महर्षि कर्वे का जीवन परिचय (Biography of Maharishi Karve in Hindi)- हमारे देश की राजनीतिक स्थिति में जब गिरावट आई तो उसका परिणाम ये हुआ कि देश के लिए वास्तविक कार्य करने वाले लोगों को गौण कर दिया गया और राजनीतिक लोगों को ही आगे बढ़ाने का कार्य किया गया। महर्षि कर्वे भी ऐसे ही समाज सुधारक रहे हैं, जिन्होंने आत्मा की आवाज पर सामाजिक उद्धार के कार्य किए थे। इनके कार्य इतने प्रखर थे कि इन्हें ‘भारत रत्न‘ का अधिकारी माना गया।
महर्षि कर्वे सूचना | |
पूरा नाम | डॉ. धोंडो केशव कर्वे |
जन्म की तारीख | 18 अप्रैल, 1858 |
पेशा | प्रोफेसर, कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता |
जीवनसाथी | राधाबाई और गोदुबाई |
बच्चे | 3, जिनमें रघुनाथ कर्वे भी शामिल हैं |
लेखन | मराठी में आत्मवृत्त (1928) और अंग्रेजी में लुकिंग बैक (1936) |
मृत | 9 नवंबर 1962 |
भारतीय महिलाओं की स्थिति सुधारने और इनकी शिक्षा के प्रयास करने वाले ‘भारत रत्न’ महर्षि कर्वे का संपूर्ण नाम धोंडो केशव कर्वे था। स्वार्थरहित सेवा के कारण ये महर्षि कर्वे के नाम से जाने जाते हैं। जन्म 19 अप्रैल, 1858 को महाराष्ट्र के मुरुड नामक कस्बे के एक निर्धन परिवार में हुआ था। इनका बाल्य जीवन बेहद मुश्किलों में गुजरा। जब ये मुंबई में कला, स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे, तब पिता का निधन हो जाने के पश्चात् बड़े भ्राता से मिलने वाली चार रुपये मासिक की मदद इन्हें मिल पाती थी। ट्यूशन करने पर पहले माह महज एक रुपया ही प्राप्त हो पाया। बाल-विवाह की प्रथा के अनुसार विवाह हो जाने के 15 वर्ष की उम्र में विद्यार्थी जीवन गुजारते हुए ये एक पुत्र को भी जन्म दे चुके थे।
परिवार चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी ही। कर्वे को बी.ए. उत्तीर्ण करते ही मुंबई के एलफिंस्टन विद्यालय में शिक्षक की नौकरी प्राप्त हुई, किंतु वेतन बेहद कम था। गृहस्थी चलाने के लिए तब कर्वे लड़कियों के दो विद्यालयों में अल्पकालिक कार्य करने के साथ ही ट्यूशन भी पढ़ाने लगे। इसी दौरान इनकी पत्नी का निधन हो गया। हिंदू विधवाओं की कारुणिक स्थिति सुधारने की तरफ वह विद्यार्थी जीवन के समय से ही सोचा करते थे। अब अपने विचारों को पूर्ण करने का मौका था। कर्वे ने सामाजिक परंपराओं को चुनौती देते हुए एक विधवा से पुनर्विवाह कर लिया। इसके चलते इन्हें व इनके परिवार को सामाजिक बहिष्कार का दंड भोगना पड़ा। महर्षि कर्वे ने जल्दी ही आभास किया कि विधवा विवाह की इक्का-दुक्का घटनाओं से विधवाओं की स्थिति में सुधार नहीं आएगा। इसके लिए इन्हें शिक्षित करके इन्हें आत्मनिर्भर बनाए जाने की आवश्यकता है।
इस दौरान गोपालकृष्ण गोखले के बुलाने पर ये पूना के फर्ग्यूसन महाविद्यालय में प्राध्यापक बन चुके थे। इन्होंने 1891 से 1914 तक 23 वर्ष इस महाविद्यालय में शिक्षणकार्य किया। पूना में इन्होंने 1896 में पूना के पास हिंगणे नाम के स्थान पर ‘अनाथ बालिका आश्रम’ की स्थापना की। कर्वे, फर्ग्यूसन महाविद्यालय के पश्चात्, नियमित रूप से इस आश्रम में महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य करते रहे। 1907 में इन्होंने ‘महिला विद्यालय’ स्थापित किया, जिसमें शुरू में छह छात्राएं ही थीं।
1914 में महर्षि कर्वे फर्ग्यूसन महाविद्यालय से अवकाश पा चुके थे। उसी दौरान काशी के देशभक्त शिवप्रसाद गुप्त ने अपनी जापानयात्रा के पश्चात् वहां के महिला विश्वविद्यालय के बारे में एक पुस्तिका महर्षि कर्वे को दी। इससे प्रेरित होकर इन्होंने महिला विश्वविद्यालय की स्थापना का इरादा बनाया और 1916 में ‘महिला पाठशाला’ के नाम से इस विश्वविद्यालय के प्रथम महाविद्यालय की स्थापना हुई। फिर कर्वे ने भारत के और भारत के बाहर कई देशों की यात्रा करके इस विश्वविद्यालय के लिए धन जुटाया। मुंबई के एक उद्योगपति विठ्ठल दास दामोदर ठाकरसी ने अपनी माता के नाम पर विश्वविद्यालय को 15 लाख रुपये प्रदान किए। इनके नाम पर विद्यालय का नाम एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय पड़ा और कुछ समय पश्चात् इसे पूना से मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया।
महर्षि कर्वे को इनकी सेवाओं के लिए 1955 में ‘पद्म विभूषण’ और 1958 में ‘भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। इनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया। कई विश्वविद्यालयों ने इन्हें मानद उपाधियां प्रदान कीं। 104 वर्ष की उम्र में 9 नवंबर, 1962 को इनका निधन हो गया।
पुरस्कार और मान्यताएँ [पुरस्कार और सिद्धांत]
पुरस्कार/डिग्री का नाम | संगठन | वर्ष |
डॉक्टर ऑफ लेटर्स | बनारस हिंदू विश्वविद्यालय | 1942 |
डॉक्टर ऑफ लेटर्स | पुणे विश्वविद्यालय | 1951 |
डॉक्टर ऑफ लेटर्स | एसएनडीटी | 1954 |
एलएलडी की डिग्री | बम्बई विश्वविद्यालय | 1957 |
पद्म विभूषण | भारत सरकार | 1955 |
भारत रत्न | भारत सरकार | 1958 |
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