अरस्तू के आदर्श राज्य की अवधारणा
(Aristotle’s Conception of Ideal State)
अरस्तू वैसे तो वैधानिक जनतन्त्र (Polity) को ही अच्छा मानता है, लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं जहाँ वैधानिक जनतन्त्र का विकास सम्भव नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में सर्वोत्तम आदर्श है। सर्वोत्तम राज्य का उद्देश्य उत्तम जीवन की प्राप्ति होता है। उत्तम जीवन का अर्थ आनन्दमय जीवन से है जो आत्मानुभूति पर आधारित है। उत्तम जीवन एक चिन्तनात्मक जीवन है। अरस्तू ने उत्तम जीवन के लिए आवश्यक विशेष प्रकार की परिस्थितियों को आदर्श राज्य कहा है। प्लेटो ने जिस आदर्श राज्य की अवधारणा को प्रतिपादित किया था, आगे चलकर अरस्तू ने उसे ही विकसित करने का प्रयास किया है। अरस्तू ने अपनी महान् रचना Politics’ की सातवीं व आठवीं पुस्तक में आदर्श राज्य का सुन्दर चित्रण किया है। अरस्तू आदर्श राज्य की अवधारणा पर यथार्थवादी एवं व्यावहारिक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसलिए अरस्तू का आदर्श राज्य प्लेटो द्वारा ‘रिपब्लिक’ में वर्णित आदर्श राज्य से सर्वथा भिन्न है। ‘रिपब्लिक’ में वर्णित प्लेटो का आदर्श राज्य जहाँ सिर्फ अयथार्थवादी काल्पनिक सिद्धान्तों पर आधारित है, वहाँ प्लेटो का आदर्श राज्य जीवन की वास्तविकता से सम्बन्ध रखता है। इस प्रकार अरस्तू का आदर्श राज्य प्लेटो द्वारा ‘लाज’ में वर्णित ‘द्वितीय उत्तम राज्य से अलग है। सेबाइन के अनुसार “जिसे अरस्तू आदर्श राज्य मानता है वह प्लेटो का उपादर्श या द्वितीय सर्वश्रेष्ठ राज्य है। इसका अर्थ यह है कि अरस्तू का आदर्श राज्य प्लेटो के उपादर्श राज्य का ही संशोधित संस्करण है।” सिन्क्लेयर के अनुसार- “अरस्तु वहीं से प्रारम्भ करता है जहाँ से प्लेटो छोड़ देता है।
आदर्श राज्य के उद्देश्य
(Objectives of the Ideal State)
अरतू के अनुसार आदर्श राज्य का उद्देश्य “उत्तम जीवन की उपलब्धि है तथा ऐसे जीवन की प्राप्ति के लिए आवश्यक भौतिक और आध्यात्मिक साधनों की व्यवस्था करना है।” उराम जीवन की परिभाषा देते हुए बाकर कहता है- “एक ऐसा जीवन जो उत्तम कार्य और उत्तम आचरणों गढ़ा जाता है। नैतिक और बौद्धिक सद्गुण ही उत्तम जीवन का निर्माण करते हैं। ऐसा जीवन, जो व्यक्ति को भौतिक, नैतिक और आत्मिक सम्पन्नता प्रदान करता हो, प्राप्त करना आदर्श राज्य का उद्देश्य होना चाहिए। अरस्तु का कथन है- “जो राज्य स्वयं अपने जीवन को और नागरिकों के जीवन को इन श्रेष्ठ तत्त्वों से परिपूर्ण कर सकता है, वहीं आदर्श राज्य कहा जा सकता है।”
अरस्तू के आदर्श राज्य का स्वरूप और रचना
(The Form and Structure of Aristotle’s Ideal State)
1. पाण्य की जनसंख्या (Population of the State) :
