जनजातीय/आदिम कानून पर लेख
जनजातीय/आदिम कानून पर एक लेख लिखिए।
जनजातीय/आदिम कानून – प्रत्येक व्यक्ति को उसकी इच्छानुसार व्यवहार या क्रिया करने नहीं दिया जाता। मानवीय क्रिया और अन्तःक्रिया के दौरान व्यवहार करने के अनेक सामान्य रुप प्रचलित हो जाते हैं जिन्हें उस समाज के सब या अधिकतर लोग मानते हैं। जनता की इन रीतियों को जनरीति (folk-ways) कहते हैं। यह जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। इस हस्तान्तरित होने के दौरान इसे अधिकाधिक समूहों की अभिमति प्राप्त होती जाती है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी का सफल अनुभव इसे और भी दृढ़ बना देता है। समाज में मान्यताप्राप्त वह जनरीति, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है, प्रथा कहलाती है। प्रथा को सामाजिक जीवन में अधिक दृढ़तापूर्वक लागू किया जाता है और इसकी अवहेलना करने पर निन्दा और पालन करने पर प्रशंसा होती है। परन्तु प्रथा को प्रतिपादित करने, लागू करने तथा उसका उल्लंघन करने पर अपराधी को दण्ड देने के लिए कोई संगठित शक्ति नहीं हुआ करती है। इसके विपरीत जब कोई संगठित शक्ति मानव-व्यवहार से सम्बन्धित किसी नियम को प्रतिपादित करती है, उसे लागू करती तथा उसका उल्लंघन करने वाले को दण्ड देती है, तो उस शक्ति के द्वारा प्रतिपादित उस नियम को कानून कहते हैं। दूसरे शब्दों में, कानून मानव- व्यवहार से सम्बन्धित वह नियम है जिसे प्रतिपादित करने, लागू करने तथा उसका उल्लंघन करने वाले को दण्ड देने का उत्तरदायित्त्व एक संगठित शक्ति पर हो।
श्री कारडोजो ने कानून की परिभाषा निम्न शब्दों में की है – “कानून आचरण का वह सार नियम है जिसे इस निश्चितता से प्रतिपादित किया जाता है कि अगर भविष्य में उसकी सत्ता को चुनौती दी गई तो उसे अदालत के द्वारा लागू किया जाएगा।” श्री हॉबल के अनुसार, “कानून एक सामाजिक नियम है जिसका उल्लंघन होने पर धमकी देने या वास्तव में शारीरिक बल का प्रयोग करने का अधिकार एक ऐसे समूह को होता है जिसे ऐसा करने का समाज द्वारा मान्य विशेषाधिकार प्राप्त है।”
उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि कानून का आधार समाज की शक्ति है। यह शक्ति समाज अपने एक समूह को दे देता है जिसे आधुनिक भाषा में सरकार कहते हैं। सरकार कुछ नियमों को बनाती है, और ये नियम उस क्षेत्र में रहने वाले सभी व्यक्तियों या समूहों पर समान रुप से बिना किसी अपवाद के लागू होते हैं। इन नियमों का निर्माण राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन या सुव्यवस्था तथा प्रत्येक के अधिकारों की रक्षा के लिए होता है। इसीलिए इनका पालन अनिवार्य होता है। आधुनिक समाज में सरकार, इन नियमों अर्थात् कानूनों का पालन हो रहा है या नहीं, यह देखने के लिए तथा इनका उल्लंघन करने वालों को दण्ड देने के लिए पुलिस कोई आदि को नियुक्त करती है। इस प्रकार कानून बनाने का उत्तरदायित्त्व सरकार पर और उसे लागू और पालन करवाने तथा अपराधी को दण्ड देने का भार पुलिस व कोर्ट पर होता है। परन्तु आदिम समाजों में कानून बनाने, उसे लागू करने तथा दण्ड देने के सम्बन्ध में उतना सुव्यवस्थित और स्पष्ट संगठन नहीं मिलता जितना आधुनिक समाजों में। इस कारण आदिम समाजों में कानून की वास्तविक प्रकृति क्या होती है, यह जान लेना आवश्यक होगा।
आधुनिक दृष्टिकोण से जब हम कानून की परिभाषा को आदिम समाजों पर प्रयुक्त करते हैं तो हम यह पाते हैं कि वह परिभाषा आदिम समाजों में ठीक-ठीक नहीं बैठती है। दुनिया के अनेक आदिम समाजों में हम यह पाते हैं कि इन समाजों में न कोई अदालत है और न ही पुलिस-संगठन है। अनेक आदिम समाजों में तो कानून का उल्लंघन होने पर उसका विचार परिवार या नातेदारों द्वारा ही हो जाता है। दण्ड का स्वरुप भी आधुनिक समाज से काफी भिन्न होता है। ‘जैसे को तैसा’ का सिद्धान्त लागू किया जाता है और उसे उसी कार्य के अनुरूप सजा दी जाती है, या मार डाला जाता है या मार-पीटकर छोड़ दिया जाता है।
