रामानुजाचार्य का जीवन परिचय (Biography of Ramanujacharya in Hindi)- आज से लगभग 1300 वर्ष पूर्व जन्म लेने के बाद रामानुज ने भारतीय धर्म एवं संस्कृति का परचम लहराने का कार्य किया। ये उच्च कोटि के विद्वान थे और इनका कृतित्व आज भी सराहा जाता है। इनके लिखे ग्रंथ कालजयी माने जाते हैं। मनुष्य जीवन के रहस्य को इनके द्वारा अध्यात्म के धरातल पर प्रदर्शित किया गया। परमज्ञानी शंकराचार्य के समकक्ष ही अपने काल के प्रकांड विद्वान और वैष्णव मत के पुरोधा रामानुज अथवा रामानुजाचार्य का जन्म शंकराचार्य से तकरीबन तीन शताब्दी बाद 1027 में दक्षिण में चेन्नई के करीब श्री पेरुपुदूर नाम के ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आसूरि केशव दीक्षित था। इन्होंने अपने पुत्र को बाल्यकाल से ही शिक्षा देना आरंभ कर दिया। रामानुज बेहद प्रतिभाशाली थे और इनकी बुद्धि बेहद तेज थी। एक बार में पढ़ा हुआ भी इन्हें तत्काल स्मरण हो जाता। सोलह वर्ष की उम्र में इनकी शादी हुई और उसके कुछ समय पश्चात् पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामानुज को कांची जाना पड़ा। विद्या के केंद्र कांची की तब उत्तर-भारत के काशी शिक्षा केंद्र के समान ही ख्याति और महत्ता थी।
कांची में तब शंकराचार्य के शिष्य और ज्ञानमार्गी पंडित यादव प्रकाश के ज्ञान की बेहद प्रतिष्ठा थी। रामानुज उनसे वेद व उपनिषद की शिक्षा पाने लगे, लेकिन दोनों के विचारों में मत विभिन्नता थी। शंकराचार्य के मतावलंबी यादव प्रकाश निर्गुण ब्रह्म के अलावा दूसरे सभी को मिथ्या कहते थे और रामानुज भक्तिमार्ग को मानते थे। इन्होंने गुरु की व्याख्या को त्रुटिपूर्ण प्रदर्शित किया तो गुरु इन्हें क्षमा नहीं कर सके और रामानुज ने उनसे पढ़ना छोड़कर स्वयं ही विद्याध्ययन का मार्ग तलाश लिया। इसी दौरान रामानुज का साक्षात्कार वैष्णव मत के विख्यात संत यमुनाचार्य के शिष्य कांची पूर्ण स्वामी से हुआ, जो वस्तुतः शूद्र पिता से जन्मे थे, किंतु इनकी गिनती वैष्णव संप्रदाय के उच्च कोटि के संतों में होती थी। शनै:- शनैः रामानुज की विद्वता की सुंगधि भी फैलने लगी। यमुनाचार्य इन्हें अपने पश्चात् वैष्णवों की गद्दी पर बैठाना चाहते थे, किंतु जब ये यमुनाचार्य से मिलने के लिए श्रीरंगम पहुंचे, तब तक यमुनाचार्य की मृत्यु हो चुकी थी। अपनी मृत्यु के पूर्व ये रामानुज के लिए ये आग्रह संदेश छोड़ गए कि ये : 1. वेदांत सूत्रों पर भाष्य का सृजन करें, 2. द्रविड भाषा में आलवारों के भजन संग्रह को पंचम वेद का स्थान प्रदान कराएं एवं 3. विष्णु पुराण के सृजक पाराशर की स्मृति में किसी वैष्णव महापंडित का नाम पाराशर ही रखें।
थोड़े समय पश्चात् रामानुज ने संन्यास ले लिया और यमुनाचार्य की गद्दी को भी सम्मान दिया। उसके पश्चात् इन्होंने यमुनाचार्य के एक शिष्य ‘गोष्ठीपूर्ण’ से बेहद आग्रह के पश्चात् इस शर्त के साथ रहस्यमंत्र की दीक्षा प्राप्त की कि ये किसी अनाधिकृत व्यक्ति पर उसे उद्घाटित नहीं करेंगे, लेकिन दीक्षा लेने के बाद जब रामानुज वापस आ रहे थे तो मार्ग में नृसिंह स्वामी के मंदिर में बड़ा मेला लगा हुआ था। ये एक ऊंचे स्थान पर खड़े होकर रहस्यमंत्र को दोहराने लगे। इसकी जानकारी पाते ही ‘गोष्ठीपूर्ण जी’ ने रामानुज को बुलवा लिया और पूछा, ‘तुमने मेरी आज्ञा की अवहेलना क्यों की ?’ रामानुज ने कहा, ‘मैंने सोचा, गुरु की आज्ञा न मानने का दंड बेशक मुझे मिले, किंतु इतने ज्यादा लोगों का मंत्र सुनने से जो उपकार हुआ, उसे देखते हुए मैं दंड हेतु प्रस्तुत हूं।’ इनकी परोपकार की यह भावना निरखकर गुरु ने इन्हें कंठ से लगा लिया।
रामानुज ने कई ग्रंथों का सृजन किया। ‘श्रीभाष्य’ में इन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद को चुनौती देकर साबित किया कि वेदसूत्रों में निराकार ब्रह्म की उपासना किसी भी स्थान पर प्रदर्शित नहीं की गई है। इन्होंने कहा मुक्ति का माध्यम ज्ञान नहीं, भक्ति है। अपने इसी ग्रंथ में रामानुज ने शंकराचार्य को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ की संज्ञा दी, इन्होंने आलवार संतों के भजनों के संग्रह को भी पांचवां वेद घोषित किया और अपने शिष्य रूरत्त आलवार के पुत्र का नाम पाराशर भट्ट रखकर यमुनाचार्य के तीनों निर्देशों की पूर्ण पालना की। इनके रचित दूसरे ग्रंथ ‘गीता भाष्य’, ‘वेदांत संग्रह’, ‘वेदांत दीप’ और ‘वेदांत सार’ हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से शंकराचार्य के मत का खंडन और वैष्णव मत को बल प्रदान किया। इनका मानना था कि ईश्वर निर्गुण नहीं, सतगुण है, फिर भी उसमें कोई अवगुण नहीं है। शंकराचार्य जहां ज्ञान को मुक्ति का साधन मानते हैं, वहीं रामानुजाचार्य की नजर में मुक्ति का मार्ग भक्ति ही है। अतः शंकर ज्ञानमार्गी के रूप में और रामानुज भक्तिमार्गी के रूप में जाने जाते हैं।
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