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अस्थि बाधितों का अर्थ एवं परिभाषा देते हुए पहचान का वर्णन कीजिए।

अस्थि बाधितों का अर्थ एवं परिभाषा
अस्थि बाधितों का अर्थ एवं परिभाषा

अस्थि बाधितों का अर्थ एवं परिभाषा देते हुए पहचान का वर्णन कीजिए।

अस्थि बाधितों का अर्थ

अस्थि बाधित बालक का अर्थ- अस्थि बाधित बालक से आशय ऐसे बालक से है जिनकी अस्थि, माँसपेशियाँ एवं जोड़ ठीक से कार्य नहीं करते हैं। ऐसे बालकों को सामान्यतः शारीरिक विकलांग (Physically Handicapped), अपंग (Disabled) अथवा चलन निःशक्त (Locomotor Disabled) बालक भी कहा जाता है। ऐसे बालकों को चलने-फिरने के लिए कृत्रिम हाथ-पैर अथवा बैसाखी, कैलीपर्स, विशेष जूते, ह्वील चेयर सरीखे अन्य सहायक उपकरणों की जरूरत पड़ती है। बाधारहित माहौल (Barrier Free Environment) के वगैर उन्हें शिक्षण-अधिगम में भी काफी मुश्किल होती है। कुछ बालक ज्ञानात्मक (Sensory), क्रियात्मक (Motor) अथवा अन्य शारीरिक दोषों से पीड़ित होते हैं, उन्हें कम शारीरिक विकलांग कहते हैं। क्रो और क्रो (Crow & Crow) ने भी इस विचार का समर्थन किया है। शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों से अभिप्राय वैसे बच्चों से हैं, जिनकी मांसपेशियों में इतनी विकृति आ जाये, जिसके कारण उसके अंगों का घूमना कठिन हो जाये। एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में बाधा पेश आये। साथ ही शारीरिक कार्य क्षमताएँ सीमित हो जाएँ। यह निःशक्तता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। शारीरिक अंगों में असामान्यता या गामक क्रिया मुद्रा जिसमें गति की अवस्था हो, उनमें किसी प्रकार की कमी या उन्हें करने में किसी प्रकार की बाधा हो, तो उसे ‘अस्थि अक्षमता’ कहते हैं।

अस्थि बाधित बालकों की परिभाषाएँ (Definition of Orthopadically Handicap Children)-

अस्थि बाधित उन बालकों को कहते हैं, जिनकी एक या अधिक अस्थियों में दोष आ गया हो या क्षतिग्रस्त हो गयी हो, जिससे सामान्य बालकों की मांसपेशियों तथा जोड़ों अथवा अस्थियों में किसी कारणवश दोष आ जाता है।

वैधानिक तौर पर ऐसे बालकों को अस्थि विकलांग कहा जाता है, जो गम्भीर रूप से अस्थि विकलांग हैं और यह विकलांगता उनके शैक्षिक प्रदर्शन को गम्भीर रूप से प्रभावित करती है।

इसी परिभाषा को भारत के समाज कल्याण मंत्रालय ने भी अपनाया है। “अपंग बालकों को अस्थि बाधित बालक तब कहते हैं, जब जन्म से बीमारी, दुर्घटना तथा जन्म से उनकी अस्थियों, मांसपेशियों तथा जोड़ों में दोष वक्रता आती है और सामान्य कार्य करने तथा चलने-फिरने में असमर्थ हैं।”

निःशक्त व्यक्ति अधिनियम (1995) में इसे चलन निःशक्तता (Locomotor Disability) के रूप में वर्णन किया गया है। अधिनियम की धारा 2 (ण) के अनुसार, ‘चलन निःशक्तता” से हड्डियों, जोड़ों या मांसपेशियों की कोई ऐसी निःशक्तता अभिप्रेत है, जिससे अंगों की गति में पर्याप्त निबन्धन या किसी प्रकार का प्रमस्तिष्क घात हो।

अस्थिबाधित बालकों की पहचान (Indentification of Orthopaedically Handicapped Children)-

इसका वर्णन निम्न है-

(1)चलने में कठिनाई- कोई बच्चा चलते-चलते झुक जाता है, टेढ़ा चलता है या चलने में लड़खड़ाने लगता है अथवा चलते-चलते गिर जाता है।

(2) पकड़ने में कठिनाई- हाथ या अँगुलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी होने के कारण बच्चा पकड़ने में कठिनाई महसूस करे या पकड़ते समय अंग नहीं मुड़ता हों।

(3) मांसपेशियों में आपसी सामंजस्य की कमी- किसी हल्की वस्तु को बच्चा आसानी से उठा लेता है, लेकिन भारी वस्तु को उठाने में कठिनाई महसूस करता है।

(4) लिखने में कठिनाई-लिखने के समय हाथ हिलता या काँपता है, लिखते- लिखते रुक जाता है या अँगुली की मांसपेशियों के काम नहीं करने के कारण कलम या पेंसिल छूट जाती है।

(5) शरीर की पूर्णतः या आंशिक रूप से लकवाग्रस्त होना- लकवाग्रस्त होने के कारण कई अंग कार्य करने में असमर्थ है, सूखा है, पतला हो गया है, या सुन्न हो गया है।

(6) शरीर का कोई अंग कट जाना- शरीर का कोई भी अंग किसी भी दुर्घटना से कट जाता है या किसी बीमारी से जब क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में अंग को काटना पड़ता है।

(7) शारीरिक विकृति- किसी-किसी बच्चे को जन्म से ही शारीरिक विकृति होती है, जैसे- कुबड़ापन, हाथ का टेढ़ा, छोटा, बड़ा होना, पैर घूमा होना, पैर छोटा-बड़ा होना, गर्दन टेढ़ी होना आदि। प्रायः इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में कठिनाई ऐसे बालकों को सीढ़ी पर चढ़ने या उतरने में कठिनाई होती है।

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