अरस्तू ने आदर्श राज्य के लिए सन्तुलित जनशक्ति पर जोर दिया है। अरस्तू का कहना कि राज्य की महानता नागरिकों की संख्या नहीं, बल्कि उनके गुणों में होती है। दासों और विदेशियों से भरा हुआ अत्यधिक जनसंख्या वाला राज्य श्रेष्ठ नहीं हो सकता। अरस्तू कहता है कि राज्य की महानता उसके नागरिकों द्वारा कर्तव्य पालन में होती है। जिस प्रकार हियोक्ट्रीज अपने शरीर के कारण नहीं, बल्कि अपनी गुणात्मक योग्यता के कारण प्रसिद्ध था, उसी पर एक राज्य अपनी क्षमताओं अर्थात् नागरिकों की कर्तव्यपरायणता और अन्य चरित्र के कारण महान बनाता है, आबादी के कारण नहीं। आबादी इतनी होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर बन सकें और प्रशासनिक कार्यों में कोई असुविधा उत्पन्न न हो। इसलिए सबसे अच्छा राज्य वही होगा जिसमें जनसंख्या और व्यवस्था में आपसी तालमेल और सामंजस्य हो। अतः जनसंख्या न तो ज्यादा होनी चाहिए और न ज्यादा कम।
2. राज्य का आकार (The Size of State) :
अरस्तू का मानना है कि भौगोलिक दृष्टि से बहुत अधिक विस्तृत राज्य महान् राज्य नहीं होता। इसलिए राज्य का भू-भाग न बहुत बड़ा हो और न बहुत छोटा। उसका निस्तार इतना अवश्य हो कि वह निवास करने वालों की आवश्यकता पूरी कर संयम और उदारतापूर्वक जीवन व्यतीत कराने सक्षम हो। पर उसका क्षेत्रफल इतना ही बड़ा हो कि वह आसानी से नज़र आ सके। राज्य एक आत्गनिर्गर रागाज होता है। उसका विस्तार व जनसंख्या इतनी जरूर होनी चाहिए कि राज्य आत्मनिर्भर बन सके। राज्य की भूमि उपजाऊ ताकि अन्न के मामले में आत्मनिर्भरता हो सक्ते। भू-भाग शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में बँटा होना चाहिए। इससे राज्य में एकता की भावना बढ़ेगी और राज्य की आत्मरक्षा की क्षमता भी बढ़ेगी। अरस्तू का कहना है कि- “चहुँमुखी विकास के लिए बहुत जनशक्ति विस्तृत सीमा की आवश्यकता नहीं होती। इसके लिए सन्तुलित जनसंख्या और विस्तार की आवश्यकता होती है जिसमें शान्ति न व्यवस्था की आसानी से कायम रखा जा सके तथा लोगों के बीच व्यक्तित्व सम्बन्ध स्थापित हो सके। विस्तार नाप-ताल के योग्य हो तथा सुरक्षा की आवश्यक योजना तैयार की जा सके, उसका सम्बन्ध राजधानी से और मुख्य सुरक्षा शक्ति से जोड़ा जा सके। उसकी आर्थिक स्थिति मजबूत हो।” राज्य का स्थान समुद्र और स्थल दोनो के निकट अवस्थित होना चाहिए जिससे वहाँ जल और थल दोनों मार्गों की सुविधा हो।
3. राज्य का माणिक स्वरूप (The Economic Structure of the State) :
अरस्तू राज्य को समुद्र के निकट होने को श्रेयस्कर माना है। इससे व्यापारिक व यातायात की सुविधा रहती है। शत्रु पर हमला होने की सुविधा रहती है। आयात-निर्यात की सुविधा से समुद्र के निकट के राज्य लाभ में होते हैं। अरसा का मनना है कि राज्य में नौ-सैनिक शक्ति भी आत्म-रक्षा की दृष्टि से जरूरी होती है। अरस्तू प्रत्येक नागरिक के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति आवश्यक मानता है लेकिन भूमि पर वह शासक, सैनिक वर्ग का स्वामित्व चाहता है। वह भूमि का स्वामित्व व कर्जा अलग-अलग वर्गों के हाथ में सौंपता है। यह कहा कि सही किसान खेत का मालिक नहीं होना चाहिए। अरस्तू कहता है- “भूमि का मालिक केवल नागरिक बन सकता है क्योकि यदि नागरिक वर्ग खेत जोटेंगे तो उन्हें परिश्रम के अनुसार हिस्सा मिलेगा और परिश्रम के लिए उन्हें दामों और सफों को लगाना होगा जो अधिक परिश्रम कर थोडा हिस्सा मिलने पर असन्तोष व्यक्त करेंगे और समाज में अशान्ति पैदा हो जाएगी। अरस्तू का कहने का तात्पर्य यह है कि दास और कृषक तो खेतों में कार्य करेंगे तथा खेत के मालिक अवकाश करेंगे जिससे इनको नागरिकों के रूप में बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के लिए पर्याप्त रामय प्राप्त होगा।
