राज्य की उत्पत्ति व प्रकृति का सिद्धान्त
(Theory of Origin and Nature of State)
अपने ग्रन्थ ‘पोलिटिक्स’ (Politics) में अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति, स्वरूप तथा लक्ष्य के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए कहा है कि मनुष्य एक सामाजिक तथा राजनीतिक प्राणी है’ (Man is a Social and Political Animal) | अरस्तु के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व और विकास राज्य में ही सम्भव है। तत्कालीन यूनान के सोफिस्टों का मानना था कि राज्य मनुष्य निर्मित कृत्रिम संस्था है, परन्तु अस्तू सोफिस्टों के इस विचार का खण्डन करते हुए राज्य को एक ऐसी स्वाभाविक संस्था मानता है जो एक ऐतिहासिक विकास का परिणाम है। अरस्तू राज्य को एक सावयिक संगठन मानता है और व्यक्ति को उसकी एक इकाई मानता है जिसको राज्य से अलग नहीं किया जा सकता। संक्षेप यह कहा जा सकता है कि अरस्तू ने व्यक्ति को राज्य में मिला दिया है।
राज्य की उत्पत्ति
(Origin of State)
अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति के बारे में प्रचलित तत्कालीन समझौता सिद्धान्त तथा दैवीय सिद्धान्त का खण्डन करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि राज्य एक ऐसे ऐतिहासिक विकास का परिणाम है, जिसकी शुरुआत परिवार से होती है। अरस्तू के अनुसार मनुष्य की दो मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। अरस्तु के अनुसार मनुष्य की दो मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं – भौतिक आवश्यकता तथा प्रजनन की आवश्यकता। भौतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह दास के सम्पर्क में आता है तथा प्रजनन की आवश्यकता के कारण स्वामी और स्त्री परस्पर एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। इस प्रकार स्वामी, स्त्री और दास । पहला सामाजिक संगठन कुटुम्ब का निर्माण होता है। कुटुम्ब से ग्राम तथा ग्राम से राज्य की उत्पत्ति होती है। अरस्तू ने अपने राज्य की उत्पति के सिद्धान्त को कुछ मूलभूत मान्यताओं पर खड़ा किया है। उसके मुख्य मूल वैचारिक आधार निम्नलिखित है:-
सर्वप्रथम अरस्तू का मानना है कि मनुष्य के दो प्राथमिक एवं स्वाभाविक (Natural Instincts) हैं जिनके कारण वह दूसरों के साथ संगति करने पर बाध्य होता है। ये मूल प्रवृतियाँ या सहजबोध है – आत्मरक्षा (Self-preservation) तथा यौन-सन्तुष्टि (Reproductive Instinct)| आत्म-रक्षा की प्रव त्ति के कारण स्वामी और सेवक का तथा यौन सन्तुष्टि या प्रजनन की प्रवृत्ति के कारण स्वामी और स्त्री (स्त्री-पुरुष) का मिलन होता है। इन दो मूल प्रवृत्तियों के कारण परिवार का जन्म होता है। परिवार व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। अपनी सामाजिक आवश्यकता की प्रकृति एवं अच्छे जीवन की आकांक्षा से प्रेरित होकर मनुष्य मात्र का निर्माण करता है। परन्तु गाँव भी मनुष्य की सारी आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर सकता। इसलिए अपने जीवन की पूर्णता के लिए यह राज्य का निर्माण करता है। राज्य में व्यक्ति को जीयन, समाज तथा नैतिकता तीनों वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। राज्य में ही व्यक्ति की उच्चतम आध्यात्मिक क्षमता का विकास होता है। अतः अरस्तु के अनुसार “राज्य का अस्तित्व केवल जीवन के लिए नहीं, बल्कि उत्तम जीवन के लिए है।” इस प्रकार राज्य ही व्यक्ति को सच्चे अर्थ में पूर्ण मनुष्य बनाता है।
