Hindi Bhasha Aur Uska Vikas | हिन्दी भाषा का विकास
हिन्दी Hindi Bhasha Aur Uska Vikas | हिन्दी भाषा के विकास पर संक्षिप्त लेख लिखिये। –का विकास काल हिन्दी के उदय-काल से लेकर वर्तमान समय तक विकासात्मक इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) प्राचीन काल (सन् 1000 ई. से 1500 ई. तक),
(2) मध्य काल (सन् 1500 ई. से 1800 ई. तक),
(3) आधुनिक काल (सन् 1800 ई. से अब तक)।
(1) प्राचीन काल (1000 से 1500 ई. तक)
हिन्दी भाषा का यह प्रारम्भिक काल था। अपभ्रशं तथा प्राकृतों का प्रभाव हिन्दी भाषा पर पूर्णतः स्थापित हो चुका था तथा हिन्दी की बोलियों के निश्चित स्पष्ट रूप विकसित नहीं हो पाये थे।
(2) मध्य काल (1500 से 1800 ई. तक)
इस काल में हिन्दी अपभ्रंशो का प्रभाव बिल्कुल हट गया था और हिन्दी की बोलियाँ विशेष रूप से खड़ी बोली, ब्रज और अवधी अपने पूर्ण को प्राप्त कर चुकी थी।
(3) आधुनिक काल ( 1800 ई. से अब तक)
आधुनिक काल में साहित्यिक दृष्टि से खड़ी बोली ने हिन्दी की अन्य बोलियों के स्थान पर सबसे आदर्श भाषा का पद प्राप्त कर लिया। अन्य भाषाओं की अपेक्षा खड़ी बोली भारत की सबसे सशक्त, समृद्ध, प्रौढ़ तथा प्रांजल भाषा है। अब यह राष्ट्रभाषा का गौरव भी प्राप्त कर चुकी है।
(1) प्राचीन काल हिन्दी के प्रारम्भक विकास का पाँच सौ वर्षों का यह समय सम्पूर्ण भारतीय इतिहास में उथल-पुथल का समय रहा है। यद्यपि भारत पर विदेशियों के आक्रमण पहले से ही हो रहे थे किन्तु 1000 ई. के पश्चात् मुस्लिम जातियों द्वारा आक्रमण का जो क्रम चल वह इस पूरे काल में अनवरत गति से चलता ही रहा।
डॉ. चटर्जी ने लिखा है कि, “यदि भारतीय जीवन की धारा पूर्व निर्मित दिशा में बहती रहती और उस पर बाहर का कोई भीषण आक्रमण न हुआ होता तो सम्भवतः भारतीय आर्य भाषाओं का श्रीगणेश तथा विकास दो-एक शताब्दी पश्चात् ही होता।” लेकिन इस बारे में यह भी ध्यान देने योग्य है कि मुसलमानी आक्रमणों से भारतीय आर्य भाषाओं का अगर विकास हुआ तो बड़ा नुकसान भी हुआ क्योंकि उस समय के अर्द्धविकास तथा अविकसित भाषाओं के साहित्य को सम्बल एव सुरक्षा प्रदान करने वाले तत्कालीन राजा-महाराजा इन आक्रमणों के बाद नष्ट हो गये थे।
जिस समय हिन्दी का विकास हो रहा था उस समय हिन्दी प्रदेश तीन राज्यों में बँटा- हुआ था—(1) दिल्ली, अजमेर का चौहान वंश, (2) कन्नौज का राठौर वंश, (3) महोबा का परमाल वंश।
प्रसिद्ध कवि ‘नरपति नाल्ह’ अजमेर राज्य से तथा चन्दवदाई दिल्ली से सम्बन्धित थे। इस काल का दूसरा राज्य राठौर वंश था। इसकी राजधानी कन्नौज थी तथा इसके अन्तिम राजा जयचन्द का दरबार साहित्य चर्चा का प्रमुख स्थल था परन्तु यहाँ प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं का अधिक सम्मान था फिर यह कहा जा सकता है कि इन्हीं प्रदेशों में हिन्दी भाषा पली होगी तथा कन्नौज नगर के पूर्ण नष्ट हो जाए से इस केन्द्र की साहित्य सामग्री भी समाप्त हो गई।
हिन्दी के विकास का तीसरा प्रधान क्षेत्र महोबा राज्य था। महोबा के राजकवि ‘जगनिक’ का नाम अब तक प्रसिद्ध है। इन्हीं तीनों राज्यों के संरक्षण में हिन्दी अपने विकास के स्वरूप प्राप्त कर रही थी परन्तु 11वीं शती के अन्तिम चरण में मुहम्मद गोरी ने चौहान वंश के सम्राट पृथ्वीराज को परास्त कर दिल्ली पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। कन्नौज के राजा जयचन्द की पराजय के बाद तो प्रायः हिन्दी की विकास भूमि पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया। हिन्दी राज्यहीन हो गयी फिर भी राजस्थान इस युग में भारतीय संस्कृत का एकमात्र प्रश्रय स्थल रह गया। यही कारण है कि आदिकाल से जो कुछ भी साहित्य हमें प्राप्त है उसका अधिकांश भाग राजस्थान से ही मिला है।
