उपकल्पना के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
परिकल्पना या उपकल्पना के प्रकार
परिकल्पना का वर्गीकरण कई रूप में किया जा सकता है। शोध के उद्देश्य, तथ्यों के प्रकार तथा अमूर्तता का स्तर आदि कुछ ऐसे महत्वपूर्ण आधार हैं जिनके द्वारा परिकल्पनाओं के कई वर्गों क निर्माण किया जा सकता है। गुडे एवं हॉट ने ‘अमूर्तिकरण स्तर’ के आधार पर परिकल्पनाओं के तीन प्रमुख प्रकार बताये हैं-
(1) अनुभवाश्रित परिकल्पनाएँ या वर्णनात्मक परिकल्पना।
(2) आदर्श प्रारूपी परिकल्पनाएँ या सम्बन्धात्मक परिकल्पना।
(3) सैद्धान्तिक परिकल्पनाएँ या कारणात्मक परिकल्पना।
गुडे एवं हॉट द्वारा बतायी गयी परिकल्पनाओं की विस्तृत विवेचना निम्न प्रकार हैं-
(1) वर्णनात्मक परिकल्पना-
ऐसी परिकल्पनाएँ जिनमें किसी घटना, वस्तु, व्यक्ति आदि की विशेषताओं का वर्णन किया गया होता है, वर्णनात्मक परिकल्पनाएँ कहलाती हैं। बहुधा इस प्रकार की परिकल्पनाएँ हमारे रोजमर्रा के सामान्य अनुभवों पर आधारित ऐसे विचार होते हैं जनका वैज्ञानिक परीक्षण किया जा सकता है। ऐसी परिकल्पनाओं को लेकर किये गये अध्ययनों द्वारा आनुभाविक समरूपताओं अथवा नियमितताओं को प्रकट अथवा प्रदर्शित करने का प्रयास किया जाता है। जैसे किसी विश्वविद्यालय के छात्र एवं छात्राएँ कैसे कपड़े पहनते हैं? कितने विद्यार्थी पान, तम्बाकू अथवा गाँजे का प्रयोग करते है? कितने विद्यार्थी रोजाना पुस्तकालय जाते हैं, आदि। हमारे सामान्य अनुभवों पर आधारित होने के कारण गुडे तथा हॉट ने इन्हें ‘अनुभवाश्रित परिकल्पना’ कहा है।
(2) सम्बन्धात्मक परिकल्पनाएँ-
वर्णनात्मक परिकल्पनाओं के विपरीत सम्बन्धात्मक परिकल्पनाएँ दो या दो से अधिक परिवत्यों के मध्य सम्बन्धों को प्रकट करने वाली होती है। इस प्रकार की परिकल्पनाओं की रचना मुख्यतः आनुभविक सादृश्यताओं के आधार पर निकाले गये तार्किक निष्कर्षों पर होती है। ‘मानव परिस्थितिकी’ की अवधारणा के आधार पर आनुभाविक समरूपताओं को प्रकट करने वाली कई परिकल्पनाओं को विकसित किया गया है। मानव पारिस्थितिकी’ की अवधारणा के अनुसार यह माना जाता है कि किसी क्षेत्र विशेष की विशिष्ट परिस्थितियाँ उसके निवासियों के जीवन को प्रभावित करती है। बर्गेस की ‘सकेन्द्रित घेरों’ की अवधारणा एक ऐसी ही परिकल्पना है जो नगर की विशेषताओं के आधार पर नगर के विकास को प्रकट करती है। इसी प्रकार ‘प्राकृतिक क्षेत्र की एक अन्य अवधारणा ने अपराध तथा बाल अपराध की अनेक परिकल्पनाओं को विकसित करने में सहायता की है।
सम्बन्धात्मक परिकल्पनाओं का जनम हर समय तार्किक निष्कर्षों के आधार पर ही होता कारक हैं। है, ऐसी बात नहीं है। वे हमारे सामान्य अनुभवों पर भी आधारित हो सकती है। किन्तु तार्किक निष्कर्षों पर आधारित परिकल्पनाएँ सामान्य अनुभव पर आधारित परिकल्पना से ऊँचे स्तर की होती है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री दुर्शीम ने आत्महत्या के सम्बन्ध में इस प्रकार की अनेक परिकल्पनाओं को विकसित किया है, जैसे-