अरस्तू की दूसरी मान्यता यह है कि किसी वस्तु का अन्तिम रूप ही उसका सही रूप होता है। यह उसका अनोखा सोद्देश्यवादी (Teleological तर्क है। अरस्तू का मानना है कि सभी वस्तुएँ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होने में दढ़ संकल्प हैं। सभी वस्तुएँ अपने अन्त को प्राप्त करने पर ही सच्चे स्वरूप को प्राप्त करती हैं। राज्य मनुष्य का सच्चा स्वरूप है। मनुष्य पूर्ण पशु नहीं है। वह अपने स्वभाव के आधार पर पशुओं से अलग है। उसका सच्चा स्वरूप युक्तिपरक (Rational Logical) है। फोस्टर ने कहा है . “अरस्तु के अनुसार राज्य केवल इस अर्थ में स्वाभाविक नहीं है कि वह मनुष्ण की पाशनिक आवश्यकताओं को पूरा करता है, परन्तु इस अर्थ में भी स्वाभाविक है कि वह व्यक्ति के उच्चतर स्वभाग के निकास के लिए आवश्यक प्रकृति तथा यातायरण प्रदान करता है। राज्य के अन्दर ही व्यक्ति अपना सम्पूर्ण विकास कर सकता है। बार्कर का कहना है- “राज्य के बिना और राज्य से भिन्न व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य प्रकृति से ही राजनीतिक प्राणी है। अतः राज्य ही मानव का स्वाभाविक ध्येय है। इस तर्क के आधार पर अरस्तू सिद्ध करता है कि राज्य के बिना व्यक्ति या तो पशु होगा या देवता। अतः व्यक्ति का सही और पूर्ण रूप राज्य ही है।
राज्य को स्वाभाविक संस्था सिद्ध करने के लिए अरस्तू का तीसरा तर्क यह है कि राज्य एक आंगिक संस्था है और उसका विकास और वृद्धि लगातार हो रही है। राज्य एक पूर्ण वस्तु है जिसके व्यक्ति अंग हैं। अरस्तू के अनुसार- “राज्य एक स्वाभाविक संस्था है, वह एक ऐसी आंगिक इकाई है, जिसमें प्राणी के सभी गुण मौजूद हैं।”
उपर्युक्त तीनों तर्कों के आधार पर अरस्तू यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि राज्य एक स्वाभाविक संस्था है। मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है और राज्य एक स्वाभाविक संस्था है . ये दोनों कथन एक-दूसरे में निहित हैं। राज्य मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बने मानव समुदायों के निरन्तर विकास का अन्तिम परिणाम है। मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है, जो स्वभाव से ही राजकीय जीवन के लिए बना है। अरस्तू की ये दो बातें कि मनुष्य एक राजनीतिक पशु है तथा राज्य एक स्वाभाविक संस्था है, अरस्तू की राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में महत्त्वपूर्ण देन हैं।
राज्य का विकास
(Development of State)
राज्य के विकास क्रम को निम्न आधारों पर समझा जा सकता है :-
अरस्तू का मानना है कि मनुष्य एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है, अतः वह एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। सामाजिकता का गुण अन्य जीवधारियों में भी पाया जाता है, किन्तु मनुष्य की सामाजिकता का गुण अन्य से अधिक है। मनुष्य की सामाजिक प्रवृत्ति केवल उसकी दो मूलभूत आवश्यकताओं – भौतिक व प्रजनन को पूरा नहीं करती, बल्कि उसकी बौद्धिक एवं नैतिक आवश्यकताओं को भी पूरा करती है। इस सामाजिकता के गुण के कारण राज्य की उत्पत्ति की शुरुआत होती है।
अरस्तू के अनुसार राजनीतिक संस्थाओं के विकास क्रम में पहली संस्था परिवार या कुटुम्ब है। इसमें पति-पत्नी एवं संतान के अतिरिक्त दास भी शामिल है। अन्य सभी जीवधारियों की तरह स्त्री व पुरुष भी नस्लवृद्धि को प्राकृतिक भावना से ग्रस्त होते हैं। इस भावना तथा अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार नामक संस्था का जन्म होता है। अपनी उत्पत्ति व कार्य की दृष्टि से परिवार एक प्राकृतिक संस्था है। अरस्तू ने परिवार में दास की गणना प्राकृतिक नियमों के अनुकूल मानी है। अतः मनुष्य भौतिक व प्रजनन की प्रवृत्तियों के कारण परिवार का उदय होता है।
