हिन्दी व्याकरण

मौन पठन या मौन वाचन- भेद, उद्देश्य, तत्त्व, महत्त्व तथा उपयोगिता

मौन पठन या मौन वाचन
मौन पठन या मौन वाचन

मौन पठन या मौन वाचन से आप क्या समझते हैं?

लिखित सामग्री को मन ही मन बिना आवाज निकाले पढ़ना मौन पठन या मौन वाचन कहलाता है। मौन वाचक के होठ बन्द रहते हैं। जड का कथन है कि “जब छात्र पैरों से चलना सीख जाता है तो घुटनों के बल खिसकना छोड़ देता है। इसी प्रकार भाषा के क्षेत्र में छात्र जब मौन पठन की कुशलता प्राप्त कर लेता है तो सस्वर पठन का अधिक प्रयोग छोड़ देता है।” मौन पठन में निपुणता का आना व्यक्ति के विचारों की प्रौढ़ता का द्योतक है और भाषायी दक्षता अधिकार का सूचक है।

लिखित भाषा को बिना उच्चारण किये शान्तिपूर्वक पढ़ने और पढ़कर उसका अर्थ ग्रहण करने की क्रिया को मौन वाचन कहते हैं। पठन का अभ्यास करवाकर अध्यापक विद्यार्थी के जीवन में एक स्थायी महत्त्व की बात जोड़ता चलता है क्योंकि वाचन विशेषकर मौन वाचन आजीवन उसका साथ देता है। यही कारण है कि पठन की सर्वोत्कृष्ट सफलता सस्वर पाठ में नहीं बल्कि मौन पठन में है क्योंकि मौन पाठ हमारे लिये अधिक व्यावहारिक, सुगम और उपयोगी है।

मौन वाचन के उद्देश्य

मौन वाचन के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) यह छात्रों को भाषा के लिखित रूप को समझाकर गहरायी तक पहुँचाने में सहायता करता है।

(2) यह छात्रों में चिन्तनशीलता का विकास करता है, जिससे उनकी कल्पना शक्ति विकसित होती है और छात्र बुद्धिमान बनता है।

(3) अकेलेपन की ऊब से बचने का यह सर्वोत्तम साधन है। पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर सत्साहित्य का आनन्द उठाया जा सकता है।

(4) मौन वाचन में व्यक्ति को थकान कम होती है इसीलिए सस्वर वाचन अधिकतर शालेय जीवन तक ही सीमित होता है।

(5) मौन पठन में साथ के अन्य साथियों को कोई परेशानी नहीं होती।

(6) मौन पठन में समय की बचत होती है। श्रीमती ग्रे और रॉस के एक परीक्षण द्वारा यह ज्ञात हुआ है कक्षा छ: के छात्र एक मिनट में सस्वर पठन में 170 शब्द बोलते हैं और मौन पठन में इतने ही समय में 210 शब्द बोलते हैं।

(7) मौन पठन छात्र को स्वाध्याय की ओर प्रेरित करता है और स्वाध्याय की ओर प्रेरित होकर वह साहित्य में रुचि लेने लगता है, इससे उसे आनन्द की प्राप्ति होती है।

(8) सस्वर पठन जितना प्राथमिक कक्षाओं के लिए महत्त्वपूर्ण है, उतना ही मौन पठन, उच्च कक्षाओं के लिए। भावों की गहरायी तक पहुँचने के लिए मौन वाचन अत्यन्त आवश्यक है।

(9) सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि छात्र कम से कम समय में विषय को गहरायी से समझ लेता है और अत्यधिक आनन्द प्राप्त करने में सफल होता है।

(10) मौन पठन से छात्र की कल्पना-शक्ति का विकास होता है। शान्त मस्तिष्क में छात्र आगे की घटनाओं के विषय में अनुमान लगा सकता है।

(11) छात्रों में चिन्तन एवं तर्क शक्ति को बढ़ाने एवं प्रति उत्तर क्षमता पैदा करने के लिए भी इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। शान्त रहकर ही छात्र विषय को समझकर तर्क के लिए स्वयं को तैयार कर सकता है।

(12) एकांकी क्षणों में समय का सदुपयोग किया जा सकता है। एकांकी क्षणों में अपने को भुलाने के लिए इससे उत्तम और कोई साधन नहीं है।

व्यावहारिक जीवन में मौन वाचन का क्या महत्त्व है?

