समाजशास्‍त्र / Sociology

कानून तथा प्रथाएँ | Laws and Practices – Sociology in Hindi

कानून तथा प्रथाएँ

कानून तथा प्रथाएँ

कानून तथा प्रथाएँ एक-दूसरे के पूरक है। स्पष्ट कीजिए।

कानून तथा प्रथाएँ – आधुनिक दृष्टिकोण से कानून उन नियमों का संग्रह है जो राज्य द्वारा मान्य होते हैं और हैं। इसका सूत्रपात अनेक कारणों से, जिनमें प्रथाएँ भी सम्मिलित हैं, होता है; परन्तु कोई भी सामाजिक राज्य या राज्य के अधीन विशेष समितियों (पूलिस विभाग, अदालत आदि) द्वारा पालन कराए जाते नियम कानून तभी बनता है जब राज्य इसे स्पष्ट रुप से परिभाषित करता है और इसे अपने नागरिका सुबह व्यवहार पर एक अनिवार्य नियम के रुप में लागू करता है। कानून के पीछे राज्य की अभिमति (sanction) होती है। यदि कोई कानून को तोड़ता है तो उसे न्यायालय दण्ड देता है।

अगर हम कानून के आदिम स्वरुप को स्वीकार करें तो स्पष्ट है कि आदिकालीन समाजों में कानून का कोई स्पष्ट रुप न था। इसका कारण यह था कि कानून बहुत-कुछ प्रथा- संहिता (code of customer) तथा सामाजिक नियमों के साथ घुला-मिला था। यह सच है कि प्राचीन काल में कुछ ऐसे सामाजिक नियम या प्रथाएँ होती थीं जो वही कार्य करती थीं जो आज कानून करता है। फिर भी इन्हें कानून नहीं कहा जा सकता।

प्रथाएँ कानून नहीं हैं क्योंकि प्रथाओं की कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं, जबकि कानून राज्य द्वारा बनाए जाते हैं और लागू किए जाते हैं, प्रथाएँ सामाजिक कार्यविधि है जो सामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान, धीरे-धीरे स्पष्ट और प्रगटित होती हैं। ये किसी विशेष समिति या संस्था द्वारा न बनाई जाती हैं, न लागू की जाती हैं और न उनकी रक्षा ही की जाती है। ये सामान्य स्वीकृति से बनी रहती हैं। ऐसी कोई विशेष शक्ति नहीं है जो हमें इस बात का आदेश देती हैं कि हम बड़ों का अभिवादन करें, त्योहारों पर फुसझड़ियाँ जलाएँ, घर को सजाएँ या विशेष अवसरों पर नए वस्त्र पहनें। फिर भी प्रथाएँ, बड़ी शक्तिशाली होती हैं और हम यह अनुभव करते हैं कि हम सबके जीवन के सभी अवसरों पर उनका प्रभाव है। ये से रात तक, युवावस्था से वृद्धावस्था तक हमारे कार्यों को संचालित करती हैं।

प्रथाओं और कानूनों में अन्तर होते हुए भी ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। सामाजिक । एक उचित मान (standard) पर लाने के प्रयत्नों के फलस्वरुप ही कुछ प्रथाएँ बन जाती हैं और बाद में सरकार द्वारा मान्य हो जाने पर वे कानून बन जाती हैं। सब कानून लिखित ही होंगे, ऐसी कोई बात नहीं है- परम्परा या प्रथा को ही सरकार मौखिक रुप से एक कानून का रुप दे सकती है। संयुक्तराज्य अमेरिका में पहले यह प्रथा थी कि राष्ट्रपति तीन बार (term) से अधिक चुनाव नहीं लड़ेगा। बाद में इसे कानून का रुप दे दिया गया। इंग्लैण्ड में अलिखित संविधान (unwritten constitution) तो सम्पूर्ण रुप से प्रथाओं पर ही आधारित है। प्रथा और कानून का यह सम्बन्ध आदिम समाजों में तो और भी घनिष्ठ है। इन समाजों में कानून अलिखित होते हैं और अधिकांशतः मौखिक परम्परा के रुप में प्रथा के साथ ही घुल-मिलकर जीवित रहते हैं। आदिम समाज का एक व्यक्ति चारों ओर से प्रथाओं द्वारा घिरा होता है। उसका सामाजिक जीवन, धर्म, अर्थ-व्यवस्था, कला, आमोद-प्रमोद आदि सब-कुछ प्रथाओं से प्रभावित और निर्देशित होता है। इन्हें वह उसी रुप में स्वीकार कर लेता है जैसे कि वे हैं। इनमें से कुछ प्रथाओं को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है और जनजातीय समूह का नेता या मुखिया उन्हें अधिक निश्चित रुप से सामाजिक परिस्थितियों में सदस्यों के व्यवहारों को नियन्त्रित करने के लिए लागू करता है और उन्हें तोड़ने वालों को दण्ड देता है। ये ही प्रथाएं आदिम समाजों के अलिखित कानून का रुप धारण कर लेती हैं। ये अलिखित होने पर भी इनसे सम्बन्धित धारणाएँ पर्याप्त स्पष्ट होती हैं क्योंकि कानून के उल्लंघन की घटनाएँ तथा उनके लिए दिए गए दण्ड समाज को (अर्थात् समूह के मुखिया को) स्मरण रहते हैं, और उन्हीं के आधार पर अलिखित कानून-संहिता (legal code) के साथ-साथ अलिखित दण्ड-संहिता (penal code) भी विकसित हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि आदिम समाजों में कानून और प्रथा एक-दूसरे से इतना अधिक घुले-मिले हुए हैं कि इन दोनों के बीच की विभाजक रेखा स्पष्ट नहीं है। आदिम समाजों में व्यक्ति के अधिकतर व्यवहारों पर नियन्त्रण प्रथा के द्वारा ही होता रहता है।

इस प्रकार उपरोक्त के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथाओं और कानूनों दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

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