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संत ज्ञानेश्वर का जीवन परिचय | Biography of Sant Dnyaneshwar in Hindi

संत ज्ञानेश्वर का जीवन परिचय
संत ज्ञानेश्वर का जीवन परिचय

संत ज्ञानेश्वर का जीवन परिचय (Biography of Sant Dnyaneshwar in Hindi)- प्राचीनकाल से ही यह देखने में आता रहा है कि व्यक्ति अपने ज्ञान के कारण संसार में जाना जाता है। उस समय व्यक्ति ज्ञान के माध्यम से अमरत्व धारण करने योग्य माना जाता था। संत ज्ञानेश्वर भी ऐसे ही परम ज्ञानी रहे हैं। यद्यपि इनका जीवन महज 21 वर्ष का ही रहा था। महान भारतीय संत ज्ञानेश्वरी के आदि पुरुष पूर्वज ज्ञानेश्वर पैठण के करीब गोदावरी तट के रहवासी थे व तदंतर आलंदी नाम के गांव में रहने लगे थे। ज्ञानेश्वर के दादाश्री त्रयंबक पंत गोरखनाथ के शिष्य व उपासक थे। ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत इन्हीं त्रयंबक पंत के योग्य पुत्र थे। विट्ठल पंत बेहद विद्वान और धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने देशाटन करके शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उनकी शादी के वर्षों पश्चात् भी इन्हें कोई संतान नहीं हुई। इस पर उन्होंने संन्यास लेने का मन बना लिया, किंतु पत्नी निर्णय के विरुद्ध थी। अतः ये चुपचाप घर से निकलकर काशी में स्वामी रामानंद के पास गए और स्वयं के नितांत अकेला होने की जानकारी देकर उनसे संन्यास की दीक्ष प्राप्त कर ली।

संत ज्ञानेश्वर महाराज जी के जीवन के बारे में एक नजर में – Sant Dnyaneshwar Biography

पूरा नाम (Name) संत ज्ञानेश्वर
जन्म (Birthday) 1275 ई., महाराष्ट्र
पिता (Father Name) विट्ठल पंत
माता (Mother Name) रुक्मिणी बाई
गुरु (Guru) निवृत्तिनाथ
प्रमुख रचनाएं (Books) ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव
भाषा (Language) मराठी
मृत्यु (Death)  1296 ई.

कुछ समय पश्चात् स्वामी रामानंद दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए आलंदी गांव भी गए। वहां जब विट्ठल पंत की पत्नी ने इन्हें नमन किया तो स्वामी जी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। इस पर विट्ठल पंत की पत्नी रुक्मिणी बाई ने कटाक्ष करते हुए कहा, “मुझे आप पुत्रवती होने का आशीर्वचन कर रहे हैं, किंतु मेरे पति को तो आपने संन्यासी बना रखा है।” इस प्रकरण के पश्चात् स्वामी जी ने काशी लौटकर विट्ठल पंत को पुनः गृहस्थ जीवन अपनाने की अनुमति दी। उसके पश्चात् ही उनके तीन पुत्र व कन्या पैदा हुई। ज्ञानेश्वर इन्हीं पुत्रों से एक थे और इनका जन्म 1275 में माना जाता है। जो संन्यास त्याग गृहस्थ कार्य अपनाने के कारण समाज ने विट्ठल पंत को बहिष्कृत कर दिया। ये कोई भी प्रायश्चित करने को तत्पर थे, किंतु शास्त्रकारों ने बताया कि इनके लिए देह त्यागने के अलावा कोई दूसरा प्रायश्चित नहीं है और उनके पुत्र भी जनेऊ धारण नहीं कर सकते। इस पर विट्ठल पंत ने प्रयाग स्थित त्रिवेणी जाकर अपनी पत्नी के साथ संगम में समाधि ले ली। बच्चे अनाथ हो गए। लोगों ने इन्हें गांव के उनके घर में भी नहीं रहने दिया। अब उनके समक्ष भिक्षा मांगकर क्षुधा तृप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया। इस दौरान बड़े भ्राता निवृत्तिनाथ की गुरु गैनीनाथ से मुलाकात हुई। वे विट्ठल पंत के गुरु रह चुके थे। उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की दीक्षा एवं कृष्ण उपासना की विधि बताई। तदंतर निवृत्तिनाथ ने ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया।

फिर ये सभी पंडितों से शुद्धिपत्र लेने के उद्देश्य से पैठण गए। वहां प्रवास के समय की ज्ञानेश्वर की अनेक चामत्कारिक दंतकथाएं प्रचलित रही हैं। मान्यता है कि इन्होंने भैंस के सिर पर हाथ रखकर उसके मुख से वेदमंत्रों को उच्चारित कराया। भैंस को जब डंडे मारे गए तो उसके निशान ज्ञानेश्वर के जिस्म पर उभर आए। ये प्रत्यक्ष चमत्कार देखकर पैठण के पंडितों ने ज्ञानेश्वर एवं उनके भ्राता को शुद्धिपत्र दे दिया। अब उनकी प्रसिद्धि अपने गांव तक भी पहुंच चुकी थी। वहां लोगों ने इनका बड़े सम्मान व प्रेम से स्वागत भी किया।

पंद्रह वर्ष की आयु में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त एवं योगी बन गए थे। बड़े भ्राता निवृत्तिनाथ के कहने पर इन्होंने एक वर्ष के भीतर ही भगवद्गीता पर टीका लिखने का कार्य पूर्ण किया। ‘ज्ञानेश्वरी’ शीर्षक से यह ग्रंथ मराठी भाषा का अनुपम ग्रंथ माना जाता है। इसके अलावा उनके रचित कुछ अन्य ग्रंथ ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेवपासष्टी’, ‘हरिपाठ’, ‘योगवसिष्ठ टीका’ इत्यादि भी रहे हैं।

ज्ञानेश्वर ने उज्जैयिनी, प्रयाग, गया, काशी, द्वारिका, वृंदावन, अयोध्या व पंढरपुर इत्यादि तीर्थों की यात्रा की। अंत में 21 वर्ष की अल्पायु में 1296 में अपने गांव आलिंदी में समाधि के माध्यम से परम मुक्ति को प्राप्त हुए।

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