व्यावहारिक जीवन में मौन वाचन के महत्त्व को हम निम्नलिखित प्रकार से देख सकते हैं-

1. समय की बचत – मौन पठन से समय की बहुत बचत होती हैं। सस्वर पाठ और मौन पाठ पर जो शोध हुए हैं वे यह बताते हैं कि सस्वर पाठ में व्यक्ति एक मिनट में लगभग 160 शब्दों से अधिक नहीं पढ़ सकता लेकिन मौन पठन में तो कक्षा 8 का बालक भी 250 से 350 तक शब्दों को पढ़ लेता है। अतः यहाँ स्पष्ट है कि मौन पठन में समय की बहुत बचत होती है।

2. व्यक्तिगत प्रयोग की दृष्टि से उपयोगी – व्यक्तिगत प्रयोग की दृष्टि से मौन वाचन सर्वाधिक सुगम, स्वाभाविक, सुविधापूर्ण और व्यावहारिक तरीका है। मौन पठन केवल तीव्र गति की की दृष्टि से सस्वर वाचन की अपेक्षा अधिक उपयोगी नहीं है बल्कि इसलिये भी है कि वह व्यक्तिगत आत्म शिक्षण का रूप ले लेता है, जिससे प्रत्येक बालक अपनी रुचि एवं योग्यता के अनुसार आगे बढ़ता है।

3. श्रम एवं शक्ति की बचत – मौन पठन की तुलना में सस्वर पठन अधिक थकाने वाली प्रक्रिया है। यदि हम लगातार 4 घण्टे सस्वर पाठ करते रहें तो बहुत थकान हो जायेगी, लेकिन मौन पाठ 4 घण्टे सरलतापूर्वक किया जा सकता है। हालांकि थकान तो 4 घण्टे मौन पठन करने से भी होगी लेकिन 4 घण्टे के सस्वर पाठ की तुलना में वह बहुत कम होगी। यह सच है कि आँख और मस्तिष्क, होठों और कण्ठपेशियों से कई गुना तीव्र गति से काम कर सकते हैं।

4. स्वावलम्बन की भावना का विकास- मौन वाचन के माध्यम से स्वावलम्बन की भावना का विकास होता है। विद्यार्थी जब अपने आप पढ़कर समझने का प्रयास करता है तब उसे अपनी शक्तियों का ज्ञान है। उसके मन में स्वाध्याय से अपने ज्ञान का विस्तार करने का विचार आता है और धीरे-धीरे यह मौन पाठ उसके ज्ञान में अन्यतम विकास करता जाता है।

मौन वाचन के तत्त्व

मौन वाचन के निम्नलिखित तत्त्व हैं-

1. उचित आसन एवं मुद्रा- सस्वर पाठ की भाँति मौन पठन में भी उचित आसन एवं मुद्रा की आवश्यकता होती है। पठनकर्ता को उचित आसन पर उचित ढंग से रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर बैठना चाहिये तथा पाठ्य विषयवस्तु को अपनी आँखों से लगभग 35 सेण्टीमीटर दूर रखना चाहिये। मौन पठन में होठ नहीं हिलने चाहिये और न किसी प्रकार की ध्वनि करनी चाहिये।

2. एकाग्रता – मौन पठत करते समय एकाग्रता होनी चाहिये। एकाग्रता के अभाव में मौन पतन द्वारा विषयवस्तु का अर्थ ग्रहण किया जाना सम्भव नहीं हो पाता। मौन की सफलता ही पठनकर्ता की मनोदशा पर निर्भर करती है यदि पठनकर्ता दत्तचित्त होकर विषयवस्तु का पठन कर सकेगा तो वह पठन सफल होगा अन्यथा नहीं।

3. बोधगम्यता – यदि पठन में बोगम्यता नहीं है तो वह पठन व्यर्थ है। पठनकर्ता अपनी विषयवस्तु, विचारों, शब्दों, सूक्तियों, लोकोक्तियों, मुहावरों आदि का सन्दर्भवश अर्थ समझ हुए आगे बढ़े, विराम चिह्नों आदि से अर्थ की स्पष्ट अनुभूति करे और अनुभूत ज्ञान से इस ज्ञान का सम्बन्ध जोड़ते हुए भावानुभूति करे। लिखित सामग्री के भाव एवं विचारों की पूर्ण प्रतीत ही बोध कहलाती है। अतः मौन वाचन में यदि बोधगम्यता है तो ही वह सार्थक है।

4. धैर्य – मौन पठन करते समय पठनकर्ता को धैर्य के साथ उचित गति से पठन करना चाहिये। बहुत तीव्र गति या बहुत मन्द गति बोधगम्यता को प्रभावित करती है। पठन करते समय कभी-कभी ऐसे प्रसंग या शब्द आ जाते हैं जिनका तत्काल अर्थ समझना बहुत कठिन होता है ऐसे में पठनकर्ता को धैर्य नहीं खोना चाहिये, उन शब्दों एवं प्रसंगों का सन्दर्भवश मूलभाव एवं अर्थग्रहण हो जाता है। ऐसे में धैर्य और एकाग्रता का बहुत महत्त्व होता है।

मौन वाचन की उपयोगिता

(1) मौन वाचन में थकान कम होती है क्योंकि इसमें वाग्यन्त्रों पर बल नहीं पड़ता।

(2) मौन वाचन में समय की बचत होती है। मौन वाचन द्वारा एक छात्र दूसरे छात्र के वाचन में बाधा उपस्थित नहीं करता। सामूहिक वाचन के लिये मौन वाचन सर्वोत्तम है।

