सामाजिक संरचना का अर्थ एवं परिभाषा
सामाजिक संगठन और सामाजिक संरचना- किसी भी समाज की संगठन सामाजिक संरचना के प्रकार तथा उसके सदस्यों में सहमति की मात्रा पर निर्भर करता है। इलियट तथा मैरिल ने बताया है कि सामाजिक कार्यों या गतिविधियों का कुशलतापूर्वक संचालन उस तरीके से जिससे समूह के सदस्य अपनी प्रस्थितियां और भूमिकाएं प्राप्त करते हैं और उन साधनों जिनसे वे अपनी अन्य आवश्यकताओं एवं लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं पर निर्भर करता है। ये अन्य साधन सामाजिक प्रतिमान, संस्थाएं, प्रशासकीय एजेन्सियां तथा सामाजिक नियन्त्रण, आदि के उपकरण हैं जिन्हें समूह ने अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए विकसित किया है। सामाजिक संगठन की मात्रा इन विभिन्न साधनों के बीच मौजूद समन्वय और समाज के व्यक्तिगत सदस्यों द्वारा अपनी विशिष्ट प्रस्थितियों तथा भूमिकाओं को स्वीकार करने की सापेक्ष तत्परता द्वारा निर्धारित होती है। जहां सदस्य परम्परागत प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं को स्वीकार करने से इन्कार कर देते हैं वहां सामाजिक संगठन टूट जाता है।
सामाजिक संरचना का अर्थ स्पष्ट करते हुए पारसन्स ने लिखा है, “सामाजिक संरचना वह शब्दावली है जिसका प्रयोग परस्पर सम्बन्धित संस्थाओं, एजेन्सियों तथा सामाजिक प्रतिमानों और साथ ही प्रत्येक व्यक्ति द्वारा समूह में ग्रहण की गयी प्रस्थितियों एवं भूमिकाओं के लिए किया जाता है।”
गिन्सबर्ग के अनुसार, “सामाजिक संरचना का अध्ययन सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों अर्थात् समूहों, समितियों तथा संस्थाओं के प्रकारों एवं इन सबके संकुल (Complex) जिनसे समाज निर्मित होता है, से सम्बन्धित है।”
नैडेल के अनुसार, सामाजिक संरचना विभिन्न अंगों की एक क्रमबद्धता को व्यक्त करती है। यह अपेक्षाकृत रूप से स्थिर होती है, जबकि इसके अंग स्वयं परिवर्तनशील होते हैं।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्टतः ज्ञात होता है कि सामाजिक संरचना सामाजिक संगठन का एक महत्वपूर्ण तत्व है। सामाजिक संरचना विभिन्न सामाजिक इकाइयों की एक विशिष्ट व्यवस्था है। ये विभिन्न सामाजिक इकाइयां समूह, समितियां, संस्थाएं तथा सामाजिक प्रतिमान हैं। पारस्परिक सम्बन्ध के आधार पर ये इकाइयां सामाजिक संरचना का निर्माण करती हैं। इसी सम्बन्ध के द्वारा एक निश्चित प्रतिमान निर्मित होता है जो सामाजिक संगठन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। साथ ही सामाजिक संरचना समाज के बाहरी स्वरूप को व्यक्त करती है न कि आन्तरिक संगठन को।
सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना में अन्तर
(1) सामाजिक संरचना समाज के बाह्य स्वरूप का ही बोध कराती है, जबकि सामाजिक संगठन समाज की आन्तरिक प्रकृति को स्पष्ट करता है।
(2) सामाजिक संरचना एक अमूर्त धारणा है। सामाजिक संरचना का निर्माण करने, वाली इकाइयों जैसे संस्थाओं, एजेन्सियों, नियमों एवं सिद्धान्तों को नहीं देखा जा सकता है, जबकि सामाजिक संगठन अपेक्षतया मूर्त धारणा है। सामाजिक संगठन को स्थापित करने के लिए साधनों का सहारा लिया जाता है, उन्हें देखा जा सकता है।
