राजनीति विज्ञान / Political Science

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त | Aristotle’s Views on Slavery in Hindi

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त
अरस्तू का दासता का सिद्धान्त

अनुक्रम (Contents)

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त (Theory of Slavery)

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त – अरस्तू के अनुसार दास-प्रथा नगर-राज्यों के सम्पूर्ण विकास के अति आवश्यक है। यूनानी जगत् में यह प्रथा होमर के समय से ही प्रचलित थी। ग्रीक सभ्यता के विकास में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। दास को तत्कालीन यूनानी समाज का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। दास की तत्कालीन यूनानी समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था जो कुलीनवर्ग के लिए जी-तोड़ परिश्रम करता था। इस वर्ग में दरिद्ध व्यक्ति या युद्ध बन्दी सैनिक शामिल होते थे। दासों की विशाल सेना को राष्ट्रीय सम्पत्ति माना जाता था। यूनान में यह प्रथा रोमन साम्राज्य की तरह अमानवीय नहीं थी, एक सामाजिक बुराई अवश्य थी। इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध सोफिस्ट विद्वानों ने सर्वप्रथम यूनान में आवाज उठाई। सोफिस्टों ने कहा कि “मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है।” (Man is born free) | सभी मानव समान होते हैं और इसलिए समाज से दास प्रथा का बहिष्कार किया जाना चाहिए। लेकिन अरस्तू जैसे विद्वानों ने सोफिसट विचारकों का विरोध करते हुए इसे ग्रीक सम्यता की उन्नति के लिए अति आवश्यक बताया। अरस्तू ने यह अनुभव किया कि दास प्रथा के बिना नगर-राज्यों का सम्पूर्ण आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन ही नष्ट हो जाएगा, इसलिए उसने इसका बौद्धिक और व्यावहारिक स्तर पर औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया। उसने इसे स्वाभाविक, उपयोगी व समयानुकूल बताकर उचित ठहराया। यदि वह ऐसा नहीं करता तो यूनानी सभ्यता का आधार-स्तम्भ समाप्त हो जाता।

दास कौन है? (Who is a Slave?)

अरस्तू ने अपनी पुस्तक ‘पोलिटिक्स’ में दासता सम्बन्धी विचार प्रकट करते हुए दास को पारिवारिक सम्पत्ति का एक हिस्सा माना है। अरस्तू के अनुसार राज्य गृहस्थियों के संयोग से बनता है। अतः दास प्रथा को समझने के लिए गृहस्थी के प्रबन्ध को समझना चाहिए। अरस्तू के अनुसार गृहस्थी की व्यवस्था के लिए दो उपकरण आवश्यक होते हैं- (i) सजीव (Animate) (ii) निर्जीव (Inanimate)| घोड़ा-कुत्ता तथा अन्य पशु व दास सजीव उपकरण हैं तथा अचल सम्पत्ति निर्जीव उपकरण है। इस तरह परिवार की सम्पत्ति का अनिवार्य अंग होने के नाते दासता अनिवार्य है।

दास कौन है, इस सम्बन्ध में अरस्तू का कहना है कि- जो व्यक्ति प्रकृति से अपना नहीं अपितु दूसरे का है, लेकिन फिर भी आदमी है, वह प्रकृति से दास है। अरस्तू का मानना है कि- “दास अपनी प्रकृति से एक सम्पत्ति है और एक सम्पत्ति के रूप में होने के कारण दास का स्वयं पर अपना कोई अधिकार भी नहीं होता है। उनका तर्क है कि कोई भी सम्पत्ति स्वयं की स्वामी नहीं होती, अपितु प्रत्येक सम्पत्ति को सदैव ही किसी स्वामी की आवश्यकता होती है। वस्तुत: स्वामी के अभाव में सम्पत्ति से अलग अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। किन्तु इससे भिन्न स्थिति स्वामी की होती है। स्वामी की सम्पत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है। वस्तुतः सम्पत्ति का अस्तित्व ही स्वामी के लिए होता है और एक सम्पत्ति के रूप में दास का अस्तित्व भी मात्र स्वामी के लिए होता है।” अरस्तू के अनुसार “स्वामी अपने दास का स्वामी तो होता है, पर वह उसी का नहीं होता। इसके विपरीत दास न केवल अपने स्वामी का वास होता है बल्कि पूरा का पूरा उसी का होता है। यहीं से पता चलता है कि दास का स्वरूप क्या है। जो प्रकृति से ही अपना नहीं बल्कि किसी और का है, वह प्रकृति से दास है और जो मनुष्य होते हुए भी किसी और का है, वह भी सम्पत्ति है। अतः सम्पत्ति को कार्य सम्पादन का उपकरण कह सकते हैं जिसका अपने स्वामी से अलग अस्तित्व हो सकता है।”