हिन्दी प्रदेश पर विदेशी शासन की स्थापना प्रगतिशील तथा विकासोन्मुख होती हुआ हिन्दी भाषा के लिए अवरोध पैदा कर दिया जिनके प्रभाव से हिन्दी अब तक भी मुक्त नहीं हो सकी है- इस विदेशी शासन काल के 3000 वर्षों के दौरान दिल्ली के राजनैतिक केन्द्र रहते हुए भी हिन्दी को कोई राजकीय प्रोत्साहन नहीं मिला। इस काल में दिल्ली में ‘अमीर खुसरो’ ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मनोरंजन तथा मुसलमानों के बीच हिन्दी का संचार करने के लिए हिन्दी की कुछ रचनायें की परन्तु बाद में पूर्वी धार्मिक आन्दोलन ने तीव्रता पकड़ी तथा उससे प्रेरित रचनात्मक साहित्य सामने आया। इन आन्दोलनों के प्रमुख प्रवर्तक गोरखनाथ, रामानन्द तथा उसके विशेष शिष्य कबीर उल्लेखनीय हैं।
लिपि में सूफी कवियों द्वारा लिखी गई थी।
इस काल की भाषा में पुरानी खड़ी बोली का नष्ट रूप देखने को मिलता है। मुख्य से इस काल के लेखकों में खाना वादा नवाज का नाम आता है।
कबीर चला जाइ था आगे मिल्या खुदाइ,
मीरा मुझसू, यूँ कइया किन गुमाई गाइ।
परन्तु कबीर की बोली में मिलावट थी और उनकी वाणी मौखिक रूप में ही प्रचलित थी अतः कबीर का काल व भाषा दोनों ही संदिग्ध हैं। चारण ग्रन्थों की भी
प्रामाणिकता के अभाव में स्वीकार नहीं किया गया। इस काल के साहित्य अमीर खुसरो की मुक्तक पहेलियाँ व मुकरियाँ खड़ी बोली का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। स्वयं खुसरो ने हिन्दी भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा था-
“हिन्दी में मिलावट नहीं खपती और उसका व्याकरण नियम बद्ध है।” डॉ. बड़थ्वाल भी खुसरो की भाषा को हिन्दी का प्राचीन रूप मानते हैं।
“खुसरो के नाम से आज जो कविता मिलती है उसमें चाहे कितना ही परिवर्तन क्यों न हो गया हो, निश्चय ही मूल में वही भाषा है जिसे हम आज हिन्दी कहते हैं।”
संक्षेप में, हिन्दी के प्राचीनकाल में अपभ्रशों और प्राकृतों का हिन्दी पर प्रभाव था। हिन्दी का स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं हुआ था तथा राजनैतिक दृष्टि से मुसलमानों के साम्राजय के कारण इस काल की भाषा में विदेशी शब्दों का प्रचुरता हो गयी। इस काल के प्रमुख कवियों में महाकवि चन्दबरदायी, नरपति नाल्ह, गोरखनाथ, विद्यापति कबीर आदि का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता है।
मध्य-काल (सन् 1500 से 1800 को बीच)-
इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाता है, प्राचीनकाल से विकसित होती हुई हिन्दी से मध्यकाल में प्रवेश किया। हिन्दी के मध्यकाल में हिन्दी की तीन बोलियाँ- अवधी, ब्रज एवं खड़ी बोली साहित्य मंच पर अवतरित हुई। इसमें ब्रज तथा अवधी को विशेष महत्व प्राप्त हुआ।
अवधी—कबीर की भाषा में पूर्वी हिन्दी और अवधी की झलक मिलती है इसमें अवधी जो अवध प्रदेश की बोली थी सूफी काव्य साधना का मध्यम बनी तथा राम भक्ति शाखा के कवियों द्वारा अङ्गीकृत होकर साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करने में सफल. हुई। अवधी का यह रूप असांस्कृतिक तथा परिमार्जित था परन्तु बाद में महाकवि तुलसीदास ने उसमें संस्कृत शब्दावली का संयोग करके पारिमार्जित व प्रांजल बनाया तथा साहित्यिक भाषा का गौरवशाली पद प्रदान किया।
