तानसेन का जीवन परिचय (Biography of Tansen in Hindi)- संगीत के आदि पुरुष के रूप में इनका नाम अमरत्व को धारण कर चुका है। यद्यपि इतिहासकार इनकी जिंदगी के सभी प्रसंगों के बारे में युक्तियुक्त रूप से सहमत नजर नहीं आते हैं। मतैक्य के अभाव में भी मान्यता यही रही है कि अकबर के महान नवरत्नों में से एक रहे तानसेन का जन्म 1506 में ग्वालियर के निकट किसी गांव में हुआ था, किंतु उस गांव की सटीक जानकारी का नितांत अभाव रहा है। तानसेन के पिता का नाम मकरंद पांडे माना जाता है। तानसेन के बाल्यकालीन जीवन के कई नाम प्रचलित रहे। इनमें त्रिलोचन, तन्ना मिश्रा, रामतनु व तनसुख नाम विशेषतः प्रचलित थे।
तानसेन का संगीत के प्रति नाता कैसे जुड़ा ? इस प्रश्न के बारे में माना जाता है कि तानसेन के ताऊ खुद भी बड़े संगीतकार थे और उनके द्वारा वृंदावन के स्वामी हरिदास से संगीत की विधिवत् शिक्षा प्राप्त की गई थी। तानसेन भी अपने ताऊ जी के संगीत से प्रभावित थे। ताऊ जी ने जब देखा कि बालक का संगीत के प्रति लगाव है तो उन्होंने बालक को परामर्श दिया कि वह स्वामी हरिदास से संगीत की शिक्षा प्राप्त करें। उस परामर्श को स्वीकार कर तानसेन ने वृंदावन में 12 वर्ष तक स्वामी हरिदास से न केवल संगीत की, बल्कि साहित्य की भी शिक्षा प्राप्त की।
इसके पश्चात् ये देश के संगीत-केंद्रों को देखने भी गए। इसी क्रम में रीवा पहुंचे। वहां के महाराज रामचंद्र खुद भी हरिदास जी के प्रशंसक थे। तानसेन को उन्होंने मित्र की भांति अपने पास रोक लिया। ये 50 वर्ष की उम्र तक रीवा में ही रहे। बाद में इनकी प्रसिद्धि सुनकर सम्राट अकबर ने अपने दरबार में बुला भेजा। तानसेन को बेमन से आगरा जाना पड़ा। रीवा के नरेश और रीवा के निवासी तानसेन को विदा करते समय भावुक हो गए थे।
शुरू में ये उपेक्षा एवं दरबारी षड्यंत्रों का शिकार बने, लेकिन आखिर में अकबर ने तानसेन को ‘नवरत्न’ का खिताब एवं एक लाख मुद्रा पुरस्कार में दी। तानसेन ने यह धन रीवा की गरीब प्रजा को भेंट स्वरूप प्रदान किया।
‘तानसेन’ की उपाधि इन्हें किसके द्वारा दी गई, यह विवादास्पद है। कुछ लोग इसे ग्वालियर के राजा द्वारा और कुछ बांधवगढ़ के राजा द्वारा दिया गया मानते हैं। तानसेन ने स्वयं कभी इस्लाम स्वीकार नहीं किया था। इन्होंने एक मुस्लिम महिला जरूर रखी थी, इस कारण हिंदू समाज से बहिष्कृत किए गए थे। ‘अकबरनामा’ के अनुसार 25 अप्रैल, 1589 को तानसेन का निधन हुआ। इनका एक छोटा मकबरा ग्वालियर में मौजूद है। इनकी लिखी हुई ‘संगीत सार’ और ‘रागमाला’ दो पुस्तकें प्रसिद्ध रही हैं।
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