जब परिवारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती है तो इसके साथ-साथ उनकी आवश्यकताओं में भी वृद्धि होती है। कालांतर में मूत परिवार से ही अनेक परिवार बन जाते हैं और वे लगातार एक ही स्थान पर बसते जाते हैं। वे परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहयोग करते हैं और ग्राम नामक संगठन का उदय होता है। अरस्तू के अनुसार- “जब अनेक परिवार एक-साथ रहते हैं तथा उनके साथ-साथ रहने का उद्देश्य रोजाना की आवश्यकताओं की पूर्ति करने मात्र से कुछ अधिक होता है, तब ग्राम अस्तित्व में आता है। ग्राम के सबसे प्राकृतिक रूप एक ऐसे उपनिवेश (Colony) के रूप में रहा होगा जिसे रक्त सम्बन्ध के परिवारों ने बसाया होगा।” सम्भवतः इन रक्त सम्बन्ध वाले परिवारों का सबसे वृद्धि पुरुष राजा की तरह कार्य करता रहा होगा। पाम के स्तर पर मनुष्य अपनी निम्नतम आवश्यकताओं के साथ ही अपनी अनेक मनोरंजन, धार्मिक-उत्सव तथा विकसित आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी करने लगता है। इससे राज्य के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार होती है।
कालांतर में मनुष्य ने यह अनुभव किया कि उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति मात्र ग्राम से समभव नहीं अपितु विभिन्न ग्रामों के पारस्परिक सहयोग से सम्भव है। तब ही राज्य का जन्म होता है। अरस्तू के अनुसार- “जब अनेक ग्राम मिलकर पर्याप्त आकार वाले एक ऐसे पूर्ण समुदाय का रूप धारण कर लेते हैं जो लगभग पर्याप्त आत्म-निर्भर हो, जीवन की कठोर आवश्यकताओं से राज्य अस्तित्व में आता है। वस्तुतः ग्राम की तुलना में राज्य व्यक्ति व समुदाय की शान्ति-व्यवस्था, अर्थ, सुरक्षा एवं न्याय सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति अधिक अच्छे ढंग से पूरी करता है और उनके अधिकतम बौद्धिक व नैतिक विकास में भी मदद करता है। अरस्तू की नजर में व्यक्ति की वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति ही आत्म-निर्भर जीवन है और यह मात्रा राज्य में ही सम्भव है। अतः अरस्तू राज्य की उत्पत्ति को मानव-स्वभाव का परिणाम मानता है। मनुष्य की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सर्वप्रथम परिवार की उत्पत्ति होती है, फिर ग्राम की और अन्त में राज्य की।
प्रकृति एवं विशेषताएँ
(Nature and Characteristics)
1. राज्य प्राकृतिक है (State is Natural) : अरस्तू ने सोफिस्ट विचारधारा का खण्डन करते हुए राज्य को एक स्वाभाविक या प्राकृतिक संस्था माना है। अरस्तू मनुष्य को सामाजिक-राजनीतिक प्राणी मानता है। राज्य व्यक्ति की दो मूलभूत आवश्यकताओं – यौन-संतुष्टि व आत्मरक्षण से जन्म लेता है। इन दो प्रवृत्तियों के कारण राज्य का जन्म होता है। मनुष्य यौन सन्तुष्टि या प्रजनन की प्रवृत्ति के कारण स्त्री के सम्पर्क में आता है तथा आत्मरक्षण या भौतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए दास का सहारा लेता है। इससे स्त्री, पुरुष व दास से मिलकर समाज बन जाता है। इसे परिवार कहा जाता है। जब परिवार का आकार बड़ा हो जाता है तो ग्राम तथा ग्राम से राज्य का उदय होता है। अरस्तू राज्य को स्वाभाविक सिद्ध करने के लिए सोद्देश्यता का सिद्धान्त भी पेश करता है। उसका कहना है कि सभी वस्तुएँ अपने अन्तिम तथ्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होती है। सेब का फल सेब के बीज का अन्तिम रूप है। इसी पूर्णता को प्राप्त करने के लिए व्यक्त्ति से राज्य का जन्म होता है। इसलिए राज्य व्यक्ति का पूर्ण रूप है। किसी वस्तु का अन्त ही उसका लक्ष्य है। अरस्तू का यह भी तर्क है कि प्रकृति सदा सर्वोत्तम को पाना चाहती है। राज्य ही व्यक्ति का सर्वोत्तम लक्ष्य है। यह सर्वोत्तम लक्ष्य ही मनुष्य की शारीरिक, मानसिक व नैतिक पूर्णता को प्राप्त कराता है। राज्य में ही व्यक्ति रूप अंगीकार होकर पूर्णता को प्राप्त करता है। अतः राज्य एक स्वाभाविक संस्था है और व्यक्ति उसकी एक इकाई है।
