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नरसिंह मेहता का जीवन परिचय | Biography of Narsinh Mehta in Hindi

नरसिंह मेहता का जीवन परिचय
नरसिंह मेहता का जीवन परिचय

नरसिंह मेहता का जीवन परिचय (Biography of Narsinh Mehta in Hindi)- ‘ईश-भक्ति में लीन रहना भी किसी उपलब्धि से कम नहीं हो सकता।’ यह कथन नरसिंह मेहता पर सभी प्रकार से सटीक उतरता है। जन्म के 600 वर्ष पश्चात् भी पाठकगण नरसिंह मेहता का जीवन चरित्र पढ़ रहे हैं तो इसके लिए इनकी ‘कृष्णभक्ति’ को ही प्रमुख जिम्मेदार घटक माना जाता है। गुजराती संस्कृति के प्राचीनतम कवि संत नरसिंह मेहता अथवा नरसी मेहता का जन्म 1414 में जूनागढ़ के पास तलाजा गांव के नागर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। माता पिता का इनके बाल्यकाल में ही निधन हो गया था। अतः अपने चचेरे भ्राता के साथ रहते थे। ये ज्यादातर संतों की मंडलियों के साथ भ्रमण करते रहते थे और 15-16 वर्ष की आयु में इनका पाणिग्रहण हो गया। कोई कार्य न करने की वजह से इनकी भाभी इन्हें बहुत ताने दिया करती थी। एक बार भाभी के तानों से दुःखी नरसिंह गोपेश्वर के शिव मंदिर में जाकर तपस्या करने लगे। माना जाता है कि सात दिवस पश्चात् इन्हें शिव के दर्शन हुए और इन्होंने कृष्णभक्ति व रासलीला के दर्शनों का वरदान मांगा। इस पर द्वारिका जाकर रासलीला के दर्शन करने का इनका आग्रह भगवान शिव ने पूर्ण किया।

Biography of Narsinh Mehta in Hindi

नाम नरसी मेहता
जन्म 1414 ईस्वी
जन्म स्थान तलाजा ग्राम, जूनागढ़, गुजरात
अन्य नाम नरसिंह मेहता
मृत्यु 1488 ईस्वी
मृत्यु स्थान
प्रसिद्धि कृष्ण भक्ति कवि
नागरिकता भारतीय
रचनाएं सुदामा चरित, कृष्ण जन्मना पदो, श्रृंगार माला, गोविन्द गमन, सुरत संग्राम, वसंतनपदो आदि।
आयु 79 वर्ष (मृत्यु के समय)
माता का नाम दयाकौर
पिता का नाम कृष्णदास
भाई बंसीधर
पत्नी मानकेबाई
पुत्र शामलदास
पुत्री कुंवरबाई

फिर नरसिंह का जीवन पूर्णतया परिवर्तित हो गया। भाई का घर त्यागकर ये जूनागढ़ में पृथक रहने लगे। इनका निवास स्थान वर्तमान में भी नरसिंह मेहता का चौरा के नाम से जाना जाता है। ये सदैव कृष्णभक्ति में डूबे रहते थे। इनके लिए सभी संप्रदाय एक समान थे। छुआछूत ये नहीं मानते थे व हरिजनों की बस्ती में जाकर इनके साथ भजन-कीर्तन भी किया करते थे। इससे बिरादारी ने इनको बहिष्कृत तक कर दिया, किंतु ये अपने विश्वास पर अड़े रहे।

रचनाएँ

नरसिंह मेहता ने बेहद हृदयस्पर्शी भजनों का सृजन किया। गांधी जी का प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए’ इन्हीं द्वारा सृजित है। भक्ति, ज्ञान व वैराग्य के पदों के अलावा इनकी ये कृतियां सुदामा चरित‘, ‘गोबिंद गमन’, ‘दानलीला’, ‘चातुरियो’, ‘सुरत संग्राम’, ‘राससहस्त्र पदी’, ‘श्रंगाल माला’, ‘वंसतनापदो’ एवं कृष्ण जन्मना पदो’ बेहद लोकप्रिय रही है। देखा गया है कि संतों के साथ अनेक कथाएं जुड़ी रहती हैं। नरसिंह मेहता के बारे में भी ऐसी कतिपय घटनाओं का ब्यौरा मिलता है। इनमें से कुछ का बखान खुद इनके ही पदों में मिलने से लोग इन्हें सत्य घटनाएं स्वीकारते हैं। उस दौरान हुंडी का रिवाज था। लोग कठिन यात्राओं में नकद धन नहीं ले जाते थे। किसी भरोसेमंद और विख्यात व्यक्ति के पास धन एकत्र करके उससे भ्रमण नगर के सेठ के नाम धन प्रदान करने की बात (हुंडी) लिख लेते थे। नरसिंह मेहता की गरीबी का मखौल उड़ाने के लिए कुछ उपद्रवी लोगों ने द्वारिका जाने वाले तीर्थयात्रियों से हुंडी लिखवा ली, किंतु जब यात्री द्वारिका पहुंचे तो श्यामल शाह सेठ का रूप रचकर श्रीकृष्ण ने नरसिंह मेहता की हुंडी का धन तीर्थयात्रियों को प्रदान कर दिया।

इसी तरह पिता के श्राद्व के दौरान और विवाहित पुत्री के ससुराल उसकी गर्भावस्था में सामग्री भेजते समय भी इन्हें चामत्कारिक सफलता प्राप्त हुई थी। जब इनके पुत्र की शादी बड़े नगर के राजा के वजीर की पुत्री के साथ तय हो गई तब भी नरसिंह मेहता ने द्वारिका जाकर ईश्वर को बारात में चलने को निमंत्रित किया। कृष्ण श्यामल शाह सेठ के रूप में बारात में गए व गरीब नरसिंह के बेटे की बारात की आन-बान देखकर सभी लोग दंग रह गए। हरिजनों के साथ मेलजोल की चर्चा सुनकर जब जूनागढ़ के राजा ने इनकी परीक्षा लेनी चाही तो कीर्तन में लीन मेहता के गले में अंतरिक्ष से फूलों की माला चामत्कारिक रूप से आ गई।

गरीबी के अलावा इन्हें अपनी जिंदगी में पत्नी व पुत्र की मृत्यु का दुर्योग भी वहन करना पड़ा था, किंतु उन्होंने अपने योगक्षेम का संपूर्ण दायित्व अपने इष्ट देव श्रीकृष्ण पर रख छोड़ा था। जिस नागर समाज ने इनका बहिष्कार किया था, अंततः उसी ने इन्हें समाज का कीमती रत्न माना व आज भी गुजरात में इनका अपार सम्मान है। इनका निधन 1480 में दैहिक रूप से अवश्य हो गया, लेकिन सूक्ष्म रूप से इनकी कीर्ति शाश्वत रहने वाली है।

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