श्री लोई (Lowie) ने तीन और प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया है-
(1) नातेदारी (Kinship) –
अगर हम आधुनिक समाजों का विश्लेषण करें तो यह पाएंगे कि यहाँ कानून का विस्तार एक क्षेत्र के अन्तर्गत होता है। भारतवर्ष में क्षेत्र (territory) के आधार दो हैं – एक तो राज्य सरकार और दूसरा केन्द्रीय सरकार। बहुत से कानून हैं जो राज्य- सरकार पास करती हैं और ये कानून उस राज्य के क्षेत्र के अन्दर ही लागू होते हैं। दोनों प्रकार के कानूनों का ही एक निश्चित क्षेत्र होता है और ये कानून उस क्षेत्र में रहने वालों पर लागू होते हैं। परन्तु आदिकालीन कानूनों का यह पक्ष अत्यन्त ही दुर्बल प्रतीत होता है। आदिम समाजों में कानूनों का प्रतिपादन किसी क्षेत्र के आधार पर नहीं होता, बल्कि नातेदारी के आधार पर होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन समाजों में भूमि या क्षेत्र का महत्व उतना नहीं है जितना नातेदारी या रक्त-सम्बन्ध का। नातेदारी के महत्त्व की एक सामान्य अभिव्यक्ति यह है कि इन समाजों में मुखिया, शासक या राजा प्रायः वंशानुगत होता है और पिता की मृत्यु के बाद उसका लड़का स्वतः ही शासक या मुखिया मान लिया जाता है। रक्त-सम्बन्ध के आधार पर समाज में संगठन और सुव्यवस्था कायम रखना इन समाजों में काफी सरल भी होता है क्योंकि इससे दृढ़ अन्य किसी भी बन्धन का आविष्कार आदिम लोग कर नहीं पाए हैं। रक्त-सम्बन्ध को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता, इस कारण रक्त- सम्बन्धियों के द्वारा जो कानून बनाया जाता है उसे लागू करना तथा उसका पालन करवाना सरल हो जाता है। प्रायः यह देखा जाता है कि आदिम समाजों में प्रत्येक गोत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण राजनीतिक कार्य होते हैं। एक गोत्र का मुखिया अपने गोत्र के लिए कानून बनाता है और उसका पालन करवाता है।
(2) आचार तथा जनमत (Ethics and Public opinion) –
आदिकालीन कानून की दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि इन कानूनों की विवेचना आचार के सामान्य नियमों तथा जनमत से पृथक् करके नहीं की जा सकती। एक अर्थ में आदिम समाजों में कानून, प्रथा, आचार, धर्म आदि के साथ इतना अधिक घुला-मिला होता है कि इनको एक-दूसरे से अलग करना बहुत कठिन होता है। वास्तव में प्रथा, आचार, धर्म आदि से पृथक् आदिकालीन कानूनों का कोई अलग अस्तित्व नहीं है। श्री मैलिनोवस्की ने आदिकालीन कानून के इस पक्ष पर बल देते हुए लिखा है कि जनजातीय समाजों में कानून मुख्यतः कर्तव्यों और अधिकारों का एक योग है जिसे परस्पर आदान-प्रदान द्वारा तथा प्रचार के आधार पर क्रियाशील रखा जाता है। आदिम समाजों के कानूनों पर प्रथा, आचार और धर्म का ही केवल प्रभाव नहीं होता, बल्कि जनमत का भी बहुत प्रभाव हुआ करता है। इसका कारण भी स्पष्ट है। आदिम समाजों का आकार आधुनिक समाजों की भांति विर्शाला नहीं होता। सरल तथा छोटा होने के कारण इन समाजों में सामाजिक अन्तःक्रिया का क्षेत्र बहुत। कम होता है जिसके फलस्वरुप प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को व्यक्तिगत रुप से जानता और पहचानता है और साथ ही अनेक आर्थिक तथा सामाजिक विषयों में वे एक-दूसरे पर निर्भर भी होते हैं। इन आदिम समाजों के विषय में एक और बात यह है कि एक समाज के सदस्यों की प्रमुख समस्याएँ प्रायः एक समान होती हैं क्योंकि महत्त्वपूर्ण प्रत्यक समाज में आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ प्रायः सबके लिए एक समान ही होती हैं। समस्याएँ प्रायः एक-सी होने के कारण जनमत के विभिन्न रूप भी विकसित नहीं हो पाते। एक-सा होने पर भी वह जनमत बहुत प्रभावशाली होता है। आदिम समाज के सदस्यों की पारस्परिक अन्योन्याश्रितता के कारण जनमत का यह प्रभाव और भी अधिक होता है। इसी कारण आदिम समाज के जनमत में वह सत्ता निहित होती है जो व्यक्ति के व्यवहारों पर नियन्त्रण और शासन करती है। इस जनमत का डर प्रत्येक सदस्य को होता है। जनमत जो व्यवहार उचित मान ले उसी रुप में स्वीका कर लेना ही ठीक है अन्यथा समूह से बहिष्कृत हो जाने का डर सदैव रहता है। प्रत्येक सदस्य इस विषय में सचेत है और यह देखता है कि दूसरे लोग जनमत के निर्देश के अनुसार कार्य कर रहे हैं या नहीं। समाज द्वारा मान्यता प्राप्त समूह के सदस्यों के व्यवहारों नियन्त्रक के रुप में मान लिया जाए तो आदिम समाज के ये नियम भी कानून ही हैं, विशेषकर इस अर्थ में कि इनके पीछे समूह की अभिमति है, ये समूह के प्रत्येक सदस्य द्वारा लागू किए जाते हैं तथा इनको तोड़ने पर व्यक्ति को सजा मिलती हैं ।
(3) अपराध और टार्ट (Crime and Tort) –
सामान्यतः अपराध वह कार्य है जो समूह के हित के लिए घातक है। राज्य या समुदाय अपने हितों की रक्षा के लिए कुछ नियमों को प्रतिपादित करता है; इन नियमों को तोड़ना या इनके विरुद्ध काम करना ही अपराध है। इनके विपरीत एक व्यक्ति के व्यक्तिगत हितों के विरुद्ध काम करने को ‘टॉर्ट’ (tort) कहते हैं। इससे समुदाय, राज्य या जनता को नहीं, बल्कि एक व्यक्ति को हानि-पहुँचती है। आधुनिक समाज में इन दो प्रकार के अपराधों के बीच स्पष्ट भेद माना जाता है। अपराध के मामले में राज्य अपराधी के विरुद्ध कार्यवाही करता है और उसे सजा देता है; परन्तु टॉर्ट के मामले में राज्य से कोई मतलब नहीं होता। जिस व्यक्ति के विरुद्ध ‘टॉर्ट किया गया है वह व्यक्ति (न कि राज्य) अपराधी के विरुद्ध अदालत में कार्यवाही करता है और उससे हर्जाना वसूल करता है या उसे सजा दिलवाता है। परन्तु आदिम समाज में अपराध और टॉर्ट में विशेष अन्तर नहीं माना जाता। अधिकतर व्यक्ति, नातेदारों या गोत्र के विरुद्ध अपराध होता है। अगर कोई एक व्यक्ति को हानि पहुँचाता है तो वह व्यक्ति या उसके रिश्तेदार हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति या उसके रिश्तेदारों से बदला लेते हैं। उसी प्रकार अगर एक गोत्र के किसी सदस्य को दूसरे गोत्र के किसी सदस्य ने हानि पहुँचाई है तो दूसरा गोत्र पहले गोत्र से बदला लेता है। दोनों ही क्षेत्र में अपराध करने वाला और उसे सजा देने वाला या वाले दो व्यक्ति या उनके नाते- रिश्तेदार ही होते हैं। समाज समग्र रुप में अपराध के मामले में सामान्यतः दखल नहीं देता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आदिम समाजों में अपराध के विरुद्ध समाज की कोई प्रतिक्रिया होती ही नहीं है। ऐसे अनेक अवसर होते हैं जब किसी सामाजिक नियम को तोड़ने पर समग्र समाज उसका विरोध करता है। परन्तु यह तभी किया जाता है जब समाज को यह डर होता है कि उस अपराधी- कार्य-विशेष से पूरे समाज को नुकसान पहुँच सकता है।
आदिम समाजों में कानून का आधार आचार, धर्म आदि होता है जिसके फलस्वरुप अधिकतर अपराध को ‘पाप’ कहकर ही परिभाषित किया जाता है। ‘पाप’ ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन है, इसलिए यह विश्वास किया जाता है कि अगर कोई सामाजिक नियम को तोड़ता है तो उसे ईश्वर ही सजा देगा। यह विश्वास अपराध को रोकने या अपराधी को दण्ड देने के विषय में समूह या समाज के उत्तरदायित्व को घटा देता है; अधिक उत्तरदायित्त्व अलौकिक शक्ति (supernatural power) का होता है।
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