4. राज्य का सामाजिक स्वरूप (The Social Structure of the State) :
अरस्तू के राज्य में पूर्ण अंग नागरिक और आवश्यक साधन के रूप में प्रयुक्त नागरिक दो प्रकार निवासी है। ये दोनों निवासी एक-दूसरे के पूरक हैं। उदाहरण के लिए सम्पति राज्य संचालन का एक साधन है, अंग नहीं। यह नागरिकों से अलग वस्तु है। इसमें जीव और निर्जींव दोनों ही वस्तुएँ शामिल हैं। दास और सिर्फ सम्पत्ति के अन्तर्गत आते हैं, परन्तु वे नागरिक नहीं है। अरस्तू के अनुसार- “भोजन की व्यवस्था. कला और दस्तकारी को प्रोत्साहन, सुरक्षा, सम्पत्ति के कुल प्रकारों का संचय. देवाराधना, लोकहित और व्यक्तिगत हित के मध्य निर्णय की व्यवस्था – ये छ: प्रकार के राजकीय कार्य हैं। एक सक्षम राज्य वह होता है जो इन सेवाओं को उपलब्ध करते है। इन सेवाओं की उपलब्धि के लिए राज्य में श्रम का विभाजन इस प्रकार होना – खेती ओर दस्तकारी का कार्य सहायक वर्ग अर्थात दास और सर्फ तथा बाकी के चार चार कार्य नागरिक करेंगे। सुरक्षा, सार्वजनिक आराधना और न्याय का कार्य सभी नागरिक अपनी आयु के अनुसार अलग-अलग करेंगे अर्थात् सभी नागरिक आयु के अनुसार सैनिक, प्रशासक, न्यायाधीश, विधायक और पुरोहित बन सकेंगे। इस प्रकार के कार्यों को करने वाले नागरिकों के पास सम्पत्ति का होना आवश्यक है ताकि अपना आत्मिक विकास न राजनीतिक कार्यों का सम्पादन सरलता से कर सकें।
5. नागरिकों का चरित्र (Character or Citizens) :
अरस्तू का कहना है कि राज्य के कार्यों को कहरे के लिए सद्गुणी नागरिकों का होना जरूरी है। अपने कार्यों को करने के लिए नागरिक का बुद्धिमान न साहसी होने के साथ-साथ इन गुणों में समन्वय का होना भी जरूरी है। अरस्तू मानन स्नमान के अनुसार नागरिकों को तीन भागों में बाँटता है। अरस्तू की मान्यता है कि जलवायु का भी मानक्स्वभाव पर प्रभाव पड़ता है। उसका मानना है कि शीत प्रधान यूरोप के निवासियों में साहस व सौर्य का गुण तो होता है लेकिन उनमें विवेक और कौशल की कमी होती है। अतः उनका उचित राजनीतिक निवास नहीं हो पाता। एशिया की गर्म जलवायु में रहने वाले लोग दूरदर्शी तो होते हैं, परन्तु साहसी नहीं होते। यूनान इन दोनों के बीच में बसा हुआ है. इसलिए यूनानियों में इन दोनों के गुणों का समावेश है। इसलिए यूनानियों की तरह सफल और समर्थ नागरिक बनने के लिए इन दोनों के गुणों का समावेश जरूरी है जिससे उनमें एकता और सहयोग की भावना विकसित हो सके। ऐसे उच्च आदर्श वाले ही आदर्श राज्य के आधार होते हैं।
6. विवाह (Marriage) :
