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गुरु हरगोविंद का जीवन परिचय | Guru Hargobind Biography In Hindi

गुरु हरगोविंद का जीवन परिचय
गुरु हरगोविंद का जीवन परिचय

गुरु हरगोविंद का जीवन परिचय (Guru Hargobind Biography In Hindi)- गुरु अर्जुन देव के महाप्रयाण के पश्चात् 1606 में गुरु हरगोविंद सिखों के छठे गुरु के रूप में गद्दी पर आसीन हुए। जिस तरह गुरु अर्जुन देव के जीवन के साथ घात किया गया था, उसका पूर्ण प्रभाव इनके ऊपर पड़ा। शांतिप्रिय सिखों ने मुगल शासन के खिलाफ शस्त्र उठा लिए। गुरु हरगोविंद ने सिखों की सेना बनाई तथा ‘साचा पादशाह’ की पदवी भी इन्हें प्राप्त हुई। मुगल सल्तनत के प्रति इनका रोष स्वाभाविक ही था। इस कारण गुरु हरगोविंद ने अपनी सेना भी बनाई, जिसमें इनके प्रति समर्पित शिष्य शामिल हुए। इनके द्वारा अमृतसर में लोहगढ़ नाम का दुर्ग भी बनवाया गया। इनका स्वयं का झंडा और युद्ध का नगाड़ा भी तैयार करवाया गया। गुरुजी का मानना था कि लोगों को शारीरिक रूप से समर्थ बनना चाहिए, ताकि विपरीत स्थितियों का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया जा सके।

राजनीतिक परिदृश्य के बदलते परिवेश में इनके द्वारा अपने समर्थकों को संदेश दिया गया कि शस्त्र धारण करें, क्योंकि गुरु अर्जुन देव की हत्या के बाद यह स्पष्ट हो गया कि मुगलों का प्रतिकार किया जाना आवश्यक हो गया है। सिख समुदाय को बचाने के लिए आवश्यक था कि सिखों की भी मजबूत फौज हो, लेकिन जहांगीर को गुरु हरगोविंद की सेना तैयार करने की योजना पसंद नहीं आई और उसने गुरु हरगोविंद को बंदी बना लिया। कैद में गुरु हरगोविंद को जीवित रखने का कारण यही था कि पूरे देश से सूचनाएं जहांगीर को प्राप्त हो रही थीं कि यदि गुरु हरगोविंद को कुछ हुआ तो मुगल सल्तनत के खिलाफ बगावत कर दी जाएगी। अतः अपनी हुकूमत बनाए रखने के लिए जहांगीर को विवश होकर गुरु हरगोविंद को रिहा करना पड़ा। शाहजहां के काल में मुगल व सिखों के रिश्ते पुनः खराब हो गए। दोनों के मध्य छिटपुट संघर्ष भी होने लगे। अंजाम ये हुआ कि दोनों ओर के हजारों लोग मारे गए। इस प्रकार गुरु हरगोविंद के नेतृत्व में सिखों ने सैन्य शक्ति के रूप में स्वयं को मजबूत करने का कार्य किया।

गुरु हरगोविंद सिंह ने अपनी अंतिम श्वास कीरतपुर रूपनगर पंजाब में ली। जहां 19 मार्च, 1644 को उन्होंने महाप्रयाण किया।

श्री गुरु हरि गोबिंद जी के तीन विवाह हुए-

पहला विवाह – 
12 भाद्रव संवत 1661 में (डल्ले गाँव में) नारायण दास क्षत्री की सपुत्री श्री दमोदरी जी से हुआ।

संतान – 
बीबी वीरो, बाबा गुरु दित्ता जी और अणी राय।

दूसरा विवाह – 
8 वैशाख संवत 1670 को बकाला निवासी हरीचंद की सुपुत्री नानकी जी से हुआ।

संतान – 
श्री गुरु तेग बहादुर जी।

तीसरा विवाह –
11 श्रावण संवत 1672 को मंडिआला निवासी दया राम जी मरवाह की सुपुत्री महादेवी से हुआ।

संतान – 
बाबा सूरज मल जी और अटल राय जी।

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