हिन्दी की मूल आकर भाषा का अर्थ Akar Bhasha Meaning Hindi
हिन्दी की मूल आकर भाषा का अर्थ उस मौलिक प्राचीन भाषा से है जिससे आवश्यकतानुसार नयी भाषा स्वरूप ग्रहण करती है। जैसे हिन्दी की आकर-भाषा संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश हैं, क्योंकि हिन्दी का विकास संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश से हुआ है। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
1. संस्कृत भाषा
इसके वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत दो रूप मिलते हैं। वैदिक संस्कृत का परिनिष्ठित रूप वैदिक साहित्य में मिलता है। वैदिक साहित्य के कालक्रमानुसार चार खण्ड है-संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदं। पुनः संहिताओं की संख्या भी चार है-ऋक्, यजु; साम और अर्थव। इन संहिताओं की रचना विभिन्न कालों में, विभिन्न स्थानों पर, विभिन्न ऋषियों द्वारा हुई थी। स्वभावतः इनमें भाषा की दृष्टि से पर्याप्त भेद रहा होगा, किन्तु आगे चलकर संकलनकर्ताओं ने भाषा में बहुत कुछ एकरूपता ला दी है। यद्यपि वैदिक भाषा के स्वरूप को बहुत कुछ स्थिर कर दिया गया था, किन्तु ब्राह्मणों और उपनिषदों की भाषा को देखने से लगता है कि वह निरन्तर विकसित होती रही है।
अस्तु, कालान्तर में वैदिक संस्कृत परिनिष्ठित होकर रूढ़ हो गयी। उपनिषदकाल का अन्त होते-होते जनभाषाओं का उदय हुआ जिसके तीन रूप थे-उदीच्य, मध्य-देशीय और प्राच्य। ये तीनों भाषाएँ क्रमशः सप्तसिन्तु, मध्य देश और पूर्वी अंचल में प्रयुक्त होती थीं। इनमें से उदीच्य का साहित्यिक रूप लौकिक संस्कृत नाम से प्रसिद्ध हुआ। यही उस काल की आर्ष और शिष्ट जनोवित भाषा थी। ई०पू० चौथी-पाँचवीं शताब्दी में प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ की रचना कर भाषा का व्याकरण बनाया। व्याकरण के नियमों से बँध जाने के कारण इसका विकास अवरुद्ध हो गया। यहाँ तक कि अनेक विद्वान इसे एक कृत्रिम भाषा मानने के पक्षधर हो गये। संस्कृत बहुत दिनों तक साहित्य, दर्शन और धर्म की भाषा रही है। आज भी सम्पूर्ण भारत में एक विशिष्ट वर्ग के विद्वान इसका प्रयोग धर्म और साहित्य में करते हैं।
2. पालि भाषा
भाषा के अर्थ में पालि का प्रथम प्रयोग बुद्धघोष ने किया था। ‘पालि’ शब्द की व्युत्पत्ति पर विद्वानों में मतभेद है। इसे ‘पंक्ति’ अथवा ‘पल्लि’ अथवा ‘पाटिल’ अथवा ‘पर्याय’ अर्थात ‘प्राकृत’ से निष्पन्न माना जाता है। पालि शब्द वस्तुतः ‘पा’ धातु में ‘णिच’ प्रत्यय (लि) का योग होने से निष्पन्न होता है। पालियति रक्षतीति तस्मात पालि’ के अनुसार बुद्ध के वचनों की रक्षा, उनका संकलन और लेखन जिस भाषा में किया गया है वही पालि है।