(3) सामाजिक संरचना अपेक्षतया एक स्थिर अवधारणा है। इसमें परिवर्तन बहुत कम या नहीं होता है जबकि सामाजिक संगठन परिवर्तन का बोध कराता है, नवीन परिस्थितियों के साथ-साथ संगठन में भी परिवर्तन होते हैं।
(4) सामाजिक संरचना में इसकी विभिन्न इकाइयां एक प्रतिमान एवं क्रमबद्धता में बंधी होती है, जबकि संगठन में विभिन्न इकाइयों के प्रतिमान एवं क्रमबद्धता के स्थान पर उनकी पारस्परिक क्रियाओं पर अधिक जोर दिया जाता है।
(5) सामाजिक संरचना की अवधारणा सामाजिक संगठन की अपेक्षा अधिक व्यापक है। सामाजिक संरचना में सभी प्रकार की निर्मायक इकाइयों को सम्मिलित किया जाता है, जबकि सामाजिक संगठन में केवल उन्हीं बातों को जो संगठन को बनाये रखने में सहायक होती हैं।
(6) सामाजिक संरचना के निर्माण में स्थानीय विशेषताओं जैसे अर्थव्यवस्था, सामाजिक- सांस्कृतिक परम्पराओं, आदि का विशेष प्रभाव एवं महत्व होता है, जबकि सामाजिक संगठन को उपयोगी एवं प्रभावशाली बनाने के लिए अन्य संस्कृतियों की विशेषताओं का भी सहारा लिया जाता है।
(7) एक विशिष्ट समाज की सामाजिक संरचना एक विशेष प्रकार की होती है। यही कारण है कि विभिन्न समाजों की सामाजिक संरचना में अन्तर पाया जाता है। इसके विपरीत, सामाजिक संगठन के सामान्य आधारों में बहुत ही कम अन्तर होने से भी सामाजिक संगठनों के तत्वों जैसे संगठन के नियम, सिद्धान्त एवं संचार के साधनों में समानता पायी जाती है।
(8) सामाजिक संरचना का निर्माण विभिन्न अंगों एवं उप-अंगों से होता है, जैसे परिवार, अर्थव्यवस्था, शिक्षा-व्यवस्था, राज्य, चर्च, वर्ग, समूह एवं संस्थाओं से। ये सामाजिक संरचना के निर्मायक तत्व कहे जा सकते हैं, जबकि सामाजिक संगठन एक क्रियाशील व्यवस्था है जिसका नियमों, सिद्धान्तों एवं संचार के साधनों, आदि के द्वारा होता है।
इस प्रकार सामाजिक संगठन एवं सामाजिक संरचना दो भिन्न अवधारणाएं हैं फिर भी ये एक-दूसरे की पूरक व परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं । सामाजिक संरचना के अभाव में सामाजिक संगठन की कल्पना नहीं की जा सकती और सामाजिक संगठन के अभाव में सामाजिक संरचना का कोई पृथक् महत्व नहीं है।
सामान्यतः सामाजिक संगठन को स्वाभाविकता या सामान्य स्थिति और सामाजिक विघटन को अस्वाभाविकता या असामान्य स्थिति के रूप में देखा जाता है। एक संगठित समाज को स्वाभाविक और असंगठित समाज को अस्वाभाविक माना जाता है, यहां साथ ही स्वाभाविक स्थिति को नैतिक और अस्वाभाविक स्थिति को अनैतिक व अनुचित मान लिया जाता है। इस प्रकार का मूल्य निर्णय सामाजिक संगठन और विघटन की वास्तविक प्रकृति को समझने में बाधा उपस्थित करता है। इस सम्बन्ध में इलियट और मैरिल की मान्यता है कि सामाजिक संगठन को स्वाभाविक तथा सामाजिक विघटन को अस्वाभाविक मानना बहुत बड़ी भूल होगी। बहुत-सी गतिविधियों को नैतिक दृष्टि से अनुचित ठहराया जाता है, परन्तु केवल उन्हें अनैतिक कह देने मात्र से काम नहीं चलेगा। वास्तविकता को समझने के लिए उनके स्वाभाविक या प्राकृतिक स्वरूप को देखना होगा।
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