2. राज्य सर्वोच्च समुदाय है (State is the Supreme Association) : अरस्तू राज्य को सर्वोच्च समुदाय मानता है। अरस्तू के अनुसार व्यक्ति के सभी उद्देश्य राज्य के ध्येय में निहित है। राज्य सबसे ऊपर है। राज्य विभिन्न प्रकार के समुदायों के ऊपर समुदाय है क्योंकि इसमें सामाजिक विकास का चरम रूप निहित है, जो व्यक्ति की बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। राज्य इसलिए सर्वोच्च है कि उसका लक्ष्य की सर्वोच्च है और वह है अपने नागरिकों के जीवन को अच्छा बनाना। अन्य सामाजिक संस्थाएँ व्यक्ति को आंशिक आवश्यकताओं को पूरा करती हैं जबकि राज्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है। अरस्तू के अनुसार- “प्रत्येक सहयोग का ध्येय कोई न कोई भलाई करना है। राज्य अथवा राजनीतिक समुदाय जो सबसे ऊँचा है और जिसमें बाकी सब समाये हुए हैं, अन्य किसी भी सहयोग से बढ़कर भलाई अर्थात् सर्वोच्च भलाई को अपना ध्येय बनाए हुए है।” अरस्तू के अनुसार राज्य दो प्रकार से सर्वोच्च समुदाय होता है- (i) राज्य सामाजिक विकास की पराकाष्ठा है (ii) मनुष्य राज्य में ही अपनी सर्वोच्च नैतिक पूर्णता का अनुभव करता है। राज्य व्यक्ति के अच्छे जीवन के लिए विद्यमान है। उसका उद्देश्य व्यक्ति को सद्गुणी बनाना है। राज्य से बढ़कर कोई अन्य समुदाय नहीं हो सकता क्योंकि यह परिवार, परिवार से ग्राम तथा ग्राम से विकसित व्यवस्था है। अतः राज्य का उद्देश्य परम शुभ और सम्पूर्ण विकास को प्राप्त करना है। इसलिए राज्य एक सर्वाच्च समुदाय है।
3. राज्य व्यक्ति से पहले है (State is Prior to the Individual) : यदि उपर्युक्त कथन तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो ठीक है, अन्यथा नहीं। यह कथन उलझन पैदा करता है। साधारण तथा सभी जानते हैं कि व्यक्ति से परिवार, परिवार से ग्राम, ग्राम से राज्य का जन्म हुआ है। इस आस्था में राज्य व्यक्ति से पहले कैसे हो सकता है। लेकिन अरस्तू का यह कथन तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक द ष्टि से सही हैं अरस्तू राज्य को एक समग्र मानता है। यदि समग को नष्ट कर दिया जाए तो इकाई का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। अरस्तू राज्य को एक जीवित प्राणी मानता है। इसके विभिन्न अंग होते हैं जिनमें से व्यक्ति भी प्रमुख है। अतः व्यक्ति राज्य की महत्त्वपूर्ण इकाई है। यदि व्यक्ति रूपी अंग को राज्यरूपी समग्न से अलग कर दिया जाए तो वह राज्य की अनुपस्थिति में या तो पशु रहेगा या देवता। व्यक्ति अपनी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति भी राज्य में ही करता है। राज्य ही व्यक्ति को पूर्णता के स्तर पर पहुँचाता है। अरस्तू का मानना है कि किसी वस्तु का अन्त ही उसका सच्चा रूप है। इस द ष्टि से भी राज्य व्यक्ति से पहले आता है। फोस्टर का कहना है कि- “राज्य का स्थान प्रकृतिवश परिवार और व्यक्ति से पहले है। क्योंकि अवयवी (समग्र) अनिवार्यतः अवयव (अंग) से पहले आता है। राज्य प्रकृति की रचना है और वह व्यक्ति से पहले आया है – इसका प्रमाण है कि जब व्यक्ति को राज्य से पथक् कर दिया जाए तो वह आत्म-निर्भर नहीं रह जाता। अतः उसकी स्थिति अवयवी की तुलना जैसी होती है।” इस प्रकार फोस्टर ने अरस्तू के कथन की पुष्टि की है कि समय की दृप्टि से परिवार पहले है, परन्तु प्रकृति की दृष्टि से राज्य पहले है। इस प्रकार राज्य न केवल व्यक्ति से पहले आता है, बल्कि अन्य सभी समुदायों से भी पहले आता है। यह व्यक्ति की अन्तिम परिणति है। अपने अन्तिम रूप में यह व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास है। अपने चरम लक्ष्य के कारण यह व्यक्ति पहले है। अतः राज्य व्यक्ति से पहले है।
