पांडुरंग बामन काणे का जीवन परिचय- साधारण तौर पर व्यक्ति अपनी प्रतिभा व विद्वता का लाभ निज हित में ही चाहता है, किंतु अपनी प्रतिभा, समृद्धि या सबल पक्ष के माध्यम से समाजोपयोगी कार्य करने वाला व्यक्ति ही महान कहा जाना चाहिए। कला के नाम पर धन बटोरने के लिए, बुढ़ापे में ठुमके लगाना और फिर महान कहलाना तो वैसा ही है, जैसे नाखून कटाकर शहीद का दर्जा पाना। महान वह होता है, जो अपनी प्राप्ति, अपनी समृद्धि व अपने सौभाग्य में अन्य लोगों को भी भागीदार बनाता है । उसी व्यक्तित्व के भारतीय विद्वान मनीषी ‘भारत रत्न’ महामहोपाध्याय पांडुरंग बामन काणे का जन्म 7 मई, 1880 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के चिपलूण के पास हुआ था। इनके पिता वामन शंकर तालुके में वकील हुआ करते थे। विद्यालय से लेकर एलएल. एम. तक प्रथम स्थान से शिक्षा प्राप्त करने व कई पुरस्कार पाने के पश्चात् काणे ने सात वर्ष तक सरकारी विद्यालय में शिक्षण का कार्य किया, किंतु जब पदोन्नति के दौरान इनके साथ न्याय नहीं हुआ तो इन्होंने सरकारी ओहदा छोड़ दिया और 1911 में मुंबई उच्च न्यायालय में वकालत आरंभ कर दी। साथ ही मुंबई विश्वविद्यालय में कानूनी विषयों पर वक्तव्य देने का कार्य भी करने लगे। 1917 में इन्हें राजकीय विधि महाविद्यालय का प्राध्यापक बना दिया गया। 1923 तक ये प्राध्यापक के रूप में शिक्षण कार्य करते रहे।
में इनका सर्वाधिक बड़ा योगदान तो वह वृहद साहित्य रहा है, जिसकी रचना इन्होंने अपनी पूरी जिंदगी ही लगा दी। ये अपने महान ग्रंथों यथा ‘साहित्य शास्त्र’ व ‘धर्मशास्त्र’ पर 1906 से ही कार्यारंभ कर चुके थे। इनमें ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ ज्यादा विशिष्ट व विख्यात रहा है। पांच भागों में प्रकाशित वृहद आकार के 6,500 पृष्ठों का यह ग्रंथ भारतीय धर्मशास्त्र का विश्वकोश है। इसमें 600 ई. पू. से लेकर 1800 तक की भारत की पृथक-पृथक धार्मिक प्रवृत्तियों का साक्ष्यपूर्ण विवेचन प्रदर्शित किया गया है। हिंदू विधि व आचार-विचार विषयक इनका प्रकाशित साहित्य लगभग बीस हजार पृष्ठों से भी ज्यादा का रहा है।
काणे ने धर्म की विवेचना उसके उदार स्वरूप में की है। इन्होंने छुआछूत का जहां विरोध किया, वहीं अंतर्जातीय व विधवा विवाह की हिमायत भी की।। विशेष परिस्थिति होने पर ये महिलाओं के तलाक लेने के अधिकार के भी पैरोकार रहे। इनका मानना था कि हिंदू धर्म के मूल में राष्ट्रीयता, प्रजातंत्र व विश्वबंधुत्व की भावना मौजूद रही है। इनकी सोच थी कि धर्मशास्त्र के ग्रंथ ‘अनित्य’ है और समय के साथ आर्थिक स्वरूप में भी बदलाव को स्वीकृत किया जाना चाहिए।
काणे को इनके कृतित्व के लिए कई पुरस्कार प्राप्त हुए। कई विश्वविद्यालयों ने इन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी। मुंबई विश्वविद्यालय के ये कुलपति भी रहे।‘भारतीय इतिहास कांग्रेस’ और ‘प्राच्यविधा कांग्रेस’ की इन्होंने अध्यक्षता भी की। 1948, 1951 और 1954 में ‘प्राच्य विद्याविदों’ के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि मंडल की अगुवाई की। 1959 में इन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न‘ से सम्मानित किया गया। 18 अप्रैल, 1972 को इस महान विद्वान ने अपना कृतित्व पूर्ण करके संसार को अलविदा कह दिया।
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