मध्यकालीन जन-भाषा के तीन रूप पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी-प्रचलित थे। इन्हीं से इस काल की विभिन्न भाषाओं का विकास हुआ। पालि का विकास किस भाषा से हुआ, कहा नहीं जा सकता। विद्वानों ने इसका संबंध, उज्जैनी, कोशली, प्राचीन शैरसेनी तथा विन्ध्य प्रदेश एवं कलिंग की भिन्न-भिन्न भाषाओं से बताया है। सच यह है कि सम्पूर्ण पालि-साहित्य में भाषा के कई स्तर हैं। ‘त्रिपिटक’ की गाथाओं में प्राप्त पालि का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत के बहुत निकट है। ‘त्रिपिटक’ के गद्य में उसका किंचित विकसित रूप दिखाई पड़ता है। बुद्धघोष की ‘अट्ठकथा’ में पालि का तीसरा रूप मिलता है। कालीन काव्य-ग्रंथों में पालि का चौथा रूप देखा जा सकता है। ‘तिरपिटक’ में इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि महात्मा बुद्ध जनभाषा को अत्यधिक महत्व देते थे। अरस्तु, सम्भव है कि स्वयं भगवान बुद्ध ने अपने संदेश विविध जनपदीय बोलियों में दिये हों। यह भी अनुमान किया जा सकता है कि बुद्ध के महानिर्वाण के बाद उनके वचनों का संग्रह सर्वसामान्य भाषा, प्राचीन शौरसेनी में हुआ हो जिसे एकरूपता प्रदान करने के फलस्वरूप पालि भाषा का निर्माण हो गया हो। स्वरूप की दृष्टि से पालि भाषा की ध्वनियों में बड़ा परिवर्तन हुआ। इसमें ‘ऋ’ ‘लु’ ‘ऐ’ और ‘औ’ स्वरों तथा विसर्गों का लोप हो गया। ह्रस्व ‘ए’ और हस्व ‘ओ’ जैसे दो नये स्वरों का विकास हुआ। ऊष्म ध्वनियों में केवल ‘स’ शेष रही। व्यंजनांत शब्द प्रायः समाप्त हो गये। धातु रूपों में बहुलता दिखाई पड़ी। पालि में कूदन्त रूप वर्तमान है।
3. प्राकृत भाषाएँ
इस काल में पालि के अतिरिक्त जनभाषा के जो रूप प्रचलित थे उन्हें अभिलेखीय प्राकृत, नियप्राकृत और अश्वघोष की प्राकृत के नाम से जाना जाता है। अभिलेखीय प्राकृत भाषाओं के अंतर्गत अशोक के शिलालेखों, साँची और भरहुत के अभिलेखों, सारनाथ के कनिष्ककालीन अभिलेखों की गणना की जाती है। इन अभिलेखों को भाषा की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
1. शहबाजगढ़ी और मानसेरा के शिलालेख जिनमें उत्तर-पश्चिम की जनभाषा प्रयुक्त है।
2. गिरिनार (गुजरात) के शिलालेख जिनमें दक्षिण-पश्चिम की जनभाषा सुरक्षित है।
3. जौगढ़ और धौली (ओडिशा) के शिलालेखों में सुरक्षित प्राच्य जन-भाषा।
इन जनभाषाओं की लिपि क्रमशः खरोष्ठी, गुजराती और ब्राह्मी है। इन भाषाओं में ये प्राच्य जनभाषा का प्रभाव अन्य भाषाओं पर भी दिखायी पड़ता है। इन भाषाओं की ध्वनियाँ प्रायः पालि के समान हैं। अभिलेखीय भाषा के परवर्ती रूप पर संस्कृत का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक मुखर है। 200 ई0पू0 के आसपास मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं का जो रूप प्रचलित था उसका नमूना अश्वघोष के नाटकों तथा मध्य एशिया में निय नामक स्थान से प्राप्त नियप्राकृत नामक प्रसिद्ध भाषा में देखा जा सकता है। अश्वघोष के नाटकों में प्राचीन मागधी, प्राचीन, शौरसेनी और प्राचीन अर्द्धमागधी के दर्शन होते हैं तथा नियप्राकृत पश्चिमोत्तरीय भाषा का एक रूप जान पड़ती है।
ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी तक प्राकृतों का एक निश्चित स्वरूप उभड़कर सामने आ गया था। साहित्यिक रचनाओं में इनके साधारणतः पाँच रूप प्रचलित थे-शोरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्द्धमागधी और पैशाची।