4. राज्य प्रकृति से मावयवी है (State is Organic in Nature) : अरस्तू राज्य को सावयवी जीवधारी मानता है। प्रत्येक सावयवी जीव का विकास स्वाभाविक रूप से होता है। उसके कार्य उसके सभी अंगों द्वारा किए जाते हैं। इस प्रकार सावयवी सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण (राज्य) के विभिन्न अंग (व्यक्ति) होते हैं। प्रत्येक अंग का अलग-अलग कार्य होता है और प्रत्येक अंग अपने अस्तित्व एवं जीवन के लिए सावयवी पर निर्भर है। इस दृष्टि से राज्य एक सावयवी है जो विभिन्न व्यक्तियों, ग्रामों तथा परिवारों से मिलकर बना है। इस प्रकार विभिन्न व्यक्ति अंग के रूप में राज्य पर ही आश्रित हैं। यदि शरीर (राज्य) का कोई अंग (व्यक्ति) अनुपात से घट जाता है तो समस्त शरीर (राज्य) निर्बल हो जाता है। जिस प्रकार शरीर के सभी अंगों क महत्त्व उनकी जैविक एकता से है, उसी प्रकार व्यक्ति का महत्त्व भी राज्य की संजीवनी शक्ति के कारण है। राज्य के विभिन्न घटक अपने अस्तित्व के लिए राज्य पर ही निर्भर है। राज्य के अभाव में उनका विनाश उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार राज्य विभिन्न अंगों याला जीव है। राज्य में निवास करने वाले व्यक्ति, परिवार, गाँन, संस्थाएँ राज्य रूपी जीवन के विभिन्न अंग हैं। तात्पर्य यह है कि अरस्तू के राज्य विषयक दर्शन में जो बात एक सावयवी जीवधारी के साथ लागू होती है, यह बात विभिन्न अंगों वाले राज्य के साथ भी लागू होती है।
5. राज्य आत्म-निर्भर संस्था है (State is a Self-Sufficient) : अरस्तू की नजर में राज्य की प्रमुख विशेषता उसका आत्मनिर्भरता का गुण हैं इससे हमारा तात्पर्य मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से ही नहीं होना चाहिए। अरस्तू ने आत्मनिर्भरता शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया है। वह उन समस्त परिस्थितियों और वातावरण को शामिल करता है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास में योगदान देते हैं। राज्य में ही मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक विकास होता है। राज्य में ही व्यक्ति सुखी एवं सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। मनुष्य का मनुष्यत्व अपने विशेष गुणों का विकास करने में है और यह केवल राज्य के आत्म-निर्भरता के गुण में है। अरस्तू का कहना है- “राज्य की उत्पत्ति जीवन की आवश्यकता के कारण हुई, किन्तु उसकी सत्ता अच्छे जीवन की संप्राप्ति के लिए बनी हुई है। इस प्रकार व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास राज्य में ही सम्भव है। राज्य परिवार व ग्राम स्तर से गुजरकर पूर्णता की प्राप्ति है। इस प्रकार राज्य सामाजिक विकास की पूर्णता है। राज्य में ही व्यक्ति के समस्त अभाव समाप्त होकर व्यक्ति के जीवन को सुखमय न सम्मान जनक बनाते हैं। मनुष्ण की इन्द्रियपरक आनश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ उसकी बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति राज्य में ही सम्भव है। अतः राज्य एक आत्मनिर्भर संस्था है।