अरस्तु ने दास को एक सजीव सम्पत्ति मानते हुए उसे पशुओं से श्रेष्ठ बताया है। दास स्वामी के विवेक व दर्शन की थोड़ी सी झलक पा लेने की समझदारी रखता है। इसलिए दास के साथ सौम्यता का प्रहार किया जाना चाहिए। अरस्तू लिखता है- “जो दूसरे का गुण है, जिसके पास विवेक नहीं परन्तु विवेक को समझने में हिस्सा लेता है, वह प्रकृतिवश दास है। इस आधार पर वह पशुओं से अच्छा है कि पशु अपनी मूल प्रवृत्तियों के अनुसार कार्य करते हैं, जबकि दास विवेक को समझ सकता है और अपने स्वामी की इच्छानुसार कार्य करता है। इस प्रकार अरस्तू की दासता सम्बन्धी परिभाषा में तीन मुख्य बाते हैं :-

  1. जो व्यक्ति अपनी प्रकृति से अपना नहीं, बल्कि किसी दूसरे का है, फिर भी मनुष्य है, दास है।
  2. यह मनुष्य होते भी सम्पत्ति की एक वस्तु है और दूसरे के अधीन रहता है, दास है।
  3. वह सम्पत्ति की वस्तु, जो कार्य का उपकरण है और जिसे सम्पत्ति के स्वामी से पथक किया जा सकता है, दास है।

दसता के पक्ष में अरस्तू के विचार (Aristotle’s Defence of Slavery)

अरस्तू ने दास प्रथा का समर्थन निम्न आधारों पर किया है :-

1. दासता स्वाभाविक है (Slavery is Natural) :

अरस्तू ने सोफिस्टों का खण्डन करते हुए दासता को स्वाभाविक माना है। सोफिस्टों का मानना था कि सभी मनुष्य समान व स्वतन्त्र हैं। अरस्तू ने कहा कि दास प्रकृति की देन है। कुछ व्यक्ति प्रकृति से ही दास होते हैं। अरस्तू का कहना है कि कुछ व्यक्ति शासन करने के लिए पैदा होते हैं, जबकि कुछ शासित होने के लिए। प्रकृति जिन व्यक्तियों को वियेक देती है वे शासक होते हैं और जिनको केवल शारीरिक शक्ति देती है और जिनमें दूसरों के विवेक को समझने का गुण होता है, वे शासित होते हैं। अरस्तू प्रकृति के नियम के अनुसार मानता है कि श्रेष्ठ सदा निकृष्ट पर शासन करता है। प्रथम श्रेणी के श्रेष्ठ व्यक्ति स्वामी होते हैं और निकृष्ट व्यक्ति दास होते हैं। यह प्रकृति । नियम है कि- “श्रेष्ठतर निम्नतर पर शासन करे।” स्वामी दासों से श्रेष्ठ होते हैं, इसलिए उनका दासों पर नियन्त्रण स्थापित होना चाहिए। मनुष्यों की बुद्धि, गुण, योग्यता व मानसिक शक्तियों में अन्तर होता है। प्रकृति ने सभी को समान नहीं बनाया है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु का अपना कार्य है क्योंकि प्रकृति ने प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु को ऐसे गुण प्रदान किए हैं जो उस कार्य को पूरा कर सके। दास शारीरिक श्रम करने तथा अपने स्वामी की दासता करने के योग्य है। दासता प्रकृति के नियमों पर आधारित होने के कारण स्वाभाविक है।

