अरस्तू आदर्श राज्य की आलोचना
(Criticism of Ideal State)
1. मौलिकता का अभाव (Lack of Originality) : अरस्तू से पहले भी प्लेटो ने आदर्श राज्य पर अपने विचार दिए हैं। अरस्तू ने प्लेटो के विचारों को तर्कसंगत और स्पष्ट करने के लिए उसके स्वरूप परिवर्तन कर दिया है। अतः अरस्तू आदर्श राज्य के सिद्धान्त का परिमार्जक है, मौलिक निर्माता नहीं।
2. अरस्तू का आदर्श राज्य का विचार अल्पर (Aristotle’s Concept of Ideal State is not Clear) : अरस्तू ने आदर्श राज्य के लिए कोइनोमिया (Koinemia) शब्द का प्रयोग किया है जिसके अनुसार सभी व्यक्ति समान होने चाहिए। क्योंकि इस शब्द का का अर्थ साझेदारी के रूप में होता है। परन्तु अरस्तू के राज्य में या राजनीतिक साझेदारी में सभी स्त्री-पुरुष समान नहीं हैं। राज्य स्वामी और दास तथा स्त्री व पुरुष असमानता को परिलक्षित करता है। अरस्तू स्वामियों को दासों का शोषण करने की छूट देता हैं अरस्तू के आदर्श राज्य में कहीं भी स्पष्टता नहीं है। अतः अरस्तू के विचार अस्पष्ट है।
3. आदर्श राज्य में एकता और राज्य की सर्वोपरिता के सिद्धान्तों को जोड़ने का असफल प्रयास There is an Unsuccessful attempt to Reconcile the Principles of Unity in Diversity and the Hegemony of the State}: अरस्तू एक तरफ तो अपने राज्यों को फलने-फूलने देता है क्योंकि राज्य में अत्यधिक एकरूपता स्वयं राज्य के अस्तित्व के लिए घातक हो जाती है। दूसरी ओर मजदूर, सर्फ और दास वर्ग को कृषि और शारीरिक श्रम के सिवाय आत्मिक और बौद्धिक विकास का कोई अवसर नहीं दिया जाता। दास नागरिकों की उसी तरह सम्पत्ति है, जैसे कुत्ते, बिल्ली, वेता शिक्षा के क्षेत्र में राज्य का पूर्ण नियन्त्रण है। राज्य के विरुद्ध व्यक्त्ति कुछ करने का अधिकारी नहीं है, फिर भी यह कैसी अनेकता है।
4. अरस्तू का आव राज्य फोटो पावर्श राज्य है : अरस्तू ने प्लेटो के ‘लाज’ की नकल करके ही छोटे-मोटे परिवर्तनों के साथ अपने आदर्श राज्य का चित्रण किया है। राज्य की जनसंख्या, विस्तार, आर्थिक और सामाजिक स्थिति, समुद्र से दूरी, कानून की सम्प्रभुता आदि तत्त्व प्लेटो के उपादर्श राज्य में भी विद्यमान हैं।
5. अरस्तू ने आदर्श राज्य को सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किया बल्कि राज्य के गुणों का वर्णन किया है : अरस्तू ने राज्य के उद्देश्य, अच्छाई, उत्तमता, आनन्द और सुखमय जीवन की कल्पना ‘पोलिटिक्स की 7 वी पुस्तक के प्रथम दो अध्यायों में की है और उसने बाह्य उत्थान की उपेक्षा चेतना के विकास तथा उच्चतम नैतिकता की उपलब्धि पर जोर दिया है। उसने राज्य के व्यावहारिक स्वरूप का जो चित्र तीसरी, पाँचवीं तथा छठी पुस्तक में खींचा है, वहीं ये सारे आदर्श लुप्त हैं।
6. अव्यावहारिक : अरस्तू जैसे-जैसे सैद्धान्तिक से अव्यवहारिकता की तरफ बढ़ता है तो उसकी व्यावहारिकता शून्य होती जाती है। इसका उदाहरण उसका ग्रन्थ ‘पालिटिक्स’ है। उसने इसकी तीसरी पुस्तक आदर्श राज्य की भूमिका के रूप में लिखी लेकिन उसकी सातवीं व आठवीं पुस्तक के अध्ययन से पता चलता है कि उसकी सारी योजना असन्तोषजन रही, इसलिए उसने आदर्श राज्य की योजना को पूरा नहीं किया। यह उसकी अव्यावहारिकता का ही उदाहरण है।
7. आयु के अनुसार वर्ग और कार्य विभाजन: अरस्तू ने कार्य विभाजन का आधार आयु को बनाया है। एक नागरिक युवावस्था में सैनिक का, प्रौढ़ावस्था में शासक का तथा वृद्धावस्था में पुरोहित का कार्य करेगा तो इससे एक आयु वर्ग में कार्य करने वालों की संख्या आवश्यकता से अधिक हो जाएगी जिससे अव्यवस्था पैदा होगी। इससे विशेषज्ञों का भी अकाल पड़ जाएगा क्योंकि सभी व्यक्ति सभी कायों के जानकार होंगे।