शौरसेनी प्राकृत
शौरसेनी प्राकृत मूलतः शूरसेन (मथुरा के आसपास) के भाषा थी। यह पश्चिमी प्राकृत की प्रमुख भाषा थी। संस्कृत नाटकों में स्त्री पात्रों और विदूषकों के द्वारा गद्यभाषा के रूप में प्रयुक्त होने के कारण इस पर संस्कृत भाषा का बड़ा प्रभाव रहा है। इस भाषा की कोई स्वतन्त्र कृति अभी तक नहीं प्राप्त हो सकी है। वररुचि कृत ‘प्राकृत प्रकाश’ और हेमचन्द्र कृत ‘प्राकृत व्याकरण’ में इस भाषा का उल्लेख है। शौरसेनी प्राकृत का मुख्य का मुख्य लक्षण यह है कि इसमें दो स्वरों के मध्य में आने वाली ‘त’ और ‘य’ ध्वनियाँ क्रमशः ‘द’ और ‘ध’ में परिवर्तित हो जाती हैं, किन्तु दो स्वरों के मध्य में मूल ‘द’ और ‘ब’ ध्वनियाँ अपरिवर्तित रह जाती हैं, जैसे-गच्छति > गच्छदि, जलद > जलदो की। रूप की दृष्टि से यह भाषा कुछ बातों में संस्कृत की ओर झुकी है। महाराष्ट्री से भी इसका काफी साम्य है।
महाराष्ट्रीय प्राकृत
साहित्यिक दृष्टि से महाराष्ट्रीय प्राकृत का नाम सर्वप्रमुख है। इसे शौरसेनी का विकसित रूप माना गया है। ‘गाथा सप्तशती’ महाराष्ट्री प्राकृत की प्रमुख रचना है। इसका प्रयोग काव्य-भाषा के रूप में भी होता रहा। इस भाषा में जैनी और बौद्ध साहित्य भी लिखा गया। इसमें स्वर मध्यम ‘स’ के स्थान पर ‘ह’ हो गया है, जैसे-पाषाण–पाहाण।
पूर्णकालिक क्रिया ‘ऊण’ लगाने से सिद्ध होती है; जैसे-पृष्टवा-पुच्छिऊण। मागधी प्राकृत-मागधी पाकृत पर शौरसेनी का प्रभाव है। कुछ वैयाकरण इसे शौरसेनी से विकसित बताते हैं। यह मगध प्रदेश की भाषी थी। संस्कृत नाटकों में निम्नकोटि के पात्रों के द्वारा इसका प्रयोग हुआ है। प्राकृत वैयाकरणों ने चाण्डाली तथा शाबरी नाम से इसकी विकृतियों का उल्लेख किया है। मागधी में ” > ‘ल’ तथा ‘ ‘स’ > ‘श’ हो जाता है, जैसे राजा > लाजा, समर> शमल।
अर्द्ध-मागधी प्राकृत
अर्द्धमागधी प्राकृत कोशल और काशी प्रदेश की भाषा थी। मागधी और शौरसेनी प्राकृतों के मध्यवर्ती क्षेत्र की भाषा होने के कारण इस पर उक्त दोनों भाषाओं का प्रभाव है। जैन-साहित्य में इसे ‘आर्षी’ नाम से जाना जाता है। अभी तक इसकी कोई स्वतन्त्र रचना नहीं प्राप्त हुई है। संस्कृत के ‘शरिपुत्र-प्रकरण’ (अश्वघोष) नाटक में इसका प्रयोग हुआ है। इसमें स्वर मध्यम व्यंजन का लोप हो जाता है और उसके स्थान पर ‘य’ का आगम हो जाता है; जैसे सागर > सायर, कृत > किय। दन्त्य व्यंजनों के मूर्धन्यीकरण की प्रवृत्ति भी इसमें अधिक है।
पैशाची प्राकृत
हेमचन्द्र ने इसे ‘चूलिका पैशाचिका’ नाम दिया है। दण्डी द्वारा उल्लिखित ‘भूत-भाषा’ भी शायद यही है। कदाचित् इस भाषा का व्यवहार उत्तर-पश्चिम में काश्मीर के आसपास होता था। इसके तीन मुख्यभेद बताये गये हैं-कैकय पैशाचिका, शौरसेनी पैशाचिका और पंचाल पैशाचिका। गुणाढ्य कृत ‘बडडकहों (बृहदकथा) इसकी एक मात्र साहित्यिक रचना बताई जाती है, जो अप्राप्त है। सघोष का प्रयोग इसकी प्रमुख विशेषता है; जैसे राजा> राच, नगर> नकर।