2. वामता स्वामी के लिए लाभदायक है (Slavery is Useful for the Master) :

अरस्तू का मानना है कि स्वामी का कार्यक्षेत्र नगर-राज्य की राजनीति है। नगर के राजकार्यों में भाग लेकर स्वामी अपना नैतिक उत्थान करता है। इस कार्य के लिए स्वामी को अवकाश चाहिए। यह अवकाश तभी सम्भव है, जब दास उसके लिए घर के कार्यों को करे। यहाँ अवकाश से अरस्तू का तात्पर्य अकर्मण्यता से न होकर एक विशेष प्रकार की क्रियाशीलता से है। अरस्तू के अनुसार अवकाश का अर्थ तन कार्यों से है जिनको सम्पादित कर मनुष्य अपने सद्गुणों का विकास कर सकता है। इस अवकाश का प्रयोग स्वामी नागरिक जीवन का भागीदार बनकर अपने बौद्धिक और नैतिक जीवन के विकास के लिए करता है। आर्थिक और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किए गए कार्य अवकाश में शामिल नहीं हैं। इसके अन्तर्गत शासन करना, सार्वजनिक सेवा करना, धार्मिक कार्यों में भाग लेना, नागरिकों के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना आदि कार्य शामिल हैं। अरस्तू के अनुसार इन कार्यों के लिए व्यक्ति के पास फुर्सत का होना आवश्यक है। इन कार्यों को करने से ही व्यक्ति नागरिक बनता है। अरस्तू ने नागरिकता के लिए अवकाश को अनिवार्य माना है और अवकाश के लिए दास को। अरस्तू का मानना है कि यदि दास नहीं होंगे तो स्वामियों को सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने के लिए अवकाश नहीं मिलेगा और वे श्रेष्ठ गुणों का विकास भी नहीं कर सकेंगे। अतः दासता स्वामी के लिए अति आवश्यक है।

3. दासता दास के लिए लाभदायक है (Slavery is Useful for the Slave) :

दास-प्रथा स्वामियों की तरह दासों के स्वयं के लिए भी लाभकारी है। दासों में तृष्णा अधिक होने के कारण नैतिक गुणों का अभाव रहता है। इसके विपरीत स्वामी यौद्धिक स्तर पर श्रेष्ठ होते हैं। दास बुद्धि व कौशल से हीन होने के कारण स्वभागानुसार सद्गुण प्राप्त करने में सक्षम नहीं होते हैं। दास अपने स्वामी के साथ रहते हुए उन सभी गुणे को सीख सकता है जो प्रकृति ने उसे नहीं दिए हैं। जिस प्रकार घर में रहकर पशु भी अनुशासित रहना सीख जाता है तो दास के लिए यह काम मुश्किल नहीं है क्योंकि दास में मालिक के विवेक की एक झलक पाने की योग्यता होती है। अरस्तू ने कहा है कि जिस प्रकार शरीर आत्मा के नियन्त्रण में रह कर, नारी पुरुष के नियन्त्रण में रहकर, पशु मनुष्य के नियन्त्रण में रहकर भलाई का गुण सीख लेता है, उसी प्रकार स्वामी की देख रेख में ही दास का कल्याण सम्भव है। इस प्रकार दासता लाभकारी व न्यायसंगत दोनों है।

4. वासता समाज के लिए उपयोगी है (Slavery is useful for the Society) :

दासता के कारण स्वामी को समाज कल्याण के कार्यों के लिए कुछ अवकाश प्राप्त हो जाता है। नाटकों और धार्मिक कार्यों में भाग लेना, सार्वजनिक सेवा कार्य करना, नागरिकों के साथ सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना आदि कार्यों के लिए दास की आवश्यकता है। यदि स्वामी के पास समय नहीं होगा तो वह सामाजिक कार्यों में भाग नहीं ले सकेगा और उसका समाज उपयोगी कार्यों में योगदान का स्वप्न पूरा नहीं होगा। इस प्रकार दास-प्रथा से कुछ श्रेष्ठ व्यक्तियों को घरेलू धन्धों से मुक्ति मिल जाती है और वे निश्चिन्त होकर अपना सारा समय समाज हित के कार्यों में लगा सकते हैं। अतः दास-प्रथा समाज के लिए भी उपयोगी है।

