सामाजिक संगठन का अर्थ एवं परिभाषा
सामाजिक संगठन की अवधारणा (Concept) को समझने हेतु सर्वप्रथम संगठन के अर्थ को समझ लेना आवश्यक है। संगठन का तात्पर्य ऐसी संरचना से है जिसमें विभिन्न निर्मायाक इकाइयां (Constituent Parts) एक सूत्र में आबद्ध हों। जब किसी संरचना की निर्मायक इकाइयों प्रकार्यात्मक सम्बन्ध के आधार पर इस प्रकार सुव्यवस्थित हों कि उनसे मिलकर एक विशिष्ट रचना निर्मित हो तो इसे संगठन के नाम से पुकारते हैं। जब किसी समग्र की इकाइयां सुसम्बद्ध रीति से एकाकार हो जाती हैं तभी संगठन का जन्म होता है। इस स्थिति में प्रत्येक निर्मायक इकाई अपने-अपने इच्छित कार्यों को करती हुई समग्र की एकता को बनाये रखती हुई संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति में योग देती हैं। उदाहरण के रूप में, घड़ी को लिया जा सकता है। इसकी विभिन्न निर्मायक इकाइयां सुसम्बद्ध रीति से एक-दूसरे से इस प्रकार जुड़ी होती हैं कि वे सब मिलकर एक घड़ी का रूप प्रस्तुत करती हैं। सभी इकाइयां अपने-अपने नियत कार्यों को करती हुई घड़ी की समग्रता को बनाये रखते में योग देती हैं। इस अवस्था में घड़ी समय बताने के अपने उद्देश्य में सफल रहती है। यह अवस्था ही संगठन के नाम से जानी जाती है। यही बात समाज के संगठन के लिए सही है। जब समाज की विभिन्न निर्मायक इकाइयां क्रमबद्ध होकर एक निश्चित प्रतिमान प्रस्तुत करती हैं और जब उन इकाइयों में एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है, तभी संगठन का जन्म होता है। समाज की निर्मायक इकाइयों में परिवार, समूह, ग्राम, विवाह संस्था, आर्थिक एवं. सामाजिक संस्थाएं, आदि आते हैं। इन सबके सुसम्बद्ध रीति से जुड़े होने और अपने-अपने नियत कार्यों के करते रहने से ही समाज का संगठन बना रहता है।
सामाजिक संगठन को परिभाषित करते हुए इलियट और मैरिल ने लिखा है, “सामाजिक संगठन वह दशा या स्थिति है जिसमें एक समाज में विभिन्न संस्थाएं अपने मान्य अथवा पूर्वनिश्चित उद्देश्यों के अनुसार कार्य कर रही होती है । “
ऑगबर्न एवं निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, “एक संगठन विभिन्न अंगों जिनके अपने-अपने विविध कार्य हैं की एक सम्बद्धता है। किसी कार्य को कराने का यह एक प्रभावपूर्ण सामूहिक तरीका या साधन है।’ “
जेनसेन (Jensen) के अनुसार, “सामाजिक संगठन उन सब प्रक्रियाओं से मिलकर बना होता है जो सामूहिक जीवन का निर्माण करती हैं और उसे संकट और संघर्ष की स्थितियों का सामना करने में समर्थ बनाती हैं। “
जोन्स (Jones) के अनुसार, “सामाजिक संगठन वह व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज के विभिन्न अंग परस्पर ओर सम्पूर्ण समाज से एक अर्थपूर्ण तरीके से सम्बन्धित रहते हैं।”
समाजशास्त्रीय शब्दकोश में सामाजिक संगठन का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि “इसका तात्पर्य एक समाज का उन उप-समूहों के रूप में संगठन से है, विशेषतः वे जो आयु, लिंग, नातेदारी, व्यवसाय, निवास सम्पत्ति, विशेषाधिकार, सत्ता एवं पद की भिन्नताओं पर आधारित हैं।” स्पष्ट है कि जब विभिन्न आधारों पर निर्मित भिन्न-भिन्न समूह अपने-अपने कार्य करते हुए सामाजिक जीवन को संगठित बनाये रखने में योग देते हैं तो इस अवस्था को सामाजिक संगठन कहा जाता है।
उपर्युक्त सभी परिभाषाओं की व्याख्या के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक संगठन समाज व्यवस्था की वह सन्तुलित स्थिति है जिसमें समाज की विभिन्न इकाइयां क्रमबद्ध रूप से एक-दूसरे के साथ सम्बन्धित होकर बिना किसी बाधा के अपने मान्य या पूर्व-निर्धारित कार्यों को पूरा कर सकें जिसके फलस्वरूप सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। अन्य शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि सामाजिक संगठन का तात्पर्य एक संरचना की विभिन्न निर्मायक इकाइयों अथवा तत्वों की उस निश्चित प्रतिमानात्मक सम्बद्धता से है जो प्रकार्यात्मक सम्बन्ध के आधार पर उन इकाइयों को एकता के सूत्र में बांधती और उन्हें इस प्रकार क्रियाशील बनाती है कि संगठन के सामान्य उद्देश्यों की अधिकतम पूर्ति हो सके।
सामाजिक संगठन की विशेषताएं
(1) सामाजिक संगठन की आधारशिला के रूप में एकाधिक निर्मायक इकाइयों का होना आवश्यक है।
(2) इन निर्मायक इकाइयों में नियमबद्धता एंव क्रमबद्धता के होने से ही संगठन बनता है।
(3) इन निर्मायक इकाइयों में ऐसा क्रमबद्ध सहयोग पाया जाता है जिसके फलस्वरूप कोई निश्चित प्रतिमान प्रकट होता है।
(4) इन निर्मायक इकाइयों के बीच एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है जो इन्हें एक सूत्र में बांधता है।
(5) यद्यपि निर्मायक इकाइयां अनेक होती हैं, परन्तु इनमें पारस्परिक निर्भरता के आधार पर ऐसा प्रतिमान निर्मित होता है कि अनेकता से एकता उत्पन्न होती है।
(6) इन निर्मायक इकाइयों में से प्रत्येक की एक पूर्व-निश्चित स्थिति होती है जिसके अनुरूप वह अपना-अपना नियत कार्य करती रहती हैं।
(7) ये इकाइयां परस्पर निर्भर रहती हुई एक ऐसी सन्तुलित व्यवस्था के निर्माण में योग देती हैं, कि अधिकतम सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके।
(8) सामाजिक संगठन कोई स्थिर धारणा नहीं होकर एक सापेक्ष धारणा है। विभिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न अंशों में सामाजिक संगठन पाया जाता है। आज के तेजी से परिवर्तित होने वाले समाजों में पूर्ण सामाजिक संगठन की अवधारणा एक कल्पना मात्र है। इस दृष्टि से सामाजिक संगठन एक गतिशील धारणा है। एक समाज विशेष का सामाजिक संगठन उस समाज में होने वाले सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति एवं मात्रा पर निर्भर करता है। अन्य शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि सामाजिक संगठन में अनुकूलन का गुण पाया जाता है।
मॉवरर (Mowrer) ने लिखा है कि सामाजिक संगठन स्वयं ऐसी स्थिर व्यवस्था नहीं है जो एक बार स्थापित हो जाने पर कभी परिवर्तित नहीं होती हो। सामाजिक संगठन को बदलती हुई सामाजिक आवश्यकताओं एवं उद्देश्यों के साथ अनुकूलन करना पड़ता है। ऐसा करके ही वह उस सन्तुलित अवस्था को निर्मित कर पाता है जिसमें सामाजिक उद्देश्यों की अधिकतम पूर्ति हो सके।
सामाजिक संगठन के लक्षण या तत्व
(1) ऐकमत्य (Consensus) – ऐकमत्य और सामाजिक संगठन घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। समाज से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण मामलों पर सामान्य सामाजिक सहमति या समान विचारों एवं दृष्टिकोणों के अभाव में समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। ऐसा एक भी समाज नहीं मिलता जिसमें कुछ समान सामाजिक मूल्य, सामाजिक उद्देश्य और समाज विशेष के सदस्यों की कुछ सामान्य प्रत्याशाएं नहीं पायी जाती हों। समाज से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर अधिकांश सदस्यों के समान विचारों एवं दृष्टिकोणों के आधार पर उनमें सहयोग पनपता है जो सामूहिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए नितान्त आवश्यक है। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐकमत्य के अभाव में न तो कोई भी सामुदायिक कार्य सम्भव है और न ही समाज का अस्तित्व। इस बात को स्पष्ट करते हुए डी. टॉकीविले (D. Tocqueville) ने करीब सौ वर्ष पूर्व कहा था कि एक समाज का अस्तित्व केवल तभी बना रह सकता है जब अधिकांश व्यक्ति अधिकतर वस्तुओं के विषय में समान दृष्टिकोण से विचार करते हों, जब वे बहुत से विषयों पर समान मत रखते हों और जब एक ही प्रकार की घटनाएं उनके मस्तिष्क पर समान विचार एवं प्रभाव डालती हों। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि उस समय तक सामाजिक संगठन सम्भव नहीं है जब तक कि समाज से सम्बन्धित सामान्य विषयों पर अधिकतर लोगों के मतों में समानता न हो। ऐकमत्य समाज विशेष के अधिकतर सदस्यों द्वारा उनके सामान्य जीवन से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण मामलों पर समान रूप से अनुभव करने या साथ-साथ महसूस करने (Felling together) की एक प्रक्रिया है। ऐकमत्य सामाजिक जीवन की आन्तरिक एकता की अभिव्यक्ति है।
आज के गतिशील समाजों में ऐकमत्य की स्था में सन्देशवाहन के विभिन्न साधनों जैसे रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, पत्र-पत्रिकाओं, आदि का विशेष योग पाया जाता है। हमें यहां यह भी ध्यान में रखना है कि एक समाज में सामाजिक संगठन उसी मात्रा में पाया जाता है जिस मात्रा में उसके अधिकतर सदस्यों में सामान्य महत्व के विषयों पर ऐकमत्य पाया जाता है। आज के आधुनिक समाजों में व्यक्तिवादिता का विशेष जोर है। यह व्यक्तिवादिता ऐकमत्य के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती है और ऐकमत्य का अभाव सामाजिक संगठन की कमी, अथवा सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदायी है।
(2) सामाजिक नियन्त्रण (Social Control) – मानव की क्रियाओं को सुसंगत बनाने एवं स्थिरता प्रदान करने में सामाजिक नियन्त्रण के विभिन्न साधनों का विशेष योग रहा है। ये साधन सामाजिक संगठन को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन साधनों में जनरीतियों, रूढ़ियों, कानूनों एवं संस्थाओं का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है।
जनरीतियां (Folkways) – जनरितियां वैयक्तिक एवं सामूहिक आचरण को काफी अंशों में प्रभावित करती है। ये जनरीतियां समूह आदतों के प्रतिमान ही हैं। व्यवहार के ये आदतन स्वरूप एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किये जाते हैं और कालान्तर में इनके साथ निश्चित सामाजिक मूल्य जुड़ जाते हैं। व्यवहार के आदतन स्वरूप ही जनरीतियों के नाम से जाने जाते हैं। ये जनरीतियां ही आचरण की निर्णायक बन जाती हैं। इन्हीं के आधार पर यह निर्धारित होता है कि व्यक्ति को किस समय किस तरीके से काम करना है। अन्य शब्दों में, जनरीतियां कार्य करने के समाज द्वारा स्वीकृत तरीके हैं।
रूढ़िया (Mores)- रूढ़िया जनरीतियां ही हैं, परन्तु ये अधिक परिष्कृत रूप में पायी जाती हैं। तात्पर्य यह है कि जब जनरीतियों के साथ सामाजिक कल्याण का तत्व जुड़ जाता है और इन्हें समूह के हित के लिए महत्वपूर्ण मान लिया जाता है तो ये रूढ़ियों के नाम से जानी जाती हैं। रूढ़ियों के विपरीत आचरण करने वालों की निन्दा की जाती है। समूह विशेष का सम्मानित सदस्य बने रहने के लिए यह आवश्यक है कि वह रूढ़ियों के अनुरूप व्यवहार करता हरे। सभी समाजों में रूढ़ियां व्यक्तियों के व्यवहारों को कठोरता के साथ नियन्त्रित करती हैं।
कानून (Laws) – कानून रूढ़ियों के ही स्पष्ट रूप माने गये हैं। जब रूढ़ियों को राज्य की सत्ता का समर्थन प्राप्त हो जाता है तो वे कानून का रूप ग्रहण कर लेती हैं। इनका उल्लंघन करने वालों को राज्य द्वारा दण्डित किया जाता है। कानून विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखते हुए लोगों को मानवीय व्यवहार की ओर प्रेरित करता है। आज के तेजी से बदलते हुए समाजों में कानून के बिना संगठन की कल्पना करना सम्भव नहीं है। कोई भी कानून साधारणतः उसी समय प्रभावपूर्ण बन सकता है जब वह समाज की रूढ़ियों के अनुरूप हो अथवा उसमें रूढ़ियां समाहित हों।
संस्थाएं (Institutions) – संस्थाएं समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों का विशेष रूप से प्रतिनिधित्व करती हैं। आज गतिशील समाजों की संरचना में संस्थाएं महत्वपूर्ण इकाइयों के रूप में भूमिका निभाती हैं। समनर ने संस्था का अर्थ स्पष्ट करते हुए बताया है, “एक संख्या एक विचारधारा (विचार, मत, सिद्धान्त, या हित, और एक संरचना से मिलकर बनती है।” बोगार्डस के अनुसार, “सामाजिक संस्था समाज की एक संरचना होती है जो प्रमुखतः सुव्यवस्थित विधियों द्वारा मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित की जाती हैं।” सामाजिक संस्थाएं वे मान्यता प्राप्त एवं समाज द्वारा स्वीकृत कार्य प्रणालियां या व्यवहार की सामूहिक रीतियां हैं जिनके माध्यम से मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति होती है। संस्थाएं निश्चित परिस्थितियों में अपेक्षित व्यवहार की प्रणालियां हैं। संस्थाएं सामाजिक नियन्त्रण बनाये रखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्रमुख सामाजिक संस्थाओं में परिवार, विद्यालय, राज्य, आर्थिक, एवं धार्मिक संस्थाएं, आदि आते हैं। संस्थाओं के साथ बाध्यतामूलक तत्व जुड़ा होता है और इसी कारण ये व्यक्तियों के व्यवहारों को अधिक कठोरतापूर्वक नियन्त्रित करती हैं। संस्थाएं सामूहिक हित का प्रतिनिधित्व करती हैं। अतः इनके अनुरूप आचरण करना आवश्यक माना जाता है।
सामाजिक नियन्त्रण के उपर्युक्त साधनों में स्थिरता पर विशेष जोर दिया जाता है। सभी साधन सामाजिक संगठन को बनाये रखने में योग देते हैं। जनरीतियां, कानून और संस्थाएं व्यक्तियों पर नैतिक दबाव डालते हैं और उन्हें समाज द्वारा स्वीकृत प्रतिमानों के अनुरूप व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं। यदि व्यक्तियों एवं समूहों पर किसी प्रकार का कोई नियन्त्रण नहीं रहे और उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता दे दी जाय तो सम्भवतः वे अपने स्वार्थों की पूर्ति में इस प्रकार लग जायें कि मानव पुनः बर्बरता के स्तर पर पहुंच जाय। अतः उन्नत सामाजिक जीवन के लिए सामाजिक संगठन आवश्यक है और सामाजिक संगठन के लिये सामाजिक नियन्त्रण सामाजिक नियन्त्रण के कारण ही व्यक्तियों के व्यवहारों में एकरूपता या समानता पनपती है जो सामाजिक एकता को बढ़ावा देती है। यह सामाजिक एकता ही सामाजिक संगठन को बल प्रदान करती है।
(3) सुपरिभाषित सामाजिक संरचना (Well-defined Social Structure) – एक समाज की सामाजिक संरचना जितनी अधिक सुपरिभाषित और सन्तुलित होगी, वह समाज उतना ही अधिक संगठित होगा। सामाजिक संरचना विभिन्न प्रस्थितियों तथा भूमिकाओं से निर्मित होती है और यदि समाज में विभिन्न व्यक्तियों की प्रस्थितियां और भूमिकाएं निश्चित हैं, सुपरिभाषित हैं, उनमें सन्तुलन है तो यह कहा जायेगा की यहाँ सामाजिक संगठन की स्थिति बनी हुई है।
Important Links
- प्लेटो प्रथम साम्यवादी के रूप में (Plato As the First Communist ),
- प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ (Features of Plato’s Education System),
- प्लेटो: साम्यवाद का सिद्धान्त, अर्थ, विशेषताएँ, प्रकार तथा उद्देश्य,
- प्लेटो: जीवन परिचय | ( History of Plato) in Hindi
- प्लेटो पर सुकरात का प्रभाव( Influence of Socrates ) in Hindi
- प्लेटो की अवधारणा (Platonic Conception of Justice)- in Hindi
- प्लेटो (Plato): महत्त्वपूर्ण रचनाएँ तथा अध्ययन शैली और पद्धति in Hindi
- प्लेटो: समकालीन परिस्थितियाँ | (Contemporary Situations) in Hindi
- प्लेटो: आदर्श राज्य की विशेषताएँ (Features of Ideal State) in Hindi
- प्लेटो: न्याय का सिद्धान्त ( Theory of Justice )
- प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना | Criticism of Plato’s ideal state in Hindi
- प्लेटो के अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधियाँ, तथा क्षेत्र में योगदान
- प्रत्यक्ष प्रजातंत्र क्या है? प्रत्यक्ष प्रजातंत्र के साधन, गुण व दोष
- भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
- भारतीय संसद के कार्य (शक्तियाँ अथवा अधिकार)