संवैधानिक विधि/constitutional law

भारतीय संविधान की प्रकृति | Nature of Indian Constitution- in Hindi

भारतीय संविधान की प्रकृति

भारतीय संविधान की प्रकृति

भारतीय संविधान की प्रकृति की  विवेचना कीजिये।

भारतीय संविधान की प्रकृति के सन्दर्भ में यह प्रश्न उठता है कि उसकी प्रकृति परिसंघात्मक है या एकात्मक। एकात्मक संविधान वह होता है जिसमें समस्त शक्ति केन्द्रीय सरकार को प्रदान की गई होती है जबकि परिसंघात्मक व्यवस्था में शक्तियाँ केन्द्र तथा राज्य के बीच विभक्त होती है। उस प्रकार भारतीय संविधान की प्रकृति का निर्धारण इसे दो वर्गों में बाँट कर किया जा सकता है।

(1) परिसंघामक,
(2) एकात्मका

परिसंघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व-

एक संघात्मक संविधान में सामान्यतया निम्नलिखित आवश्यक तत्व पाये जाते हैं-

(1) लिखित संविधान-

संघात्मक संविधान आवश्यक रूप से लिखित संविधान होता है। संघ राज्य की स्थापना एक जटिल संविदा द्वारा होती है जिससे संघ में शामिल होने वाली इकाइयाँ कुछ शर्तों पर ही संघ में शामिल होती हैं। इस प्रकार की शर्तों का लिखित होना आवश्यक होता है अन्यथा संविधान की सर्वोच्चता को अक्षुण्ण रखना असम्भव होगा। संविधान के लिखित होने से केन्द्रिय एवं राज्य सरकारों को अपने-अपने अधिकारों के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ज्ञात रहता है एवं वे एक-दूसरे पर विश्वास रखकर कार्य करती हैं।

(2) संविधान की सर्वोपरिता-

संविधान सरकार के सभी अंगों, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का स्रोत होता है। उनके संगठन, स्वरूप एवं शक्तियों की पूर्ण व्यवस्था संविधान में ही निहित होती है। संविधान उनके कार्यक्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है जिनके भीतर ही वे कार्य करती हैं। संघीय अवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है।

(3) शक्तियों का विभाजन-

केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों का विभाजन संविधान का एक परम आवश्यक तत्व है। इन शक्तियों का विभाजन संविधान के द्वारा ही किया जाता है। प्रत्येक सरकार अपने-अपने क्षेत्र में सार्वभौम होती है एवं एक-दूसरे के अधिकारों एवं शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं कर सकती। सरकार के सभी अंगों का स्रोत स्वयं संविधान होता है जो उसकी शक्तियों के प्रयोग पर नियन्त्रण रखता है।

(4) संविधान की अपरिवर्तनशीलता-

लिखित संविधान स्वभावतः कठोर होता है। किसी राष्ट्र का संविधान एक स्थायी दस्तावेज होता है। यह राष्ट्र की सर्वोच्च विधि होता है। संविधान की सर्वोपरिता को बनाये रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया का गठित होना आवश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं कि संविधान अपरिवर्तनशील हो वरन् केवल यह है कि संविधान में वही परिवर्तन किये जा सकें जो समय और परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हों।

(5) न्यायपालिका का प्राधिकार-

संघीय संविधान में केन्द्र और राज्यों के आपसी झगड़ों के निपटारे का कार्य न्यायपालिका को सौंपा जाता है। केन्द्र राज्य सरकारें उनको दी गयी शक्तियों की व्याख्या अपने-अपने पक्ष में कर सकती हैं। इस प्रकार की अवस्था में एक ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है जो स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष हो। संघीय संविधान में यह कार्य न्यायपालिका को सौंपा गया है। यह संस्था किसी के अधीन नहीं होती है। संविधान के उपबन्धों की व्याख्या के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय लेने का प्राधिकार न्यायपालिका को प्राप्त होता है। न्यायपालिका द्वारा की गयी संविधान की व्याख्या से सभी आबद्ध होते हैं।