अपभ्रंश भाषाएँ-
मध्य भारतीय आर्यभाषाओं का तीसरा चरण अपभ्रंश भाषाओं का है। अपभ्रंश भाषाएँ प्राकृत और आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी हैं। प्राकृत भाषाएँ ईसा की पाँचवीं शती तक आते-आते जब साहित्यिक प्रयोग द्वारा परिनिष्ठित हो गई और वैयाकरमों ने उन्हें व्याकरण के नियमों में बाँध दिया तब जनजीवन से इसका पल्ला छूट गया। स्वभावतः ईसा की छठी शताब्दी तक पृथक जनभाषा का विकास हुआ जिसे प्रारम्भ में ‘देशी भाषा’ की संज्ञा प्रदान की गयी। बाद में वैयाकरणों ने इसी भाषा को अपभ्रंश नाम से अभिहित किया।
‘अपभ्रंश’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग, ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में महर्षि पतंजलि ने किया। उन्होंने इस शब्द का व्यवहार अपशब्द अर्थात ‘अपाणिनीय’ शब्दों के लिए किया था। भरत, दण्डी, भर्तृहरि आदि ने भी असाधु शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी है। भाषा के अर्थ में अपभ्रंश का प्रयोग सर्वप्रथम भामह ने किया। छठी शताब्दी के प्राकृत वैयाकरण चण्ड ने भी भाषा के अर्थ में इसका प्रयोग किया है। इसी शताब्दी में बलभी के राजा धरसेन द्वितीय ने एक ताम्रपत्र में अपने पिता गुहसेन को संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की प्रबन्ध-रचना में निपुण कहा है। इस प्रकार छठी शताब्दी तक अपभ्रंस, भाषा के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गई थी। फिर भी इस समय तक वह अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही थी। आठवीं शताब्दी तक इसमें साहित्य-रचना होने लगी। इसके अन्तर इसका रूप निखरता गया और यह परिनिष्ठित भआषा बन गयी। रुद्रट ने इसकी गणना छह भाषा-भेदों में की है। राजशेखर ने इसे संस्कृत, प्राकृत आदि के साथ रखकर श्रेष्ठ भाषा का सम्मान दिया। हेमचन्द्र के समय तक यह पूर्ण विकसित एवं साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर चुकी थी। यही मध्य भारतीय आर्यभाषाओं के विकास का अन्तिम चरण था। इसके पश्चात आधुनिक आर्यभाषाओं का उदय हुआ।
अपभ्रंश की विशेषताएँ
याकोबी के अनुसार अपभ्रंश का, व्याकरणिक ढाँचा देश- भाषाओं से ग्रहीत है। प्राकृत की सभी ध्वनियाँ अपभ्रंश में विद्यमान रहीं। अपभ्रंश की मुख्य उसका ‘उकार बहुला’ होना है। वस्तुतः ध्वनि-दुर्बलता के कारण प्राकृत का आकरान्त अपभ्रंश में उकारान्त हो गया, जैसे—कारणु, पियासु आदि। अन्त्य स्वर का हस्वीकरण अथवा कभी-कभी लोप भी अपभ्रंश की महत्वपूर्ण विशेषता है, जैसे प्रिय < संध्या >पिअ, संझ। उपान्त्य स्वर की रक्षा प्रायः की गयी है, जैसे गोरोचन > गोरोअण, अंधकार > अंधआर। लिंग भेद प्रायः समाप्त हो गया है। कारक-चिह्नों की कमी हो गयी है। व्यंजन-विपर्यय और व्यंजन-द्वित्य के उदाहरण भी अपभ्रंश में बहुत मिलते हैं, जैसे दीर्घ < दीहर, काच > कच्च, एक > एक्कु विशेषता आदि।
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