6. विविधता में एकता (Unity in Diversity) : अरस्तू ने प्लेटो के विपरीत विभिन्नता में ही एकता का समर्थन किया है। प्लेटो के अनुसार राज्यों में अवयवी एकता होनी चाहिए अर्थात् जिस प्रकार पैर में काँटा चुभने पर उसकी अनुभूति सारे शरीर को होती है, उसी प्रकार एकता की अनुभूति सारे व्यक्तियों व राज्य में होनी चाहिए। परन्तु अस्तू का मत प्लेटो के विपरीत है। अरस्तू का कहना है कि राज्य कुछ बार्ता का नियन्त्रण व नियमन करे तथा कुछ बातों के लिए वह उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करे। इस प्रकार अरस्तू ने विभिन्नता में एकता का समर्थन किया है। वह एकत्व को ही राज्य का आदर्श स्वरूप नहीं मानता। वह राज्य का स्वरूप बहुल में मानता है। उसके अनुसार राज्य विभिन्न प्रकार के तत्वों से मिलकर बना है। यदि उसकी भिन्नता का अन्त करके एकता स्थापित की जाएगी तो राज्य का प्राणान्त हो जाएगा। अरस्तू राज्य को एक समुदाय मानता है जिसकी रचना विभिन्न सदस्यों से हुई है। राज्य की सर्वोच्य समुदाय की धारणा तमी कायम रह सकती है, जब विभिन्नता में एकता का सिद्धान्त अपनाया जाए। यदि राज्य की पूर्ण एकता स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा तो राज्य विभिन्नताओं का राज्य न होकर चरम सत्तावादी बन जाएगा। राज्य द्वारा विभिन्न व्यक्तियों की आवश्यकता की पूर्ति की दृष्टि से भी राज्य में विभिन्नता का होना आवश्यक है। इस प्रकार अरस्तू ने राज्य को सम्पूर्ण परिवार का रूप देने का प्रयास किया है। वह राज्य राज्यरूपी सावयय में विभिन्न अंगों के रूप में विभिन्न समुदायों के बीच एकता का समर्थन करता है। उसका कहना है- “राज्य तो स्वभाव से ही बहु-आयामी होता है। एकता की ओर अधिकाधिक बढ़ना तो राज्य का विनाश करना होगा।”
7. नगर-राज्य (City State) : अरस्तू के लिए नगर-राज्य सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक संगठन है। उसने राजा फिलिप द्वारा यूनान नगर राज्यों का अन्त करके शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना करते हुए देखा था। उसे सामाज्यवाद से घ थी। उसने अपने आदर्श राज्य के चित्रण में नगर-राज्य को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर उसका समर्थन किया है। अरस्तू का यह नगर-राज्य समस्त विज्ञान, कला, गुणों और पूर्णता में एक साँझेदारी है। अतः अरस्तू का राज्य नगर-राज्य है।
8. विवेक से उत्पत्ति (Product of Reason) : अरस्तू के अनुसार व्यक्ति तर्कशील प्राणी है। वह अच्छे-बुरे में भेद करने मैं सक्षम है, इसलिए वह नैतिक प्राणी के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए सामुदायिक जीवन जीता है। इससे क्रमिक विकास द्वारा राज्य का जन्म होता है। वह यूनानी जाति को विवेक का प्रतिबिम्ब मानकर उसे सर्वश्रेष्ठ जाति मानता है। वह अन्य जातियों को असभ्य मानकर उनसे घृणा करता है। उसका नगर-राज्य यूनानी लोगों की विवेकशीलता से उत्पन्न संस्था है। इस प्रकार अरस्तू राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त व दैवीय सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए राज्य की उत्पत्ति को मानवीय विवेक का परिणाम मानता है।
9. क्रमिक विकास (Gradual Evolution) : अरस्तू के अनुसार राज्य का क्रमिक विकास हुआ है जो मानवीय विवेक का प्रतिफल है। व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति न हो पाने की स्थिति में परिवार, परिवार से ग्राम की रचना हुई। मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर व्यक्ति की अन्य आवश्यकताओं ने जन्म लिया और ग्राम से राज्य की उत्पत्ति हुई जिससे व्यक्ति की बौद्धिक आवश्यकताएँ पूरी हुई। इस प्रकार व्यक्ति से राज्य की उत्पत्ति तक का सफर मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं का बौद्धिक विकास की ओर क्रमिक विकास का सफर है। राज्य का विकास सावयवी जीवधारी की तरह हुआ है। व्यक्ति, परिवार और ग्राम इस सावयवी जीवधारी के अंग हैं। ये सब एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। इन अंगों का पूर्ण क्रमिक विकास होने पर ही राज्य के दर्शन होते हैं।
