Biography

भदंत आनंद कौसल्यायन का जीवन परिचय | Bhadant Anand Kausalyayan Ka Jivan Parichay

भदंत आनंद कौसल्यायन का जीवन परिचय
भदंत आनंद कौसल्यायन का जीवन परिचय

अनुक्रम (Contents)

भदंत आनंद कौसल्यायन का जीवन परिचय

बीसवीं शताब्दी के आरंभ में इस महान व्यक्ति ने भारतीय संस्कृति के लिए, जो भागीरथ प्रयास किए हैं, उन पर दृष्टिपात करते हुए हैरान होना पड़ता है कि आज सिनेमा, क्रिकेट व मनोरंजन ने आखिर सांस्कृतिक विरासत पर क्यों कर टनों धूल जमा दी है! हम आईपीएल के लिए बिकते हुए नमन ओझा जैसे शख्स की चर्चा करते हैं और भदंत आनंद कौसल्यायन का नाम आने पर बगलें झांकने लगते हैं। ये किसी भी देश को सांस्कृतिक विरासत के लिए शुभ संकेत नहीं कहे जा सकते हैं।

विख्यात बौद्ध विद्वान लेखन समाज सुधारक और आत्मज्ञानी भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म 5 फरवरी, 1905 को चंडीगढ़ के पास सुहाना नाम के ग्राम में हुआ था। इनका बाल्यकालीन नाम हरिनाम दास था। इनके पिता रामसरन दास अंबाला के एक उच्च विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे। हरिनाम दास बाल्यकाल से ही रोशन विचारों वाले व्यक्ति रहे थे। देश की परतंत्रता इन्हें विचलित करती थी और समाज में व्याप्त भेदभाव का व्यवहार इनको आहत भी करता था। ये देश में समान नागरिकता के पैरोकार थे। इन्हीं विचारों का नतीजा था कि इनके भीतर वैराग्य की भावना जड़ पकड़ने लगी और 21 वर्ष की आयु में घर-संसार त्यागकर ये देशाटन के लिए कूच कर गए।

देश-भ्रमण करते ये कई स्थानों पर गए और वहां के लोगों की दिनचर्या और इनकी संस्कृति को करीब से जानने का प्रयास किया। इसी संदर्भ में इनका परिचय कांगड़ा जिले की ‘डुमने’ और ‘सराडे’ नाम की जातियों से हुआ। हरिनाम दास ने उनमें व्याप्त बुराइयों का अंत करने का प्रयास किया और कुछ समय तक इनके बच्चों की शिक्षा का भी अपने प्रयासों से इंतजाम किया।

इस दौरान हरिनाम दास की मुलाकात एक साधु से हुई। साधु का नाम था रामोदर दास। यही रामोदर दास आगे चलकर राहुल सांकृत्यायन के नाम से प्रसिद्ध हुए। राहुल जी से मिलना हरिनाम दास के जीवन की एक विलक्षण घटना रही। राहुल जी के मार्गदर्शन से ये बौद्धधर्म की तरफ आकृष्ट हुए। इन्हें परिव्राजक के वस्त्र धारण करने को मिले और बौद्ध तीर्थस्थलों का भ्रमण करने हेतु भी

प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। भारत के सभी बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने के पश्चात् ज्यादा ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से ये 1928 में श्रीलंका भी गए। वहां त्रिपिटक आदि ग्रंथों का गहन अध्ययन भी किया। अब इन्हें भदंत आनंद कौसल्यायन के नाम की पहचान मिली। इनका ध्यान शोध व साहित्य सृजन की तरफ भी गया । इन्होंने संस्कृत, पाली, अंग्रेजी तथा सिंहली भाषाओं में दक्षता प्राप्त की। आनंद जी 1932 में धर्मदूत बनकर लंदन भी गए। तदंतर इन्होंने चीन, जापान व थाईलैंड इत्यादि देशों की यात्रा भी की। सभी स्थानों पर इनका विद्वानों से परिचय हुआ और इन्होंने बौद्ध विचारधारा की विभिन्न प्रवृत्तियों के बारे में विचार विनिमय भी किया । इन्होंने कुछ समय तक सारनाथ में रहकर महाबोधि सभा का कार्य देखा और ‘धर्मदूत’ नाम से पत्र का संपादन कार्य भी किया। 1956 में नेपाल में आयोजित चतुर्थ बौद्ध सम्मेलन में भी ये शामिल रहे, जहां इनकी भेंट डॉ. भीमराव अंबेडकर से भी हुई।

आनंद जी नई पीढ़ी की शिक्षा पर खासा जोर देते थे। बोधगया का एक महंत गरीब बच्चों से खेती का काम लिया करता था। बच्चों को महंत के चंगुल से निकालने के लिए इन्होंने वहां पर एक विद्यालय की स्थापना का पुनीत कार्य भी किया।

आनंद जी ने हिंदी साहित्य के उन्नयन के लिए व्यापक कार्य किया। बौद्ध जातक कथाओं को हिंदी में मुहैया कराने का कार्य इन्होंने ही किया। इनकी कुछ दूसरी कृतियां ‘जो लिखना पड़ा’ और ‘रेल का टिकट’ भी रही हैं। ‘दर्शन वेद से मार्क्स तक’ में इन्होंने भारत के तमाम दर्शनों का विवरण दिया है। इन हिंदी सेवाओं के लिए साहित्य सम्मेलन ने इन्हें ‘वाचस्पति’ की उपाधि से गौरव प्रदान किया। 22 जून, 1988 को भदंत आनंद कौसल्यायन का निधन हो गया।

Important Links…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment