प्राथमिक समूह किसे कहते हैं?
प्राथमिक समूह- कूले ने प्राथमिक समूहों को अपने समाजशस्त्रीय अध्ययन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण पाया है। उसने इन समूहों को प्राथमिक इसलिए कहा कि समय और महत्ता दोनों के आधार पर इनकी प्राथमिकता है। शैशव काल में तथा प्राथमिक बाल्यकाल में एक व्यक्ति केवल इस प्राथमिक समूहों का ही सदस्य रहता है इसलिए समूहों की अपेक्षा एक व्यक्ति के जीवन पर ये समूह पहले अपना प्रभाव डालते हैं। इनकी महत्ता सबसे अधिक इसलिए है कि मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास पर इनका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। बच्चों को श्रद्धा, न्याय, आकांक्षा, सहानुभूति आदि विभिन्न मानवीय गुणों को प्रदान करने वाले ये ही समूह हैं।
प्राथमिक समूह का अर्थ
सबसे पहले चार्ल्स कूले ने ‘प्राथमिक समूह’ शब्द का प्रयोग सन् 1909 में किया था। इस शब्द को प्रचारित करने का मुख्य उद्देश्य समाजशास्त्रीय साहित्य में इसलिए था कि इसके द्वारा इन समूहों का बोध कराना था जो बच्चों के व्यक्तित्व- निर्माण में तथा व्यक्ति को आन्तरिक सन्तोष प्रदान करने में आधार बनते हैं। उदाहरणार्थ, परिवार में सबसे पहले बच्चा जन्म लेता है। इस प्रकार यह परिवार ही उसके जीवन में ‘प्राथमिक’ क्योंकि परिवार का यह सबसे अधिक प्रभाव उस बच्चे के व्यक्तित्व के निर्माण में होता है।
चार्ल्स कूले ने ‘प्राथमिक समूह’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, “प्राथमिक समूहों से मेरा तात्पर्य उन समूहों से है जिसकी विशेषता होती है आमने-सामने का घनिष्ठ सम्बन्ध और सहयोग। इस प्रकार के समूह अनेक अर्थों में प्राथमिक है परन्तु मुख्यतः इस अर्थ में कि व्यक्ति के सामाजिक स्वभाव व आदर्शो के निर्माण में वे मौलिक हैं।” कूले ने आगे लिखा है कि प्राथमिक समूह वास्तव में आमने-सामने का समूह होता है, जिससे सदस्यों में अत्यधिक घनिष्ठ तथा सहयोगी सम्बन्ध, सहानुभूति तथा सद्भावना देखने को मिलती है। मूल्यों, उद्देश्यों तथा आदर्शों की समानता के कारण सदस्यों का व्यक्तित्व समूह के व्यक्तित्व में इस भाँति घुलमिल जाता है कि ‘मैं मैं’ का चक्कर समाप्त हो जाता है और एक पूर्णता – ‘हम’ का जन्म जाता है। इसी से सहानुभूति तथा पारस्परिक एकरूपता की भावना पनपती है। व्यक्ति सब लोगों की भावनाओं को दृष्टि में रखते हुए प्राथमिक समूह का सदस्य बना रहता है और उन्हीं भावनाओं में अपनी इच्छाओं के मुख्य उद्देश्यों को पूर्ण होता देखता है, अर्थात् वह प्राथमिक समूह के अन्य सदस्यों के सुख-दुःख मान लेता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्राथमिक समूह आपने-सामनेवाला सीमित सदस्यों का अत्यधिक घनिष्ठ सम्बन्ध वाला वह समूह है जिसके अन्तर्गत उद्देश्यों की समानता, सहानुभूति, सद्भावना एवं सहयोग प्रायः किया जाता है।
प्राथमिक समूहों के उदाहरण
श्री चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों के तीन उदाहरण दिये है।
1. परिवार – जीवन के आरम्भिक काल में परिवार व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण इकाई होता है।
2. क्रीड़ा-समूह– परिवार के बाद द्वितीय स्थान क्रीड़ा-समूह का है। यह समूह सर्वव्यापी है तथा व्यक्ति के विकास में आधारभूत 3. पड़ोस – यह भी एक प्राथमिक समूह है क्योंकि व्यक्तियों के व्यवहारों को नियन्त्रित करने तथा उसके सामूहिक जीवन में बाँधने में पड़ोस का महत्व प्राथमिक है।
प्राथमिक समूहों को प्राथमिक क्यों माना जाता है?
प्राथमिक समूह वह समूह है जिसमें प्राथमिक सम्बन्ध पाये जाते प्राथमिक सम्बन्ध का सबसे मुख्य तथा आवश्यक तत्व होता है- ‘घनिष्ठता’। उदाहरण के लिए परिपक्व मित्रण्डली, क्रीड़ा समूह, पड़ोस आदि ऐसे ही समूह हैं जिसके सदस्यों में घनिष्ठ सम्बन्ध पाये जाते हैं। इन सम्बन्ध को प्राथमिक समूह इसलिए कहा जाता है कि ये समय तथा महत्व दोनों की दृष्टि से प्रथम होते हैं। वह कैसे ? संयम की दृष्टि से इस प्रकार प्रथम होते हैं कि बालक जब इस व्यापक संसार में प्रवेश करता है तो सर्वप्रथम उसे इस समूहों में रहने के लिए बाध्य होना पड़ता है। जैसा कि हम देखते हैं कि बालक का कुछ समय तक परिवार सीमित संसार रहता है। धीरे-धीरे उसे पड़ोस, क्रीड़ा-समूह तथा मित्र मण्डली का सदस्य बनना पड़ता है। महत्व की दृष्टि से ये प्रथम इस दृष्टि से होते हैं कि बालक का समाजीकरण अर्थात् बालक के व्यक्तित्व का विकास इन्हीं समूहों में प्रारम्भ होता है, परिवार, क्रीड़ा समूह, पड़ोस, मित्र-मण्डली आदि ऐसे समूह हैं जिनके बीच बालक सामाजिक आचरण तथा विचार सीखता अपनी जन्मजात शक्तियों को विकसित तथा परिमार्जित करता है, आदि। वास्तव में व्यक्ति इन्हीं समूहों के प्रभाव का परिणाम होता है क्योंकि इन समूहों के बीच उसका विशेष तौर से शैशवावस्था और बाल्यावस्था बीतता है और अवस्थाएँ ही उसका भविष्य निश्चित करती है।
उपर्युक्त विश्लेषण एवं व्याख्या आधार पर अब और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है कि ये सब ‘प्राथमिक’ क्यों माने जाते हैं। उपरोक्त कारण ही इन समूहों को प्राथमिक मान लेने के लिए पर्याप्त हैं।
प्राथमिक समूह की विशेषताएँ
प्राथमिक समूहों की बाह्य विशेषताएँ
1. शारीरिक समीपता – जब तब किसी समूह के सदस्यों में शरीर की दूरी बनी रहेगी, तब तक उनमें घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित होने की सम्भावना नहीं रहती। जब समाज के कुछ व्यक्ति एक साथ उठते-बैठते हैं, खाते-पीते लड़ते-झगड़ते हैं, विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। तो उनमें स्वाभाविक गति से घनिष्ठ सम्बन्ध हो जाते हैं। अतः प्राथमिक समूह के लिए शारीरिक समीपता का होना एक आवश्यक परिस्थिति है।
2. आकार की लघुता – शारीरिक समीपता होने के साथ प्राथमिक समूह के निर्माण के लिए यह भी आवश्यक है कि समूह का आकार छोटा हो अर्थात् उसके सदस्यों की संख्या कम-से-कम हो। क्योंकि आकार जितना ही बड़ा होगा सम्बन्धों की घनिष्ठता का उतना ही अभाव रहेगा और आकार जितना ही लघु होगा सम्बन्धों की घनिष्ठता उतनी ही अधिक मिलेगी। एक वक्ता सैकड़ों व्यक्तियों के सामने जब भाषण देता है तब श्रोताओं में शारीरिक समीपता हो तो जाती है लेकिन आकार बड़ा होने के कारण घनिष्ठता स्थापित नहीं हो पाती। वह श्रोता समूह एक प्राथमिक समूह का निर्माण नहीं करता।
3. सम्बन्धों की निरन्तरता एवं स्थिरता– सम्बन्धों की घनिष्ठता तभी स्थापित हो पाती है जब निरन्तरता रहे। बार-बार मिलते-जुलते रहने, उठने-बैठने से सामाजिक सम्बन्धों में गम्भीरता आती जाती है। कभी-कभी तो ऐसा भी देखा गया है कि दो शत्रुओं में भी सम्बन्धों की निन्तरता से घनिष्ठता बढ़ जाती है। निरन्तरता या स्थिरता के अभाव में समूह के सदस्यों को ऐसा लगने लगता है। कि बिना इस समूह के वे जीवित नहीं रह सकेंगे। परिवार समूह में प्रत्येक सदस्य इस प्रकार की अनुभूति करता है कि वह इस समूह से अलग होकर जीवन व्यतीत नहीं कर पायेगा।
प्राथमिक समूहों की आन्तरिक विशेषताएँ
आन्तरिक परिस्थितियाँ प्राथमिक समूहों के निर्माण में तथा इनकी प्राथमिक को बनाये रखने में बहुत सीमा तक सहायक होती हैं। ये आन्तरिक परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं-
1. सम-उद्देश्य का होना- बाह्य परिस्थितियाँ शारीरिक समीपता तथा सम्बन्धों की स्थिरता के द्वारा सदस्यों के सम्बन्धों को इतना घनिष्ठ होने का अवसर प्रदान करती हैं कि समूह का एक सदस्य सम्पूर्ण समूह के उद्देश्य को अपना ही उद्देश्य समझता है। एक सदस्य के व्यक्तित्व का इतना अधिक एकीकरण (Fusion) प्राथमिक समूह में हो जाता है कि वह समूह के सुख- दुःख को अपना ही दुःख-सुख समझने लगता है।
2. सम्बन्ध साध्य होता है- एक प्राथमिक समूह में आदर्श प्राथमिक सम्बन्ध किसी उद्देश्य के साधन नहीं होते। एक ‘आदर्श मित्रता’ लाभ के लिए स्थापित नहीं होती है। यह ऐच्छिक होती है और स्वयं साध्य होती है। जब मित्रता आर्थिक लाभ के लिए होती है, तो इसका आदर्श समाप्त हो जाता है।
3. वैयक्तिक सम्बन्ध – प्राथमिक सम्बन्धों में व्यक्तिगत सम्बन्धों की स्थापना होती है। यदि मोहन की रामकृष्ण से मित्रता है तो उसके अभाव में मित्रता समाप्त हो जायेगी, पर द्वैतीयक सम्बन्धों में व्यक्तियों की कोई भी महत्ता नहीं होती। हम आज सुबह यदि रामलाल से अखबार लेते हैं, तो कुल श्यामलाल से लेने में कोई हिचक नहीं। हमारा ध्यान रामलाल या श्यामलाल पर नहीं अपितु अखबार में है, कोई भी हमें अखबार दे दे। पर मित्रता से या प्राथमिक सम्बन्धों में हमारा ध्यान व्यक्ति पर होता है। यदि वह व्यक्ति नहीं होता, तो सारी परिस्थिति बदल जाती है।
4. सर्वाङ्गीण सम्बन्ध – प्राथमिक समूह में प्रत्येक अपनी पूर्णता के साथ भाग लेता है। वह किसी विशेष उद्देश्य या कार्य के लिए प्राथमिक समूह नहीं होता। इसलिए प्राथमिक समूह के सदस्य एक-दूसरे के व्यक्तित्व को भली-भाँति जान जाते हैं और उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
5. स्वाभाविक सम्बन्ध – प्राथमिक समूह के सदस्यों के सम्बन्ध जबरदस्ती व अनिच्छापूर्वक स्थापित नहीं होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा से प्रसन्नतापूर्वक इन सम्बन्धों को स्थापित करता है। क्योंकि इन सम्बन्धों की स्थापना से ही उसके कार्य की पूर्ति होती है। इन सम्बन्धों की स्थापना में कोई शर्त या दबाव नहीं होता। वह जब चाहे तब इन सम्बन्धों को समाप्त कर सकता है।
6. प्राथमिक नियन्त्रण – एक समूह में मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व शामिल रहता है। और उसके सम्बन्धों में काफी घनिष्ठता रहती है। इसलिए प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखता है। परिवार में बच्चों को डाँट फटकाकर नियन्त्रण में रखा जाता है। यदि कोई व्यक्ति गाँव की सामान्य परम्पराओं के विरुद्ध कार्य करता है, तो उसके खिलाफ चक चक होने लगती है। और वह व्यक्ति रास्ते पर आ जाता है। इन नियन्त्रणों को प्राथमिक समूह के सदस्य अपनी इच्छा से स्वीकार करते हैं।
सामाजिक जीवन में प्राथमिक समूहों का महत्व
(क) व्यक्ति की दृष्टि से प्राथमिक समूह का महत्वः व्यक्तित्व का विकास
1. प्राथमिक समूह के सम्बन्ध इतने घनिष्ठ होते हैं कि समाज निरन्तर एक-दूसरे के व्यक्तित्व से प्रभावित होते रहते हैं। इस प्राथमिक समूह में व्यक्ति आचार-व्यवहार के तरीके सीखता है। इसी समूह में वह अपने व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास करता है तथा बाद में द्वैतीयक समूह में सफलतापूर्वक अनुकूलन करता है।
2. पारस्परिक प्रेम की भावना – प्राथमिक समूह में चूँकि एक व्यक्ति उद्देश्य को समूह के उद्देश्य से मिला देता है, इसलिए किसी प्रकार का मतभेद होने पर उसे प्रगट नहीं होने देता या पारस्परिक बातचीत से उसे दूर करने का प्रयत्न करता है। इसका परिणाम यह होता है। कि आपस में प्रेम की भावना सदा बनी रहती है।
3. कार्य-शक्ति में वृद्धि – प्राथमिकता से समूह के सदस्यों में कार्य करने की नयी स्फूर्ति पैदा होती रहती है। जब व्यक्ति एक दूसरे को आमने-सामने कार्य करते हुए देखते हैं तो उन्हें अपने कार्य को सुन्दर ढंग से तथा शीघ्रता से करने की प्रेरणा मिलती है। सदस्यों में सुस्ती या जी चुराने की भावना उदय नहीं हो पाती। सदस्य सोचने लग जाते हैं कि हम भी यदि दूसरों के समान कार्य नहीं करेंगे, उनसे अच्छा कार्य नहीं करेंगे तो दूसरे हमें क्या कहेंगे-इस प्रकार का दृष्टिकोण समूह की कार्य-शक्ति में वृद्धि करता है।
4. सुरक्षा की भावना – प्राथमिक समूह का व्यक्ति अपने को बहुत अधिक सुरक्षित पाता है। चूँकि प्राथमिक समूह में सम्बन्धों की घनिष्ठता पायी जाती है। इसलिए एक-दूसरे को बहुत ही निकट से जानता है। इसका लाभ यह होता है कि जब कभी भी किसी सदस्य को किसी कठिनाई का सामना करना पड़ जाता है, दूसरे सदस्य अविलम्ब उसकी सहायता के लिए दौड़े। चले आते हैं। इस प्रकार समूह के सदस्यों को जीवन में विषमता का समानता नहीं करना पड़ता। उसमें सुरक्षा की भावना बनी रहती है जो पारस्परिक सहानुभूति को जन्म देती है।
(ख) समाज की दृष्टि से प्राथमिक समूह का महत्व – व्यक्ति की दृष्टि की भाँति समाज की दृष्टि से भी समूह का बहुत महत्व होता है। वह कैसे? हम देखते हैं कि प्राथमिक समूह का सबसे पहले जन्म होता है, इसके सदस्यों में अत्यधिक घनिष्ठता पायी जाती है, यह परिवार समाज की इकाई तथा प्राथमिक पाठशाला है। इसके सदस्य परस्पर प्रेम के सूत्र में बँधे रहते हैं अतः यह विचार नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में समाज जो इन प्राथमिक ईकाइयों से निर्मित होता है, विघटित नहीं हो पाता है। यही कारण है कि प्राथमिक समूहों में अधिक दृढ़ता होती है, समाज भी उतना ही अधिक दृढ़ रहता है। इसीलिए भारतीय सरकार प्राथमिक समूहों को दृढ़ बनाने का प्रयास कर रही है। इस प्रकार समाज संगठित रूप से अनवरत चलते रहने के लिये प्राथमिक समूह का अत्यन्त महत्व है।
Important Links
- प्लेटो प्रथम साम्यवादी के रूप में (Plato As the First Communist ),
- प्लेटो की शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ (Features of Plato’s Education System),
- प्लेटो: साम्यवाद का सिद्धान्त, अर्थ, विशेषताएँ, प्रकार तथा उद्देश्य,
- प्लेटो: जीवन परिचय | ( History of Plato) in Hindi
- प्लेटो पर सुकरात का प्रभाव( Influence of Socrates ) in Hindi
- प्लेटो की अवधारणा (Platonic Conception of Justice)- in Hindi
- प्लेटो (Plato): महत्त्वपूर्ण रचनाएँ तथा अध्ययन शैली और पद्धति in Hindi
- प्लेटो: समकालीन परिस्थितियाँ | (Contemporary Situations) in Hindi
- प्लेटो: आदर्श राज्य की विशेषताएँ (Features of Ideal State) in Hindi
- प्लेटो: न्याय का सिद्धान्त ( Theory of Justice )
- प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना | Criticism of Plato’s ideal state in Hindi
- प्लेटो के अनुसार शिक्षा का अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, विधियाँ, तथा क्षेत्र में योगदान
- प्रत्यक्ष प्रजातंत्र क्या है? प्रत्यक्ष प्रजातंत्र के साधन, गुण व दोष
- भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
- भारतीय संसद के कार्य (शक्तियाँ अथवा अधिकार)