गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन परिचय (Ganesh Shankar Vidyarthi Biography in hindi)- ये भारत के महान सपूतों में से एक माने जाते हैं। प्रसिद्ध पत्रकार, देशभक्त और अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को अपने नाना के घर इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता मुंशी जय नारायण जिला फतेहपुर (उ.प्र.) के रहने वाले थे। माता का नाम गोमती देवी था। पिता ग्वालियर स्टेट के शिक्षा विभाग में शिक्षक थे। अतः विद्यार्थी जी का बाल्यकाल भेलसा विदिशा मुंगावली में गुजरा। उर्दू से शिक्षा शुरू करके इन्होंने भेलसा से अंग्रेजी में आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। दसवीं की प्राइवेट परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् आगे की शिक्षा के लिए ये इलाहाबाद चले गए। वहीं से पंडित सुंदरलाल के पत्र ‘कर्मयोगी’ से जुड़ने के पश्चात् पत्रकारिता की तरफ झुकाव हुआ।
इलाहाबाद में एक वर्ष के अध्ययन के पश्चात् इन्हें 1908 में कानपुर के मुद्रा कार्यालय में आजीविका प्राप्त हुई, लेकिन अंग्रेज अधिकारी से विवाद हो जाने की वजह से इन्होंने उस नौकरी पर लात मार दी। तब तक विद्यार्थी जी के लेख ‘सरस्वती’, ‘कर्मयोगी’ व ‘हितवार्ता’ इत्यादि समाचार-पत्रों में प्रकाशित होने लगे थे। कुछ समय तक ‘सरस्वती’ और ‘अभ्युदय’ पत्रों में कार्य करने के पश्चात् 9 नवंबर, 1913 को विद्यार्थी ने अपने पत्र साप्ताहिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। राजनीतिक नजरिए से विद्यार्थी जी पर सर्वप्रथम लोकमान्य तिलक का प्रभाव पड़ा था, लेकिन गांधी जी के देश आने के पश्चात् ये पूर्णतया इनके ही अनुयायी हो गए। अपने पत्र के माध्यम ने इन्होंने विदेशी सत्ता का प्रबल विरोध किया। इसके लिए जेल यात्राएं भी करनी पड़ीं, पत्र की जमानतें भी जब्त हुई। इनकी गणना प्रदेश के शीर्षस्थ नेताओं में होने लगी। 1930 में विद्यार्थी जी उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गए। सत्याग्रह आंदोलन में अपने प्रदेश के प्रथम ‘डिक्टेटर’ भी वही रहे।
विद्यार्थी जी ने 1920 में साप्ताहिक ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया और ‘प्रभा’ शीर्षक से एक साहित्यिक और राजनीतिक पत्रिका का भी प्रकाशन शुरू किया। इनका ‘प्रताप’ कृषकों, श्रमिकों और देशी रियासतों की प्रजा का कट्टर समर्थक था। इन्होंने कई पत्रकारों को प्रशिक्षित किया। क्रांतिकारियों को अपने साथ बनाए रखा। सरदार भगतसिंह ने भी नाम बदलकर ‘प्रताप’ के लिए कार्य किया था। हिंदी साहित्य सम्मेलन के 19वें गोरखपुर अधिवेशन के सभापति विद्यार्थी जी ही बनाए गए थे।
विद्यार्थी जी हिंदू-मुस्लिम एकता के पुरजोर समर्थक थे। भगत सिंह आदि क्रांतिकारियों को फांसी दिए जाने के ठीक पश्चात् कानपुर में सांप्रदायिक दंगों को शांत कराते और दंगाग्रस्त लोगों को बचाते हुए 25 मार्च, 1931 को ये शहीद हो गए। इनकी मौत का समाचार मिलने पर गांधी जी कह उठे थे, ‘भाई गणेश शंकर की मृत्यु से मुझे ईर्ष्या हुई है। उनकी मृत्यु महान बलिदान कही जाएगी।’