अवधी में अधिकांशतः प्रबन्ध काव्यों की रचना हुई। जायसी का ‘पदमावत्’, कुतुबन की ‘मृगावती’, शेख नबी का ‘ज्ञान दीप’, नूर मुहम्मद की ‘इन्द्रावती’ आदि सूफी कवियों के लिखे हुए प्रबन्ध काव्य अवधी भाषा में ही है। अवधी का महत्वपूर्ण काव्य तुलसीदास ‘रामचरितमानस’ है जो भक्त्ति प्रधान काव्य है। बाद में तुलसीदास ने भक्ति भावना से प्रभावित होकर ‘विनयपत्रिका’, कृष्ण गीतावली आदि ग्रन्थों की रचना की।
15वीं शती के उपरान्त अवधी भाषा में किसी महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना नहीं हुई। तुलसी के द्वारा ही अवधी चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई और साहित्यिक अवधी की यह धारा तुलसी कै मानस के साथ ही क्रमशः क्षीण होती हुई और भक्ति काल के अन्त तक जाते-जाते इसका स्वरूप मात्र लोक भाषा का स्वरूप रह गया।
ब्रजभाषा- हिन्दी के मध्यकाल के बीच मध्यदेश की महान भाषा परम्परा के उत्तरदायित्व का पूर्ण रूप से यदि किसी भाषा ने निर्वाह किया है तो वह ब्रज-भाषा है। ज्यों-ज्यों कृष्णभक्ति का प्रचार बढ़ा ब्रजभाषा का महत्व भी बढ़ता गया। सूरसेन के प्रदेश की इस बोली को संस्कृत से लेकर शौरशेनी अपभ्रंश तक की सारी शक्ति और गरिमा अपनी परम्परा के रूप एक साथ प्राप्त हुई थी। साहित्य और काव्य प्रेमियों ने इसे समस्त भाषाओं से अधिक गौरव प्रदान किया।
17वीं 18वीं शताब्दी का समस्त साहित्य प्रायः ब्रजभाषा में ही लिखा गया। सूरदास, नन्ददास आदि अष्टछाप कवियों की निधि तथा रीतिकालीन कवियों व आचार्यों की वाणी का श्रृंगार ब्रजभाषा का रूप दिन-दिन साहित्य परिष्कृत तथा संस्कृत होता चला गया। पंजाब से लेकर बंगाल तक इस भाषा की मधुर झंकार कई शताब्दियों तक गूंजती रही। पंजाब, महाराष्ट्र, बंगाल, गुजरात आदि के कवियों के समान रूप से इसमें रचनाएँ की। डॉ. ग्रियर्सन को इसे मध्य देश की ‘आदर्श भाषा’ मानना पड़ा। केशव, बिहारी, देव, मतिराम, चिन्तामणि, घनानन्द, सेनापति, आदि ने कवि-कौशल से ब्रजभाषा को सजाया-संवारा, भूषण ने उसमें वीर रस का समावेश किया। महाकवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्द दास, आदि भक्त कवियों की वाणी ने इसमें प्राण फूंके तथा रीति काल तक आते-आते इसके सौन्दर्य, शक्ति और जीवन का संचार हुआ। इसके साहित्यिक लावण्य ने दीर्घकाल तक इसे काव्य भाषा बनाए रखा।
खड़ी बोली- अवधी और ब्रज के साथ-साथ एक बोली के रूप में बराबर विकास करती रही। हेमचन्द्र के काव्य में इसका उदाहरण मिलता है।
अवधी और ब्रज के साथ-साथ एक बोली के रूप में बराबर विकास करती रही। हेमचन्द्र के काव्य में इसका उदाहरण मिलता है।
‘भल्ला हुआ तो भारिआ, बाहीणी म्हाराकंतु।
लज्जेज्जंतु बंयसि अहु, जे भग्गा घरू अन्तु।’
बाद में यह कबीर व खुसरो का अवलम्बन पाकर परिस्थिति के अनुसार विविध भाषाओं पर अपना प्रभाव डालते-डालते साहित्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान बना बैठी। परन्तु हिन्दू कवि इसे स्वीकृति नहीं दे पा रहे थे क्योंकि भ्रमवंश खड़ी बोली को मुसलमानी प्रभाव से उत्पन्न भाषा में समझा गया। वैसे खड़ी बोली का प्रारम्भिक रूप अपभ्रंश कवियों में ही दिखाई पड़ने लगा था। यह निश्चित धारणा है कि खड़ी बोली का सम्यक् विकास आधुनिक काल में ही हुआ।
आधुनिक काल ( 1800 ई. से अब तक)