5. दासता नैतिक है (Slavery is Moral) :

अरस्तू ने अपने सिद्धान्त में दासता को नैतिक रूप दिया है। वह दासता को आत्मिक मानता है क्योंकि आत्मा शरीर के ऊपर प्रशासन कर इस आत्मिक उद्देश्य को पूरा करती है। शरीर का इस प्रकार आत्मिक विकास होता है। अरस्तू इसी प्रकार यह मानते हैं कि स्वामी के निर्देशन में रहकर उसके कार्यों को करते रहने से ही दास की नैतिकता का विकास होता है। दूसरी ओर स्वामी को भी घरेलू कार्यों से निश्चिन्तता प्राप्त हो जाने पर वह भी अपनी आत्मिक उन्नति कर सकता है। इस प्रकार दासता नैतिक उन्नति का उपाय है।

6. वास शरीर की बनावट से ही स्वतन्त्र लोगों से भिन्न होता है (Slave Differes from Freeman Even in his Bodily Constitution) :

अरस्तू के अनुसार दास को शरीर की बनावट से ही पहचाना जा सकता है। वह तो शारीरिक श्रम के लिए ही होता है। उसके शरीर और स्वतन्त्र व्यक्ति के शरीर में प्रायः वैसा ही अन्तर होता है जैसा देवता की मूर्ति और मनुष्य के शरीर में और जब शरीर में ही इतना अन्तर होता है तो आत्मा में भी अन्तर होता ही होगा। यद्यपि आत्मा का अन्तर स्पष्ट तौर पर दिखाई नहीं देता जितना शरीर का अन्तर दिखाई देता है। प्रकृति दास के शरीर को स्वामी के सेवा कार्यों के लिए बलवान बनाती है, जबकि स्वामी के शरीर को सरल व सीधा बनाती है। इस प्रकार असाधारण शरीर वाले को दास मान लेना न्यायपूर्ण ही है।

7. दास अपने स्वामी का ही अंग है (Slave is a Part of His Master) :

अरस्तू के विचारों में दास का शरीर अपने स्वामी से अलग अवश्य है, लेकिन फिर भी वह उसका अंग है। इसलिए दास की परवाह व रक्षा भी स्वामी को उसी प्रकार करनी चाहिए, जिस प्रकार यह अपने शरीर के अंर्गो की जो उसके शरीर के अभिन्न अंग हैं। दोनों के हितों में बहुत अधिक एकता और सामंजस्य है। इसलिए दोनों की स्थिति बिलकुल प्राकृतिक ओर आंगिक है। अरस्तू के अनुसार- “एक दास से सत्ता की स्थिति में मित्रता का सम्बन्ध तो नहीं हो सकता क्योंकि स्वामी और दास में मित्रता का कोई तुक नहीं है, पर दास की मानव है यदि ऐसा मान लिया जाए तो उससे मित्रता सम्भव है।” अरस्तु के अनुसार दास स्वामी का एक ऐसा सजीव अंग है जो स्वामीरूपी शरीर से पथक रहता है, फिर भी दास का अस्तित्व स्वामी पर निर्भर है। अत: दास अपने स्वामी का ही अंग है।

दासता के प्रकार (Kinds of Slavery)

अरस्तू ने दासता के दो प्रकार बताएँ हैं :-

(i) प्राकृतिक दासता (Natural Slavery)

(ii) वैधानिक दासता (Legal Slavery)