राज्य के कार्य और लक्ष्य
(Functions and Ends of State)
अरस्तू राज्य को एक सर्वोच्च समुदाय मानता है जिसमें व्यक्ति का हित निहित है। राज्य का लक्ष्य सर्वोच्च हित को पूरा कर सर्वोत्तम जीवन बिताना है। राज्य की उत्पत्ति जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होती है और श्रेष्ठ जीवन से अरस्तू का तात्पर्य व्यक्ति के बौद्धिक और नैतिक विकास से है। अरस्तू के राज्य का लक्ष्य केवल भौतिक न होकर व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करना भी है। उसका दृष्टिकोण व्यक्तिवादियों से भिन्न है। अरस्तू का राज्य के कार्यों व लक्ष्य सम्बन्धी दृष्टिकोण सकारात्मक व रचनात्मक है। अरस्तू के राज्य के कार्य व लक्ष्यों को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है :-
1. नागरिकों का कल्याण (Welfare of Citizens) : अरस्तू के अनुसार राज्य व्यक्ति के कल्याण का साधन है। राज्य का लक्ष्य मनुष्य की शक्तियों के अधिकतम विकास हेतु उन्हें जीवन-संचालन की कुछ स्वतन्त्रता प्रदान करना होना चाहिए।
2. सर्वोत्तम गुणों का विकास (Development of Best Qualities) : अरस्तू का मानना है कि राज्य अपने नागरिकों में उत्तम गुण विकसित करता है। वह नागरिकों को सद्गुणी बनाता है। वह नागरिकों को चरित्रवान बनाता है।
3. बौद्धिक और नैतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि (Satisfaction of Intellectual and Moral Needs) : अरस्तू के अनुसार व्यक्ति राज्य में ही रहकर अपने को पशु-स्तर से ऊपर उठाकर सही मनुष्यत्व को प्राप्त कर सकता है। राज्य ही व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ-साथ व्यक्ति की नैतिक और बौद्धिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता
4. अवकाशपूर्ण जीवन (Comfortable Life) : अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य नागरिकों को ‘अबकाश’ प्राप्ति के अवसर प्रदान करना होना चाहिए। ‘अवकाश’ शब्द से अरस्तू का तात्पर्य निष्क्रियता या अकर्मण्यता से नहीं है। अरस्तू के दर्शन में अवकाश शब्द से ऐसे कार्यों का बोध होता है जिससे सद्गुणों का विकास होता है, जैसे शासन करना, विज्ञान और दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना, सार्वजनिक सेवा करना, सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना करना आदि।
5. अच्छाई को प्रोत्साहन (Encourage Goodness) : अरस्तू के अनुसार राज्य को अच्छाई को प्रोत्साहन देना चाहिए। नागरिकों को नेक बनाना राज्य का कार्य है और न्यायनिष्ठा की स्थापना उसका लक्ष्य। अरस्तू के अनुसार राज्य का अस्तित्व श्रेष्ठ जीवन के लिए है अर्थात् अच्छे जीवन के लिए राज्य विद्यमान है।
आलोचनाएँ
(Criticisms)
अरस्तू की राज्य की अवधारणा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होते हुए भी अनेक आलोचनाओं का शिकार हुई। उसकी आलेचना के निम्न आधार हैं :-
1. राज्य की अवधारणा काल्पनिक व अव्यावहारिक है (Conception of State is Utopian) : अरस्तू ने अपने दर्शन में जिस राज्य का चित्रण किया है, वह एक वास्तविक राज्य नहीं, बल्कि आदर्श राज्य है। यह आदर्श व्यावहारिक नहीं हो सकता। अतः अरस्तू की राज्य की अवधारणा काल्पनिक व अव्यावहारिक है।