हिन्दी के आधुनिक काल तक आते-आते ब्रजभाषा भी साहित्यिक भाषा से दूर हट चुकी थी। अवधी तो बहुत समय पहले ही साहित्य से अलग हो गयी थी। अब साहित्य क्षेत्र में खड़ी बोली के दीर्घ प्रतीक्षित प्रगति द्वार खुले और वह शीघ्रातिशीघ्र विकास क्षेत्र में आ गई तथागद्य क्षेत्र में उसने पूरा एकाधिकार कर लिया। इसका बहुत कुछ कारण अंग्रेजी शासन व भारतेन्दु मण्डल के साहित्यकारों को दिया जा सकता है, परन्तु इस समय भी पद्य क्षेत्र में ब्रजभाषा अपनाई जा रही थी। 20वीं शती तक आते-आते गद्य व पद्य दोनों में खड़ी बोली ने अपना एकाधिकार स्थापित किया। द्विवेदी युग की कविता ने भी ब्रज का आवरण त्याग दिया। फिर तो खड़ी बोली के साहित्य का इतनी तीव्र गति से विकास हुआ कि उसकी समता करना किसी भाषा के लिए कठिन हो गया।
खड़ी बोली के विकास की प्रेरक स्थितियाँ-
1. अंग्रेजों ने भारतीय से विचार- विनिमय के लिए इसी भाषा को माध्यम रूप से स्वीकार। 2. ईसाई मिशनरियों ने भी अपना धर्म प्रचार इसी भाषा के माध्यम से किया। ईसा के उपदेशों का इसी भाषा में अनुवाद हुआ एवं उन्हें प्रकाशित करके वितरित किया। 3. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म के प्रचार के लिए इस, भाषा में अपने ग्रन्थ लिखे। 4. संस्कृत शब्द का भंडार इसे विरासत के रूप में मिला था परन्तु अरबी, फारसी तथा अन्य भाषाओं के शब्द को स्वीकार कर अपने शब्द भण्डार को सम्पन्न बनाया तथा यह हिन्दी साहित्य की साम्रज्ञी बन गई।
सर्वप्रथम हिन्दी खड़ी बोली में रचना करने वाले में लल्लूलाल, सदामुख लाल, सदल मिश्रा, इंशा अल्ला खाँ, राजा लक्ष्मण सिंह आदि थे। इन्होंने इसके विकास को आगे बढ़ाया। कलकत्ता से फोर्ट विलियम कालेज के तत्वाधान में हिन्दी गद्यं का निर्माण विकास की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास था। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने भी पहले काव्य की भाषा ब्रजभाषा ही रखने को कहा तथा गद्य की भाषा खड़ी बोली पर बल दिया। सन् 1900 ई. तक खड़ी बोली केवल गद्य की ही भाषा थी। परन्तु आचार्य महावीर प्रसाद के अथक प्रयासों के फलस्वरूप बज्र-भाषा साहित्य क्षेत्र से अलग होने लगी तथा खड़ी बोली का प्रभाव बढ़ने लगा तथा आज यह अपने चरम विकास पर है, इसके विकास में इसकी विभाषाएँ और बोलियाँ दबी नहीं हैं बल्कि वे एक क्षेत्रीय स्तर पर विकासमान हैं। आज की खड़ी बोली (हिन्दी) का विकास निरन्तर हो रहा है। अपनी शक्ति, सामर्थ्य एवं वैज्ञानिकता के कारण यह आज राज-भाषा पर आसीन है तथा उत्तरोत्तर समृद्धिशाली होती जा रही है। इसका भविष्य उज्जवल है। आज खड़ी बोली का प्रयोग साहित्य विविध विधाओं में व्याप्त होता हुआ बहुमुखी शक्ति का परिचय देता है। महाकाव्य, खण्डकाव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, एकांकी, निबन्ध रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, रिपोतार्ज आदि अनेक अनेक विधाएँ खड़ी बोली के माध्यम से विकसित हुई हैं। राज-भाषा एवं राष्ट्रभाषा का महत्वपूर्ण पद पाकर हिन्दी सम्पूर्ण विश्व में यश की अधिकारिणी बनी है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में भी हिन्दी के प्रयोग को संभाव्य बनाया जा रहा है। हिन्दी भाषा एवं व्याकरण के मानक स्वरूप का निर्धारण करके उसे ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, संस्कृति एवं प्रशासन की समर्थ भाषा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। स्वतन्त्र भाषा में राष्ट्रीय-चेतना की संवाहिका के रूप में हिन्दी की प्रतिष्ठा है। अखिल भारतीय स्तर पर जनशक्ति का समर्थन हिन्दी को प्राप्त है और उसके समुचित विकास के लिए व्यक्तिगत, सार्वजनिक, शासनिक तथा अशासनिक सभी स्तरों पर बहुआयामी प्रयत्न किया जा रहे हैं।
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