8. आदर्श राज्य में नैतिकता, उत्तमता और विवेक की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है: अरस्तू का कहना है जो नैतिक है, बहुमुंँखी है। राज्य का उद्देश्य उत्तमता है क्योंकि उत्तमता में ही आनन्द है। नैतिकता, गुख और उत्तमता निरपेक्ष गुण नहीं है। ये रामयानुसार बदलते हैं। अतः इनको परिभाषित करना आवश्यक होता है। अतः अस्तु के आदर्श में इनको स्पष्ट नहीं किया गया है।
उपर्युक्त आलोचनाओं से स्पष्ट है कि अरस्तू का आदर्श राज्य का विचार न तो वैज्ञानिक है और न ही व्यावहारिक। लेकिन वह एक सच्चा यूनानी होने के नाते जिस आदर्श राज्य का वर्णन करता है, वह पृथ्वी पर प्राप्त किया जा सकता है। अरस्तू ने आदर्श राज्य का मालिक चिंतक न होते हुए भी इस विचार के कारण यूनान में काफी प्रसिद्धि प्राप्त की है। यही कारण है कि आज भी अनेक विद्वान अरस्तू को प्लेटो के आदर्श राज्य के परिमार्जक के रूप में देखते हैं।
सम्पत्ति पर विचार
(Views on Property)
अरस्तू ने प्लेटो के सम्पत्ति के साम्यवाद की आलोचना करते हुए अपने सम्पत्ति पर विचारों को व्यक्त किया है। अरस्तू द्वारा प्लेटो के सम्पत्ति के साम्यवाद की आलोचना में काफी सच्चाई है। सम्पत्ति सम्बन्धी विचार अरस्तू ने ‘पॉलिटिक्स की प्रथम पुस्तक के तीन अध्यायों में व्यक्त किए हैं। अरस्तू निजी सम्पति को अनिवार्य मानता है। अरस्तू का कहना है कि निजी सम्पति के बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो सकता। यह व्यक्ति के आनन्द का स्रोत है और उसे अनेक उत्तम व नैतिक कार्य करने के अवसर प्रदान करती है। यदि व्यक्ति को निजी सम्पत्ति वंचित किया जाए तो उससे राज्य को ही हानि होगी।
सम्पत्ति का अर्थ
(Meaning of Property)
सम्पत्ति को परिभाषित करते हुए अरस्तू ने लिखा है “सम्पत्ति उन वस्तुओं का संग्रह है जो राज्य या परिवार में जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक न उपयोगी होती है।” अरस्तू ने इसे मानव-जीवन को आनन्ददायक बनाने वाला साधन माना है। वह लिखता है. “सम्पति परिवार व राज्य में प्रयोग किए जाने वाले साधनों या उपकरणों का संग्रह है। सम्पति के अन्तर्गत वे मारी वस्तुएँ आ जाती हैं जो परिवार के सदस्यों के दैनिक जीवन के लिए आवश्यक है। अरस्तू के अनुसार “सम्पत्ति परिवार का अंग होती है तथा सम्पत्ति प्राप्त करने की कला गृह प्रबन्ध का एक अंग होती है।
सम्पत्ति का औचित्य
(Justification for Property)
अरस्तू निजी सम्पत्ति का प्रबल समर्थक है। उसने इसके पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए है :-
1. सम्पत्ति प्रतिक और आध्यात्मिक पातु (Property is Related with Morality and Spirituality) : अरस्तू के अनुसार सम्पत्ति मानव में सहनशीलता, सद्भावना, उदारता, भातृभाव आदि के सद्गुण उत्पन्न करती है। अरस्तू कहता है- “न्यायपरायणता कुछ निजी सम्पत्ति की पूर्व कल्पना करती है।”
2. सम्पत्ति अनिवार्य है (Property is inevitable) : अरस्तू सम्पत्ति को परिवार के अस्तित्व और समुचित कार्यों के लिए मानव में सद्गुणों का विकास करने वाली वस्तु मानता है। यह जीविका है। यह राज्य या परिवार के लिए आवश्यक निर्जीव उपकरणों का संचयन है।
3. मानन्द प्राप्ति का साधन Means of Pleasure): अपने घर में रहने और भोजन प्राप्त करने का जो आनन्द है वह किराए के मकान में रहने और न होटल में भोजन करने से प्राप्त हो सकता है। आत्म-सम्मान निजी सम्पत्ति पर ही निर्भर है। निजी सम्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्पण है।
4. निजी सम्पत्ति व्यक्ति को अवकाश प्रदान करती है (Private property provides rest to his owner) : अरस्तू का कहना है कि सम्पत्तिहीन व्यक्ति नागरिक कार्यों में भाग नहीं ले सकता क्योंकि उसके पास अवकाश नहीं होता। अरस्तू कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति विशेष हित के कारण ही अपने कार्य पर पूरा ध्यान देता है। सम्पत्ति के निजी स्वामित्व में जो उत्पादन व अवकाश सम्भव है वह उसके सार्वजनिक स्वामित्व में नहीं।
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