जो व्यक्त्ति जन्म से ही मन्दबुद्धि, अकुशल एवं अयोग्य होते हैं वे प्राकृतिक या स्वाभाविक दास होते हैं। ये व्यक्त्ति प्रकृति द्वारा ही शासित होने के लिए बनाए जाते हैं। प्रकृति की स्वाभाविक व्यवस्था दासता है। प्रकृति में सर्वत्र असमानता है। उत्कृष्ट स्वभावतः निकृष्ट पर शासन करता है, अपने स्वभाव के अनुकूल सबका अपना विशिष्ट कार्य होता है, अतः दासता प्राकृतिक होती है। इस प्रकार की दासता को अरस्तू सबसे अधिक महत्त्व देता है। इसके अतिरिक्त युद्धबन्दी भी दास बनाए जा सकते हैं। यह दासता वैधानिक दासता कहलाती है। प्राचीन काल में युद्धबन्दियों को दास बनाने की कुप्रथा प्रचलित थी। इस दासता का आधार शक्ति होती । यह युद्ध का प्रतिफलन है। युद्ध में हार जाने पर किसी भी व्यक्ति को दास बनाया जा सकता है। परन्तु अरस्तू के अनुसार यूनानियों को युद्ध में हार जाने पर भी दास भी नहीं बनाया जा सकता। अरस्तु का मानना है कि युद्ध में जीतने वाला शक्तिशाली तो हो सकता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह न्यायी भी हो। युद्ध का कारण भी अन्यायपूर्ण हो सकता है। इसलिए यूनानी लोगों को बन्दी बनाकर दास नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वे सर्वश्रेष्ठ जाति के लोग हैं। इस प्रकार अरस्तू ने यूनानियों के लिए कानूनी दासता को अनुचित व निकृष्ट माना है। यह बर्बर जातियों के लिए ही उचित एवं न्यायसंगत है।

उपर्युक्त दासता के दोनों प्रकारों में अन्तर बताते हुए आर. के. मिश्रा ने कहा है- “स्वाभाविक दासता का आधार मानसिक और आध्यात्मिक गुण है, जबकि वैधानिक दासता का आधार श्रेष्ठ शक्ति या विजय है। प्राकृतिक दासता स्वाभाविक है, कानूनी दासता परम्परागत है। कानूनी दासता का आधार शक्ति है, प्राकृतिक दासता का आधार गुण है। कानूनी दासता युद्ध का प्रतिफल है, प्राकृतिक दासता मानव-स्वभाव का। प्राकृतिक दासता आन्तरिक है, कानूनी दासता बाह्य है। इस प्रकार दोनों दासताओं में दिन-रात का अन्तर है। दास-प्रथा में सुधार के लिए सूत्र अरस्तू ने दास-प्रथा का समर्थन जरूर किया है, परन्तु वह दासों के प्रति किसी भी अमानवीय व्यवहार की निन्दा करता है। बार्कर के अनुसार- “अरस्तु ने अपनी वसीयत में लिखा था कि किसी भी दास को बेचा न जाए, उन्हें मुक्त दिया जाए।” उसने दासों के प्रति कुछ मानवीय व्यवहार के शत्रु बताएँ हैं ताकि उन्हें समाज की अविरल धारा से जोड़ा रखा जाए। अरस्तू ने दासों के प्रति किए जाने वाले मानवीय व्यवहार के लिए निम्नलिखित सूत्र बताता है :-

1 स्वामी का कर्तव्य है कि वह दास की भौतिक एवं शारीरिक सुविधाओं का ध्यान रखे।
2. अपनी मृत्यु के समय स्वामी को अपने दासों को मुक्त कर देना चाहिए।
3. दासों को उनकी कार्यक्षमता के अनुसार कार्य देना चाहिए।
4. स्वामी को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दासों की संख्या सीमित रहे।
5. दासों के प्रति अमानवीय व्यवहार करने वाले स्वामी को राज्य द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए।

यूनानी नागरिकों को दास नहीं बनाना चाहिए। दासता वंशानुगत नहीं होती। यदि दास का पुत्र बुद्धिमान व योग्य है तो उसे दासता से मुक्त कर देना चाहिए। स्वामी को दास को अपने शरीर का अंग समझकर अच्छा व्यवहार करना चाहिए। स्वामी को वचनबद्ध होना चाहिए कि यदि दास अच्छे कार्य करता है तो उसे मुक्त कर दिया जाएगा।

आलोचना (Criticism)

