविनाथ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय उत्प्रेषण (Certiorari) रिट जारी नहीं कर सकता है। अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय में अधीक्षण की शक्ति निहित है जो आपवादिक एवं विशेष (Sparingly) स्थितियों में न्यायालयों और अधिकरणों को अपने प्राधिकार के अधीन कार्य करने के लिए प्रयोग कर सकता है। इस अनुच्छेद के अन्तर्गत उच्च न्यायालय क्रिमिनल एवं सिविल दोनों न्यायालयों के ऐसे आदेशों को आपवादित स्थितियों में परीक्षित करने हेतु कर सकता है, जब मानवीय न्याय की विफलता हो गयी हो। इस प्रकार, इस अनुच्छेद के अन्तर्गत प्राप्त शक्ति को प्रयोग तथ्य या विधि सम्बन्धी त्रुटि को ठीक करने के लिए नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद 226 और अनुच्छेद 227- अनुच्छेद 227 के अधीन अधीक्षण शक्ति अनुच्छेद 226 के अधीन रिट जारी करने की शक्ति से अधिक व्यापक है। अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय आवेदन पर रिट आदेश या निदेश जारी करता है जबकि अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत शक्ति का प्रयोग स्वप्रेरणा से करता है।

अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय उत्प्रेषण रिट जारी करके अधिकरण के विनिश्चय को रद्द कर सकता है जबकि अनुच्छेद 227 के अन्तर्गत रिट भी जारी कर सकता है और निदेश भी जारी कर सकता है।

रवीन्द्र नाथ अवस्थी बनाम उ. प्र. राज्य एवं अन्य के मामले में अधिवक्ता की जेल अभिरक्षा में मृत्यु हो गयी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राज्य को 5 लाख रुपये बतौर हर्जाना देने का आदेश दिया और जिम्मेदार जेल अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का आदेश दिया। अवस्थी की जेल में मृत्यु अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्रत्याभूत प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता का उल्लंघन हैं। नीलबाती बेहरा के मामले को सन्दर्भित किया गया था जिसमें उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय एवं अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के उल्लंघन होने पर पीड़ित या उसके उत्तराधिकारियों को आर्थिक प्रतिकर प्रदान कर सकता है। न्यायालय ने यह सम्प्रेषित किया कि यद्यपि साधारण (प्राइवेट) विधि के अन्तर्गत पीड़ित व्यक्ति प्रतिकर की मांग कर सकता है लेकिन मौलिक अधिकारों के उल्लंघन होने पर वह अनुच्छेद 32 एवं 226 के अन्तर्गत यथास्थिति उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय से प्रतिकर की मांग कर सकता है।

4. मामलों का अन्तरण करने की शक्ति-

यदि उच्च न्यायालय इस बात से सन्तुष्ट है कि उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय में लम्बित किसी मामले में संविधान के निर्वचन से सम्बन्धित कोई सरवान् विधि का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है, जिसका निर्धारण किया जाना मामले को निपटाने के लिए आवश्यक है, तो वह उस मामले को अपने पास मंगा सकता है और उसे या स्वयं निपटा सकता है, या उस विधि के प्रश्न का निर्धारण करने के लिए निर्णय की प्रतिलिपि सहित उस सम्बन्धित न्यायालय को निर्णय के लिए लौटा सकता है और जब वह न्यायालय ऐसे निर्णय के अनुसार ऐसे मामले को निर्णीत करेगा। (अनुच्छेद 228)

5. जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति-

जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं पदोन्नति उच्च न्यायालय के परामर्श और सिफारिश से राज्यपाल करेगा। जिला न्यायाधीश पद पर वही व्यक्ति योग्य होगा, जो पहले से ही संघ या राज्य की सेवा में नहीं लगा हुआ हो तथा सात वर्ष तक अधिवक्ता या वकील रह चुका हो और उच्च न्यायालय ने उसकी नियुक्ति की सिफारिश कर दी हो। (अनुच्छेद 233)

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