2. परिवार प्रथम सामाजिक संगठन नहीं है (Family is not the First Social Organization) : अरस्तू ने परिवार को राज्य की उत्पत्ति में सबसे पहली इकाई माना है। किन्तु आलोचकों का कहना है कि समाज की सबसे पहली इकाई समूह थी और एक लम्बी सामाजिक प्रक्रिया से ही परिवार की स्थापना हुई।
3. राजनीतिक तत्त्व की उपेक्षा (Neglect of Political Factor) : अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति के बारे में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाया है। वह राज्य को परिवार तथा ग्राम जैसी सामाजिक संस्थाओं से विकसित मानता है। उसने राज्य की उत्पत्ति में सहायक राजनीतिक चेतना की उपेक्षा की है।
4. राज्य व्यक्ति से पहले नहीं (State is not Prior to Man) : इस उक्ति के आधार पर व्यक्ति राज्य का साधन बन जाता है। इससे राज्य के महत्त्व और अधिकारों में अनावश्यक वृद्धि होती है। आलोचकों का मानना है कि जब राज्य का जन्म व्यक्ति को अच्छा बनाने के लिए ही हुआ है तो राज्य को साध्य कैसे माना जा सकता है। इस प्रकार राज्य व्यक्ति के बाद अस्तित्व में आया है, पहले नहीं।
5. आधुनिक दष्टि से आलोचना (Criticism from Modern Point of View) : अरस्तू नगर-राज्य को सर्वोत्तम संगठन मानता है। उसने राज्य को स्वयं में पूर्ण तथा आत्मनिर्भर संस्था बताया हैं वह राज्य की सर्वोच्चता की बात भी करता है। ये सब बातें आधुनिक युग में मान्य नहीं हो सकी। अरस्तू ने जिस नगर राज्य की अवधारणा को प्रस्तुत किया है, वह तत्कालीन यूनान की राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति के ही अनुरूप हो सकती है। आधुनिक युग में अरस्तू की कोई भी धारणा जो जातीय द्वेष पैदा करने वाली हो, मान्य नहीं हो सकती। अरस्तू ने यूनानी जाति को सभ्य बताकर शेष विश्व की जातियों के प्रति बर्बरता का दृष्टिकोण आधुनिक दृष्टि से अमानवीय व अप्रजातान्त्रिक है।
6. राज्य एक सावयव नहीं है (State is not an Organ) : अरस्तू ने राज्य को एक सावयव तथा व्यक्ति को उसका अंग बताया है। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। व्यक्ति की चेतना राज्य से अलग एवं स्वतन्त्र है। व्यक्ति को राज्यरूपी शरीर का अंग मानना बिलकुल अनुचित है।
7. राज्य द्वारा नैतिकता का विकास अनुचित : आलोचकों का मानना है कि यदि राज्य स्वयं प्रत्यक्ष रूप से नैतिकता की भावना का विकास करेगा, तो नैतिकता की भावना समाप्त हो जाएगी। नैतिकता एक ऐसी वस्तु है जो बाहर से लादी नहीं जा सकती। यह तो मनुष्य की इच्छा व आत्मा का परिणाम है। यह एक आन्तरिक वस्तु है, बाह्य नहीं। यद्यपि अरस्तू की राज्य की अवधारणा की अनेक आलोचनाएँ हुई हैं, लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि अरस्तू ही एक ऐसा प्रथम चिन्तक है जिसने राजनीतिक-दर्शन में राज्य की उत्पत्ति के विकासबादी सिद्धान्त का बीजारोपण किया है। उसने राज्य को मानव-प्रकृति पर आधारित करके एक महान् ओर शाश्वत सत्य का रहस्योद्घाटन किया है। उसने एक ओर तत्कालीन यूनान में सोफिस्ट विचारधारा द्वारा राज्य के बारे में पैदा की गई आन्तियों का अन्त किया और दूसरी ओर राज्य की आदर्शवादी धारणा का भी खण्डन किया। यदि उसके चिन्तन में कोई दोष है तो उसका कारण उसके चिन्तन का यूनानी नैतिक मान्यताओं से प्रभावित होना है। फिर भी उसने अपने दर्शन को यथासम्भव वैज्ञानिक एवं यथार्थवादी बनाए राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में अमूल्य योगदान दिया है।
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