अरस्तू के दासता सम्बन्धी विचार अप्राकृतिक व अनुचित से लगते हैं। दास-प्रथा को आवश्यक मानना, वर्तमान मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल लगता है। आलोचकों ने अरस्तू के सम्पूर्ण दर्शन में उसके दासता विषयक विचारों को ही त्यागने योगय बताया है। आलोचकों के अनुसार अरस्तू के दासता सम्बन्धी विचार अविश्वसनीय, अप्राकृतिक, अमानवीय, संकीर्ण एवं क्रूर हैं। ये विचार न तो तर्कसंगत हैं, न वैज्ञानिक, न परोपकारी और न ही कल्याणकारी। वह एक दार्शनिक की तरह विचारन करके एक यूनानी की तरह व्यवहार करता है। उसने जातीय श्रेष्ठता में विश्वास व्यक्त करते हुए किसी भी यूनानी को दास बनाने के विचार का विरोध किया है। उसके दासता विषयक विचारों की आलोचना के निम्न आधर हैं :-

1. दास-प्रथा अप्राकृतिक है (Slavery is not Natural) :

दास-प्रथा किसी भी तरह प्राकृतिक नहीं है। मनुष्य में विभिन्नता तथा कुशाग्र बुद्धि के आधार पर अन्तर होते हुए भी एक प्राकृतिक समानता होती है जिसकी आलोचना करना मानव व्यक्तित्व का अपमान है। अरस्तू ने अपनी पुस्तक ‘Politics में दास प्रथा का वर्णन किया है। इस वर्णन को देखकर मैक्सी कहता है- “इस पुस्तक को भी अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए।” अतः दास-प्रथा प्राकृतिक नहीं मानी जा सकती।

2. विरोधाभास (Contradiction) :

अरस्तू के दासता सम्बन्धी विचार विरोधाभासों से भरपूर हैं। एक ओर तो अरस्तू दास को विवेकशून्य मानते हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि दास सीमित रूप में स्वामी के विवेक को समझ सकता है, इसलिए वह पशुओं से श्रेष्ठ है। एक तरफ तो वह दासता को प्राकृतिक मानता है, तो दूसरी तरफ वह दासता से मुक्ति की बात कहता है। वह यह बताने में असफल रहता है कि जब प्रकृति ने मनुष्य को दास बना दिया है तो उसकी मुक्ति कैसे सम्भव है। अरस्तू का दास को एक साथ पशु और स्वामी के साथ मित्र और हिस्सेदार बनाना युक्तिसंगत नहीं है। श्रेष्ठता और निकृष्टता में साँझेदारी असम्भव है। अतः अरस्तू का सिद्धान्त अनेक विरोधाभासों से भरा हुआ है।

3. समाज में संघर्ष और अशान्ति की सम्भावना (Possibility of Struggle and Disharmonry in Society) :

आलोचकों का मानना है कि समाज का बुद्धिमानों और बुद्धिहीनों के आधार पर स्वामी और दास, शासक व शासित में विभाजन खतरनाक सिद्ध होगा। इससे समाज में असन्तोष, अशान्ति और अराजकता को बढ़ावा मिलेगा।सिद्धान्त 

4. अरस्तू का दासता का सिद्धान्त उसके सोद्देश्यता के सिद्धान्त का विरोधी है (Aristotle’s Theory of Slavery is Against Hs Theory of Teleology) :

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त उसके सोद्देश्यता के सिद्धान्त से मेल नहीं खाता, इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को जीवन का लक्ष्य श्रेष्ठ जीगन की प्राप्ति है। अच्छाई को प्राप्त करने की क्षमता मानव स्वभाव में छिपी हुई है। दासता की बेड़ियों में जकड़ा जाने पर व्यक्ति अपनी अन्तर्निहित क्षमता का विकास नहीं कर पाता, इसलिए दासता अप्राकृतिक है। प्रकृति और सोद्देश्यता एक दूसरे की सहयोगी है, विरोधी नहीं। अरस्तू ने लोगों को दास बनाकर यह सिद्ध कर दिया है कि लोगों के जीवन का लक्ष्य श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति न होकर, पशुतुल्य जीवन व्यतीत करना है। अतः अरस्तू अपने ही सोद्देश्यता के सिद्धान्त के विरुद्ध काम करता है। इसलिए उसका दासता का सिद्धान्त अतार्किक और असंगत है।