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों का बहुमत इस पक्ष में था कि भारतीय संविधान पूर्ण रूप से संघात्मक नहीं है परन्तु अल्पमत में माननीय न्यायाधीश सुब्बाराव ने इसे मूल रूप से संघात्मक ही माना जिसे बाद में कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ (1978) एवं सेण्ट्रल इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम ब्रजो नाथ गागुली(1986) के मामलों में समर्थन दिया गया तथा इसी मत को एस. आर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में माना गया।

उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत का संविधान परिसंघामान है। यदि उपर्युक्त लक्षण किसी संविधान में उपलब्ध नहीं होते हैं, तो वह संविधान एकात्मक कहलाता है।

भारतीय संविधान में उपर्युक्त समस्त गुणों का समावेश है। भारत के संविधान में दोहरी शासन व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत एक केन्द्रीय सरकार तथा राज्यों की इकाई के रूप में राज्य सरकारों की स्थापना की गयी है। संविधान द्वारा प्रदत्त कुल शक्तियों को केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभाजित कर दिया गया है। भारत के संविधान को संशोधित करना भी सरल नहीं है तथा भारत का संविधान सर्वोच्च है एवं इसके अन्तर्गत एक स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की गयी है। इस प्रकार भारतीय संविधान एक संघात्मक संविधान है।

लेकिन भारतीय संविधान की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो उसे एकात्मक की ओर झुकाव को दर्शाती है। ये विशेषताएं या तत्व निम्न हैं-

(1) राज्यपाल की नियुक्ति-

प्रान्तों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है (अनुच्छेद 155, 156)। राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर बना रहता है। वह राज्य विधान-मंडल के प्रति नहीं, बल्कि राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राज्य विधान-मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना अधिनियम का रूप नहीं ले सकता है। कुछ विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को वह राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित कर सकता है [अनुच्छेद, 201. 288(2), 304 (b)]। कुछ मामलों में वह अपने विवेकानुसार भी कार्य कर सकता है (अनुच्छेद 166)। ऐसा कहा जाता है कि भारतीय संविधान की उक्त व्यवस्था संघीय सिद्धान्त के प्रतिकूल है और इससे राज्यों की स्वायत्तता पर आघात पहुँचता है। परन्तु यह आरोप उचित नहीं है, क्योंकि राज्यपाल की स्थिति केवल एक सांविधानिक प्रमुख की है जो सर्वदा मन्त्रिमंडल के परामर्श से कार्य करता है। संविधान की शब्दावली जो भी हो किन्तु व्यवहार में ऐसे उदाहरण नगण्य ही हैं जब कि राष्ट्रपति ने राज्य विधान-मंडल द्वारा बनाई गयी विधियों पर अपने निषेधाधिकार (Veto) का प्रयोग किया हो। केरल एजुकेशन बिल ही ऐसा एकमात्र उदाहरण है। किन्तु इस मामले में केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय का परामर्श लेकर ही विधेयक को राज्य विधान-मंडल में पुनः विचारार्थ भेजा था।

(2) राष्ट्रीय हित में राज्य- सूची के विषयों पर विधि बनाने की संसद की शक्ति-

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्य सभा अपने सदस्यों के दो- तिहाई बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक तथा इष्टकर है कि संसद राज्य-सूची में उल्लिखित किसी विषय पर विधि बनाये तो संसद को उस विषय पर विधि बनाना विधिसंगत होगा। इस व्यवस्था पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये। केन्द्र एवं राज्य सरकारों में शक्तियों का विभाजन इसी आधार पर किया जाता है कि राष्ट्रीय हित के विषय पर केन्द्र विधि बनाता है और क्षेत्रीय हित के विषयों पर क्षेत्रीय सरकार। समाज के विकास एवं उसकी परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्रीय विषयों का स्वरूप बदल कर राष्ट्रीय महत्व का हो सकता है और उस समय उस विषय पर ऐसी विधि की आवश्यकता होगी जो देश भर में लागू हो। यह कार्य केवल केन्द्रीय सरकार ही कर सकती।

(3) नये राज्यों के निर्माण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की संसद की शक्ति-