(3) मौन वाचन के समय छात्र चिन्तन भी करता है उसका ध्यान केन्द्रित रहता है।

(4) मौन वाचन द्वारा स्वाध्याय की आदत पड़ती है।

(5) आनन्द प्राप्त करने के लिये पढ़ना प्रायः मौन रूप में होता है।

मौन वाचन के भेद

वाचन की प्रकृति के अनुसार मौन वाचन के दो भेद किये जाते हैं- (1) गम्भीर वाचन (2) द्रुत वाचन ।

1. गम्भीर वाचन- गम्भीर वाचन उस समय किया जा सकता है जब हम किसी सामग्री की तह तक पहुँचना चाहते हैं।

2. द्रुत वाचन – द्रुत वाचन का सम्बन्ध विस्तृत अध्ययन से है। विस्तृत अध्ययन तब किया जाता है जब हम अधिक सामग्री कम समय में पढ़ना चाहते हैं।

मौन वाचन का आरम्भ कब किया जाये?

वैज्ञानिकों को कथन है कि प्रारम्भ में तो बालक-बालिकाओं के लिये सस्वर वाचन की नितान्त आवश्यकता है परन्तु जैसे-जैसे उनकी आयु में वृद्धि होती है और उनके वाचन में प्रवाह आता है वैसे-वैसे सस्वर वाचन का त्याग करते जाना चाहिये। तीसरी कक्षा से बालक-बालिकाओं की मौन वाचन की गति सस्वर वाचन की अपेक्षा बढ़ जाती है। इसलिये तीसकी कक्षा से ही मौन वाचन का प्रारम्भ करना चाहिये।

गहन अध्ययननिष्ठतथा द्रुत वाचनोदृष्टि पाठों के मौन वाचन में भेद

गहन अध्ययननिष्ठ तथा द्रुत वाचनोदृष्टि पाठों के मौन वाचन में भिन्नता निम्नलिखित प्रकार है प्राथमिक कक्षाओं में एक ही पाठ्य-पुस्तक निर्धारित की जाती है, क्योंकि छात्रों का मानसिक विकास इतना अधिक नहीं हो पाता कि वे सहायक पुस्तकों का भी अध्ययन कर सकें।

 इसलिये एक ही पाठ्य-पुस्तक के गद्य-पाठ दो प्रकार के होते हैं। एक तो वे जिनमें भाषा पर अधिकार प्राप्त करना, विषयवस्तु का गहन अध्ययन करना, नवीन सूचना एकत्र करना एवं केन्द्रीय भाव की खोज करना आवश्यक हो जाता है, दूसरे वे जिनमें आनन्द प्राप्त करना मुख्य उद्देश्य होता है और द्रुत गति से पाठ के सारांश को समझना होता है।

पाठों के स्वरूप में इस भिन्नता के कारण गहन अध्ययननिष्ठ और द्रुत वाचनोदृष्टि पाठों में मौन वाचन का रूप भी बदल जाता है। गहन अध्ययननिष्ठ पाठों में मौन वाचन आत्मीकरण के सोपान के बाद कराया जाता है, क्योंकि जब तक छात्रों को कठिन शब्दों का अर्थ न ज्ञात हो जाय तब तक पठित अंश का भाव ग्रहण नहीं कर सकते, किन्तु द्रुत वाचन वाले पाठों में पठित अंश कठिन नहीं होता, उसमें तो विषयवस्तु का ही अधिग्रहण करना पड़ता है।

द्रुत वाचनोदृष्टि पाठों में मौन वाचन के उद्देश्य

द्रुत वाचनोदृष्टि पाठों में मौन वाचन के उद्देश्य एवं व्यवहारगत परिवर्तन- द्रुत वाचनोदृष्टि पाठों में मौन वाचन के उद्देश्य एवं व्यवहारगत परिवर्तन अग्रलिखित प्रकार हैं-

(1) छात्र पठित सामग्री पर पूछे गये प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।

(2) छात्र पठित सामग्री से निष्कर्ष निकाल सकता है।

(3) छात्र पठित सामग्री में तथ्यों, भावों एवं विचारों का चयन कर सकता है।

(4) छात्र पठन सामग्री को उपयुक्त शीर्षक दे सकता है।

(5) अनावश्यक अंगों को छोड़ते हुए मुख्य भावों को ग्रहण करते हुए पढ़ सकता है।

(6) प्रसंगानुसार अपिरिचत शब्दों, उक्तियों एवं मुहावरों के अर्थ का अनुमान लगा सकता है।

(7) शब्दकोष में दिये गये अनेक अर्थों में प्रसंगानुसार सही अर्थ जान सकता है।

(8) शब्दों का लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ समझ सकता है।

(9) साहित्य की विविध विधाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

अन्तिम व्यवहारागत् परिवर्तन उस समय आते हैं, जब छात्रों का मानसिक विकास अधिक हो जाता है।

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