5. अवैज्ञानिक (Unscientific) :

अरस्तू इस बात को मानता है कि कुछ व्यक्ति जन्म से ही मूर्ख व मूढ होते हैं, परन्तु इस वैज्ञानिक तथ्य को भूल जाता है कि अच्छे वातावरण, उचित दशाओं तथा उचित शिक्षा या अन्य साधनों को प्राप्त करने पर चै बुद्धिमानी हो जाते हैं। ऐसा कोई भी सिद्धान्त जो मनुष्य को पशुतुल्य मानता हो, वैज्ञानिक कभी नहीं हो सकता।

6. वह नैतिकता के सभी सिद्धान्तों के विरुद्ध है (Against Total Moral Values) :

एक मनुष्य के द्वारा दूसरे मनुष्य को दास बनाया जाना एक जघन्य व घृणास्पद विचार है। अरस्तू ने इस विचार का प्रतिपादन करके घोर अनैतिकता का पक्ष लिया है। समाज में ऐसा कोई भी कार्य जो सामाजिक मानदण्डों के विरुद्ध हो, नैतिक नहीं हो सकता। यह मानवता की दृष्टि से घोर अपराध है जो नैतिकता की बलि दे देता है।

7. समुचित अवकाश सभी को मिलना चाहिए (Everyone Needs Liesure) :

अरस्तू ने दास प्रथा के समर्थन में यह भी तकं प्रस्तुत किया है कि श्रेष्ठ व्यक्तियों को अपने सार्वजनिक जीवन के लिए अवकाश की आवश्यकता होती है। परन्तु ऐसा अवकाश सभी वर्गों को प्राप्त होना चाहिए ताकि सभी वर्गों में व्यक्ति अपना बौद्धिक विकास करने, राजनीतिक व सामाजिक क्रियाकलापों में भाग लेने तथा कला व साहित्य का आनन्द उठाने का अवसर प्राप्त कर सकें। केवल किसी वर्ग विशेष को यह अधिकार देना सामाजिक विषमता को जन्म देता है।

8. अनुचित एवं अन्यायपूर्ण (Unjust) :

मानव-जाति को शासक और शासित में बाँटना अनुचित है। प्रो. रास ने कहा है- “मानव जाति को कुल्हाड़े के साथ दो भागों में काट डालना अनुचित है। इससे भी अधिक अनुचित यह है कि अरस्तू दास को ‘पशु’ और ‘कार्य’ को उपकरण मानता है।” अरस्तू के विचार का पक्ष यह है कि वह मानव को पशु का दर्जा दे देता है। यह अनुचित ही नहीं, अन्यायपूर्ण भी है। दास को स्वामी की इच्छापूर्ति का साधन मानना घोर अन्याय है।

9. पास पारिवारिक सम्पत्ति नहीं (Slave is not a Family Property) :

दास को सजीव सम्पत्ति मानना मानवीय दृष्टि से अनुचित है। दास की पशु से तुलना करना और मानवीय अपराध है। अतः दास परिवार की सम्पत्ति नहीं हो सकता।

10. शारीरिक श्रम की उपेक्षा (Neglects Physical Works) :

अरस्तू ने दासता के विवेचन में शरीर के काम करने वाले सभी श्रमिकों को दास की संज्ञा दी है। परन्तु यह दृष्टिकोण असन्तोषजनक है। शरीर से काम करने वाले यूनानी नागरिकों में भी होंगे जय अरस्तु यूनानी नागरिकों को दास नहीं बनाना चाहता। अरस्तू द्वारा शारीरिक कार्य करने वाले सभी लोगों को दास बनाना शारीरिक श्रम की उपेक्षा करता है, जो अनुचित है। मैकलवेन ने ठीक ही कहा है- “अरस्तु श्रम करने वाले को दण्डित करता है।”

11. मानव-समूह का विभाजन सम्भव नहीं (The Separation of Human Groups is not Passible) :