अच्छे स्वास्थ्य के लिए विवाह का राज्य द्वारा नियमन आवश्यक है। अरस्तू के अनुसार स्त्री-पुरुष का मेल उचित व परिपक्व आयु में ही होना चाहिए। इसके लिए राज्य को विवाह की आयु तय करनी चाहिए ताकि वो व अल्पायु वालों को विवाह से रोका जा सके। विवाह के समय स्त्री की आयु 18 वर्ष और पुरुष की आयु 37 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए। दोनों का संयोग, सन्तान उत्पन्न करना आदि बातें भी राज्य द्वारा नियन्त्रित होनी चाहिए। जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए गर्भपात का कानून होना चाहिए। स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को शारीरिक व्यायाम करना चाहिए।
7. विधि की सम्प्रभुता (Sovereignty of Law) :
अरस्तू के अनुसर आदर्श राज्य वही है जहाँ कानून की सम्प्रभुता स्थापित है। यह नागरिकों की समानता का द्योतक है क्योंकि उसका आधार मानवीय विवेक और उसी उपज रीति-रिवाज और जन परम्पराएँ हैं। विधि की सम्पुभता का समर्थन अरस्तू आदर्श राज्य में क्रान्ति की सम्भावना समाप्त करने के लिए करता है। अरस्तू कहता है कि विधि के शासन की कोई भी ज्ञानवान व्यक्ति या दार्शनिक बराबरी नहीं कर सकता। अतः आदर्शराज्य में कानून ही सम्प्रभु होना चाहिए।
8. शिक्षा (Education) :
अरस्तू आदर्श राज्य के निर्माण के लिए शिक्षा को आवश्यक मानता है। राज्य का स्थायित्व शिक्षा पर ही निर्भर करता है। अरस्तू के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को विवेकी और गुणी बनाना है। अरस्तू के अनुसार शिक्षा नागरिकों के चरित्रों को संविधान के ढाँचे के अनुरूप ढालती है। अरस्तू की शिक्षा का उद्देश्य नागरिकों का सर्वांगीण विकास करना है। शिक्षा से ही नागरिक आज्ञा पालन करना और शासन करना सीखते हैं। अरस्तू शिक्षा को तीन चरणों में बाँटकर 21 वर्ष तक चलाता है। इस शिक्षा क्रम में नागरिक गुणी, विनम्र, उदार, साहसी, आत्मसंयमी, न्यायप्रिय और नियमपालक हो जाता है। अरस्तू व्यक्ति के लिए नैतिक, सैनिक, बौद्धिक, शारीरिक शिक्षा का प्रावधान करता है।
9. अन्य व्यवस्थाएँ (Other Requirements) :
अरस्तू का कहना है कि राज्य को बाहा आक्रमणों से बचाने के लिए सुरक्षा के अच्छे साधन होने चाहिए। राज्य में जल, सड़कों और किलों की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। इनके अतिरिक्त परिषद् होनी चाहिए जिसके सामने शासन के सभी निर्णय प्रस्तुत किए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रशासनिक अधिकारियों व न्यायपालिका की भी व्यवस्था होनी चाहिए।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्लेटो की तरह अरस्तू का आदर्श राज्य का विवरण काल्पनिक न होकर यथार्थवादी है। अरस्तू का कहना है कि अच्छा राज्य वही है जो अतियों (Extremists) से बचता हुआ अपने आप को निर्मित करने वाले लोगों की चारित्रिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखता है और उन्हें सद्गुणयुक्त जीवन निर्वाह के साधन और अवसर प्रदान करता है और इस तरह उनके जीवन को आनन्ददायक व आदर्श बनाता है।
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