(अ) विवाहितों की अपेक्षा अविवाहित अधिक आत्महत्या करते हैं।
(ब) केथोलिक की अपेक्षा प्रोटेस्टेन्ट अधिक आत्महत्या करते हैं।
(3) कारणात्मक परिकल्पना-
सम्बन्धात्मक परिकल्पना विभिन्न परिवत्यों के मध्य सम्बन्धों के स्वरूप को प्रकट करती है, जबकि कारणात्मक परिकल्पनाओं में यह प्रदर्शित किया जाता है कि किस प्रकार एक विशिष्ट तत्व या घटना किसी अन्य तत्व अथवा घटना के उत्पन्न करने वाले कारकों में से एक कारक है। उदाहरणार्थ, मनोविश्लेषण सिद्धान्त की इस परिकल्पना के अनुसार यह माना जाता है कि “शेशवावस्था तथा बाल्यावस्था के अनुभव प्रौढ़ व्यक्तित्व के निर्धारण के महत्वपूर्ण कारणात्मक परिकल्पनाओं के द्वारा दो या दो से अधिक परिवत्यों के मध्य होने वाले परिवर्तनों का स्पष्टीकरण किया जाता है, अर्थात् यदि किसी एक कारण या परिवर्त्य में परिवर्तन होता है तो यह परिवर्तन किस सीमा तक दूसरे कारक या परिवर्त्य को प्रभावित करेगा। दुर्थीम की यह परिकल्पना कि “किसी भी सामाजिक समूह में आत्महत्या की दर में अहंभाव की मात्रा के अनुसार परिवर्तन होता है।” कारणात्मक परिकल्पना का एक उदाहरण है। इसी प्रकार, एक अन्य परिकल्पना के अनुसार यह माना जाता है, कि “मानवीय जनन क्षमता पर सम्पदा, क्षेत्र, समुदाय तथा धर्म आदि का प्रभाव पड़ता है।” अतएवं यदि इनमें से किसी एक कारक में परिवर्तन होता है तो मानवीय जनन क्षमता पर क्या प्रभाव पड़ता है, उसे जानने का प्रयास किया जाता है।
(4) कामचलाऊ परिकल्पना-
कई बार यह देखा गया है कि किसी समस्या पर शोध करते समय एक वैज्ञानिक का ज्ञान उस समस्या के सम्बन्ध में अति न्यून अथवा सीमित होता है। इस समस्या के अत्यल्प तथा सीमित ज्ञान के आधार पर बनाई गई प्रारम्भिक परिकल्पना ही कामचलाऊ परिकल्पना कहलाती है। वैज्ञानिक जैसे-जैसे अपने अनुसन्धान कार्य में आगे बढ़ता जाता है और तथ्यों पर अधिकार प्राप्त करता चला जाता है, उसके ज्ञान में वृद्धि होती चली जाती है। तब वह इस आवश्कयता का अनुभव करने लगता है कि वह अपने द्वारा बनाई गई प्रारम्भिक परिकल्पना में नई जानकारी के सम्बन्ध में परिवर्तन करे या उस प्रारम्भिक परिकल्पना को बिल्कुल ही अस्वीकार कर दे और नवीन परिकल्पना की रचना करे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके द्वारा प्रारम्भ में बनाई गई परिकल्पना केवल मात्र कार्यवाहक, कालचलाऊ अथवा अस्थाई महत्व की होती है। इस प्रकार की परिकल्पनाओं में परिवर्तन, संशोधन तथा परिवर्द्धन की गुंजाइश होती है, इसीलिए इन्हें कामचलाऊ परिकल्पना कहा जाता है।
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