मानव जाति को कुल्हाड़ी से दो मागों – स्वामी और दास में बाँटना न तो सराहनीय है, न वांछनीय। यदि श्रेष्ठता व निकृष्टता के आधार पर स्वामी और दास का निर्णय किया जाए तो मानव जाति विभिन्न श्रेणियों में बँट जाएगी। प्रत्येक मनुष्य का एक दास होगा और दूसरे का स्वामी। इस प्रकार की स्थिति भयंकर होगी। अतः मानव-समूह का विभाजन तर्कहीन है।

12. प्रजातन्त्रीय श्रेष्ठता के सिद्धान्त पर आधारित (Based on the Principle of Social Supremacy) :

अरस्तू ने स्पष्ट कहा है कि यूनानियों को दास नहीं बनाया जा सकता। इसमें जातीय श्रेष्ठता की गन्ध आती है। थियोडोर गोम्पर्ज का कहना है. “दासता के बचाव के नाम पर यहाँ जातिगत अहंकार की पुष्टि की गई है। जिसके नाम पर जर्मनी में हिटलर ने तथा इटली में मुसोलिनी ने अपने राजनीतिक विरोधियों पर अमानवीय अत्याचार किये थे। अरस्तू का यह मानना कि वर्बर लोग ही दास बनाए जा सकते हैं, पक्षपात है। यह उसके जातीय अहंकार और संकीर्ण राष्ट्रवाद का परिचायक है।

13. वह सामाजिक एकता के लिए घातक है (It is Harmful for Social Unity) :

जिस समाज में दास-प्रथा होगी, उसमें आंगिक एकता कभी नहीं होगी जोकि एक आदर्श सामाजिक जीवन का आधार है। इसके बारे में राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन का कथन है- “जिस प्रकार अपने ही विरुद्ध विभक्त एक घर जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार वह राष्ट्र भी जीवित नहीं रह सकता जो आधा स्वतन्त्र हो और आधा गुलाम।” अतः दास-प्रथा सामाजिक एकता के मार्ग में एक भयंकर बाधा है।

14. अलोकतान्त्रिक सिद्धान्त (Undemocratic Theory) :

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त आधुनिक लोकतन्त्र के दो आधारों – समानता और स्वतन्त्रता के विपरीत है। जिस समाज में श्रम का महत्त्व नहीं, उस समाज में न्याय की आशा नहीं की जा सकती। एक तरफ तो अरस्तू ने स्वामी को अधिकारों से पूर्ण कर दिया है और दूसरी तरफ दासों के सभी अधिकार छीन लिए हैं। अरस्तू का दासता का सिद्धान्त आधुनिक लोकतन्त्र के सभी सिद्धान्तों के विपरीत है।

15. अमनोवैज्ञानिक सिद्धान्त (Unpsychological Theory) :

अरस्तू ने दास के व्यक्तित्व को स्वामी के व्यक्तित्व में लीन कर दिया है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी कुछ अनुभूतियाँ व इच्छाएँ होती हैं। दास की भावनाओं की अनदेखी करना गलत है। अतः यह सिद्धान्त अमनोवैज्ञानिक है। उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि अरस्तू का दासता का विचार तो तर्कसंगत है, न व्यावहारिक और न कल्याणकारी। आज के प्रजातन्त्र के युग में दास-प्रथा को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यद्यपि अरस्तू ने दासता के उदारवादी पक्ष का समर्थन किया है लेकिन उसके दासता के सिद्धान्त को किसी भी दृष्टि से संगतपूर्ण व वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता। परन्तु फिर भी यह निर्विवाद सत्य स्वीकारना ही पड़ेगा कि अरस्तू एक सच्चे यूनानी थे जिन्होंने नगर-राज्य को मजबूत बनाने की दृष्टि से दास प्रथा को उचित बताया। दास-प्रथा नगर-राज्यों की आवश्यकता थी। अतः अरस्तू ने भी युग के वातावरण से प्रभावित होकर इस प्रथा का पक्ष लिया ताकि यूनानी समाज में स्थायित्व का गुण पैदा हो और जातीय श्रेष्ठता कायम रह सके। अरस्तू का दास-प्रथा का सिद्धान्त तत्कालीन यूनानी दर्शन के इतिहास में अमूल्य देन है।

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