अनुसंधान प्ररचना के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
अनुसंधान प्ररचना के प्रकार
सामाजिक अनुसंधान प्ररचना प्रमुख रूप से निम्नलिखित चार प्रकार की होती है-
1. अन्वेषणात्मक या निरूपणात्मक प्ररचना –
जब शोधकर्ता किसी ऐसे विषय का शोध करता है जिसमें उपकल्पना का निर्माण कठिन होता है, तब अन्वेषणात्मक शोध प्ररचना का निर्माण किया जाता है। जैसा कि सेल्ट्जि ने लिखा है, “अन्वेषणात्मक शोध प्ररचना उस अनुभव का प्राप्त करन क लिए आवश्यक है जो कि अधिक निश्चित अनुसंधान के हेतु सम्बद्ध प्राकल्पना के निरूपण में सहायक होगा।” शोध के विषय के चयन के उपरान्त प्राकल्पना के निर्माण में इस प्रकार की प्ररचना अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इस शोध प्ररचना द्वारा किसी सामाजिक घटना अथवा परिस्थिति के अन्तर्निहित कारणों की खोज की जा सकती है। सामाजिक अनुसन्धान में अन्वेषणात्मक अध्ययन का महत्व उसके कार्यों के कारण है। अन्वेषणात्मक अध्ययन में सात प्रमुख प्रयोग या कार्य हैं, जो निम्नलिखित प्रकार हैं-
(1) पूर्व निर्धारित उपकल्पना का तात्कालिक स्थितियों के सन्दर्भ में परीक्षण करना।
(2) विभिन्न अनुसन्धान-प्रणालियों के प्रयोग की सम्भावनाओं का स्पष्टीकरण करना।
(3) सामाजिक महत्व की समस्याओं की ओर अनुसन्धानकर्ता को प्रेरित करना।
(4) अनुसन्धान-कार्य को प्रारम्भ करना।
(5) विज्ञान की सीमाओं में विस्तार करके उसके क्षेत्र का विकास करना।
2. वर्णनात्मक प्ररचना/अभिकल्प –
विषय या समस्या के सम्बन्ध में सम्पूर्ण वास्तविक तथ्यों के आधार पर उनका विस्तृत वर्णन करना ही वर्णनात्मक अनुसंधान अभिकल्प है। इस पद्धति में आवश्यक है कि हमें वास्तविक तथ्य प्राप्त हों तभी हम उसकी वैज्ञानिक विवेचना करने में सफल हो सकते हैं। यदि समाज की किसी समस्या का विवरण देना है, तो उस समस्या के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित तथ्य प्राप्त होने चाहिए, जैसे- निम्न श्रेणी के परिवारों का विवरण देना है, तो उसकी आयु, सदस्यों की संख्या, शिक्षा का स्तर, व्यावसायिक ढाँचा, जातीय और पारिवारिक संरचना आदि से सम्बन्धित तथ्य जब तक प्राप्त नहीं होते तब तक हम उसके वास्तविक स्वरूप को प्रस्तुत नहीं कर सकते। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम अपना अनुसंधान-अभिकल्प विषय के उद्देश्य के अनुसार बनायें।
वर्णनात्मक प्ररचना के चरण (Steps of Descriptive Design) –
(i) अध्ययन के उद्देश्यों का निरूपण – सर्वप्रथम खोज से सम्बन्धित मौलिक प्रश्नों की स्पष्ट व्याख्या की जाती है, ताकि असम्बद्ध तथ्यों का संकलन न हो और अभिनति (Bias) से अध्ययन सुरक्षित भी रहे। अध्ययन का उद्देश्य स्पष्ट कर देने से ये दोनों बातें सम्भव हैं।
(ii) तथ्य-संकलन पद्धति की रूपरेखा – अध्ययन के उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या करने के उपरांत आवश्यक सामग्री एकत्रित करने के लिए अध्ययन-पद्धति का चुनाव किया जाता है। भित्र- भिन्न अनुसंधान-पद्धतियों के अपने-अपने गुण हैं। समस्या तथा उद्देश्य के अनुसार सूचना संकलन के लिए सर्वाधिक सहायक प्रणालियों का चुनाव अध्ययन की प्रारम्भिक सफलता है।