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 संसद को नये राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की शक्ति देता है। इस प्रकार राज्यों का अस्तित्व ही केन्द्र की इच्छा पर निर्भर है। इस व्यवस्था से निश्चय की संघीय सिद्धान्त पर बहुत बड़ा आघात पहुँचता है। किन्तु संविधान निर्माताओं ने इस उपबन्ध को कुछ विशिष्ट कारणों से ही संविधान में समाविष्ट किया है। संसद की क्षेत्रीय समायोजन की शक्ति को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही भलीभाँति समझा जा सकता है। भारतीय संविधान ने भारत में पहली बार संघात्मक व्यवस्था लागू किया और उसमें अनेक इकाइयों (राज्यों) को सम्मिलित किया। भारत में इन इकाइयों का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व कभी नहीं रहा। नये संविधान के प्रवर्तन के समय इस मामले पर गम्भीरता से विचार करने का समय नहीं था और न ही उस समय उसका समुचित हल खोजा जा सकता था। संविधान-निर्माता उन विशिष्ट परिस्थितियों एवं कारणों से भली-भाँति परिचित थे, जिनके फलस्वरूप राज्यों की स्थापना की गयी थी और कालान्तर में उनके क्षेत्रों में पुनः हेर-फेर की आवश्यकता को भी वे अनुभव करते थे। अतएव इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत भविष्य में उठने वाली इस समस्या के समाधान की पहले व्यवस्था करना उचित समझा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संविधान राज्यों की क्षेत्रीय अखण्डता की गारण्टी नहीं देता है। ऐसा राजनीतिक और ऐतिहासिक दोनों कारणों से किया गया है।

(4) आपात्-उपबन्ध-

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि राष्ट्रपति को यह समाधान जाता है कि युद्ध, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह से देश की सुरक्षा संकट में है तो वह आपात् की उद्घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 356 के अधीन यदि राष्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमें उस राज्य में सांविधानिक तन्त्र विफल हो गया है तो वह आपात की उद्घोषणा कर सकता है। ऐसी उद्घोषणा हो जाने पर राज्य सरकार को बरखास्त कर विधान सभा को भंग कर दिया जाता है और राज्य प्रशासन केन्द्रीय सरकार के अधीन आ जाता है। संसद् को राज्य- सूची के विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अनुच्छेद 360 यह उपबन्धित करता है कि जब भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह इस आशय की घोषणा कर सकता है।

आपात् घोषणा का परिणाम यह होता है कि देश का सम्पूर्ण प्रशासन केन्द्र में निहित हो जाता है तथा संसद पूरे देश के लिए विधि बनाने के लिए सक्षम हो जाती है। राज्यों को केन्द्र के निर्देशानुसार अपना प्रशासन चलाना होता है। इन उपबन्धों के परिणामस्वरूप हमारा संविधान एकात्मक रूप धारण कर लेता है।

इस प्रकार भारतीय संविधान कमें वर्णित प्रमुख प्रावधानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत का संविधान एकात्मक नहीं संघात्मक है, परन्तु इस विषय में विभिन्न विचार प्रकट किये जा सकते हैं। भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षणों के आधार पर प्रो. हीयर का विचार है कि “भारत का नया संविधान ऐसी शासन व्यवस्था को जन्म देता है जो अधिक से अधिक अर्द्धसंघीय है। भारत एक ऐसा एकात्मक राज्य है जिसमें गौण रूप से अतिपय संघीय विशेषताएं हैं, न कि वह ऐसा संघात्मक राज्य है, जिसमें कतिपय एकात्मक विशेषताएँ हो” इसी प्रकार दुर्गादास बसु ने कहा है कि, “भारतीय संविधान न तो पूर्ण संघात्मक है और न एकात्मक, अतः यह दोनों का सम्मिश्रण है।’ यद्यपि इस सम्बन्ध में उपर्युक्त दोनों विचारों को स्वीकार नहीं किया जा सकता जिनके द्वारा भारतीय शासन-व्यवस्था को मूल रूप से एकात्मक या अधिक से अधिक अर्द्ध-संघात्मक कहा गया है, परन्तु यह सत्य है कि भारतीय संविधान एक ऐसी संघात्मक शासन व्यवस्था को जन्म देता है जिसका झुकाव एकात्मकता की ओर है। डॉ. अम्बेडकर ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुये संविधान सभा में कहा था कि “भारतीय संविधान को संघात्मकता के तंग ढाँचे में नहीं ढाला गया है।”

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