दानवीर कर्ण का जीवन परिचय- महाभारत के महान योद्धा, अर्जुन के चिर प्रतिद्वंद्वी व युद्ध के पश्चात्वर्ती समय में कौरवों की सेना के सेनापति रहे कर्ण कुंती के कौमार्य जीवन में पैदा हुए पुत्र थे। कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उसे एक मंत्र दिया था जिससे वह किसी का भी आह्वान करके उसे अपने पास बुला सकती थी। कौतुहलवश कुंती ने सूर्य का आह्वान किया और उसके सहवास से कर्ण गर्भ में आ गया। लोकलाजवश शिशु को इसने एक मंजूषा में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया। वह मंजूषा सूत अधिरथ और उसकी पत्नी राधा को मिली और इन्होंने पुत्रवत् शिशु का लालन-पालन किया। इसी कारण कर्ण को ‘सूत-पुत्र’ व राधेय’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है। कर्ण को परशुराम से शिक्षा प्राप्त हुई थी। द्रौपदी के स्वयंवर में यह अर्जुन से पूर्व ही मत्स्य भेदन कर सकता था, लेकिन इनके जन्म की जानकारी न होने और उसे ‘सूत-पुत्र’ मानकर द्रौपदी ने विवाह करने से मना कर दिया। ब्रह्मास्त्र की शिक्षा पाने के लिए कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से ये विद्या जान ली, किंतु उसके क्षत्रिय होने का ज्ञान होते ही परशुराम ने श्राप दे दिया कि जरूरत होने पर तुम इस विद्या को भूल जाओगे।
कर्ण अपनी दानवीरता के लिए भी प्रख्यात रहा है। इंद्र के मांगने पर इसने अपने कुंडल और कवच इन्हें दे दिए थे। युद्ध के अंतिम दौर में भीष्म पितामह ने उसके जन्म का रहस्य उजागर कर इससे पांडवों का साथ देने का आग्रह किया गया, किंतु कर्ण ने अपनी निष्ठा नहीं बदली। यह कौरव सेना का सेनापति बना रहा और अर्जुन के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ।
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