(iii) निदर्शन का चुनाव – समूह के प्रत्येक सदस्य का अध्ययन करना अत्यन्त कठिन होता है, अतः समस्त जनसंख्या की कुछ प्रतिनिधि इकाइयों का अध्ययन करके समग्र समूह के दृष्टिकोणों और व्यवहार के स्वरूपों की व्याख्या की जाती है। इन प्रतिनिधि इकाइयों के चुनाव अर्थात निदर्शन के चुनाव में भी अभिनति से बचाव रखना आवश्यक है।
(iv) सामग्री का संकलन तथा पड़ताल – सामग्री संकलन का कार्य वर्णनात्मक अध्ययन में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। साक्षात्कारकर्ता अथवा अवलोकनकर्ता की ईमानदारी तथा परिश्रम से ही शुद्ध तथा यथार्थ सूचनायें एकत्रित की जा सकती हैं, अतः सामग्री संकलन के समय भी कार्यकर्ताओं का नियमित निरीक्षण होते रहना चाहिए। एकत्रित सामग्री की जांच- पड़ताल भी अत्यन्त आवश्यक कार्य है। विश्वसनीयता, स्पष्टता, सम्पूर्णता तथा निरंतरता के लिए संकलित सूचना की पड़ताल वर्णनात्मक अध्ययन का महत्वपूर्ण चरण है।
(v) परिणामों का विश्लेषण – परिणामों के विश्लेषण का अर्थ है, संकलित सामग्री का समूहों के अनुसार वर्गीकरण, सारणीयन तथा सांख्यिकीय विवेचन, आदि। शुद्धता तथा परीक्षण इस कार्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण आवश्यकतायें हैं। अतः सारणीयन तथा सांख्यिकीय विवेचन में तो प्रमुख रूप से निरीक्षण की आवश्यकता होती है।
(vi) प्रतिवेदन/विज्ञप्तिकरण – परिणामों के विश्लेषण के पश्चात् विज्ञप्ति के रूप में निष्कर्षों का प्रकाशन भी किया जाता है।
3. निदानात्मक प्ररचना-
सामाजिक अनुसंधान मूल रूप से दो प्रकार की समस्याओं से सम्बन्धित है। एक तो सामान्य सामाजिक नियमों की खोज करने तथा दूसरी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों के समाधान से सम्बन्धित हैं निदानात्मक अध्ययन वे अध्ययन हैं जो किसी विशिष्ट समस्या के निदान की खोज करते हैं निदानात्मक अध्ययन में समस्या का पूर्ण एवं विस्तृत अध्ययन किया जाता है।
निदानात्मक अध्ययन में प्रमुख रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-
(1) निदानात्मक अध्ययन, जैसा कि शब्दों से ही स्पष्ट है केवल प्राप्ति के उद्देश्य से नही होता, अपितु किसी सामाजिक परिस्थिति के उपचार से सम्बन्धित होता है।
(2) उपचार अथवा निदान प्रस्तुत करने के लिये लक्षण अथवा परिस्थिति को उत्पन्न करने वाले कारकों का पता लगाना अनिवार्य है। अतः निदानात्मक अध्ययन कारकों का भी अध्ययन करता है।
(3) निदानात्मक अध्ययन सामाजिक ढाँचे तथा सामाजिक सम्बन्धों से उत्पन्न उन सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित रहता है. जिनको दूर करना तत्काल आवश्यक होता है।
(4) निदानात्मक अध्ययन एक स्पष्ट तथा निश्चित उपकल्पना के द्वारा संचालित होता है। वास्तव में, निदानात्मक अध्ययन का तात्कालिक उद्देश्य होता हे और यह वर्णनात्मक अध्ययन के बाद की कड़ी है।
4. परीक्षात्मक अथवा प्रयोगात्मक प्ररचना-
भौतिक विज्ञानों की भाँति निश्चित, स्पष्ट तथा यथार्थ परिणाम प्राप्त करने के लिए सामाजिक समस्याओं की प्ररचनाओं में परीक्षणात्मक अध्ययन की आवश्यकता पर बहुत बल दिया जा रहा है। परीक्षण की परिभाषा करते हुए ऐकॉफ ने कहा है- “परीक्षण एक क्रिया है और ऐसी क्रिया है जिसे हम पूछताछ कहते हैं।”
चेपिन के अनुसार, ‘समाजशास्त्रीय अनुसंधान में परीक्षणात्मक प्ररचना की धारणा नियंत्रण की दिशाओं में अवलोकन के द्वारा मानव-सम्बन्धों के व्यवस्थित अध्ययन की ओर संकेत करती है।
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