अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त
यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के नितान्त विपरीत है, और इसके अनुसार अधिकार प्राकृतिक या स्वाभाविक नहीं वरन् कृत्रिम हैं। अधिकार राज्य की इच्छा और कानून के परिणाम होते हैं और एक व्यक्ति के केवल वे ही अधिकार हो सकते हैं, जिन्हें राज्य मान्यता प्रदान करता है। हमारे अधिकारों का अस्तित्व राज्य की इच्छा और कार्यों पर निर्भर करता हैं। राज्य पुराने अधिकारों को छीन सकता है और नये अधिकारों को जन्म भी दे सकता है। जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार राज्य द्वारा ही दिये गए हैं और राज्य ही इस बात का निर्णय करता है कि हमारे द्वारा इन अधिकारों का उपयोग किन परिस्थितियों में और किन सीमाओं के साथ किया जायेगा। इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य अधिकारों के सम्बन्ध में तीन प्रकार के कार्य करता है— (1) अधिकारों की परिभाषा करना, (2) उनकी सीमाएँ निर्धारित करना और (3) उनके उपभोग के आश्वासन की व्यवस्था करना।
वैधानिक सिद्धान्त अधिकारों की निरपेक्षता को भी स्वीकार नहीं करता और इस बात का प्रतिपादन करता है कि सामाजिक हित में व्यक्ति के अधिकारों को प्रतिबन्धित किया जा सकता है। और किया भी जाना चाहिए।
वैधानिक सिद्धान्त का समर्थन बेन्थम, ऑस्टिन, हॉब्स, हालैण्ड, आदि विद्वानों द्वारा किया गया है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादकों के अनुसार अधिकारों का मापदण्ड नैतिक आधार न होकर वास्तविकता होने के कारण, इस सिद्धान्त को वास्तविक कहा जा सकता है।
आलोचना- अधिकारों के वैधानिक सिद्धान्त की भी निम्नलिखित आधार पर आलोचना की जाती है-
(1) राज्य के आदेश कानूनों का निर्माण नही करते-राज्य अथवा शासन के आदेश से ही कानूनों का निर्माण नहीं हो जाता है, वस्तुतः राज्य अधिकारों को जन्म नहीं देता, उन्हें मान्यता प्रदान करता है और रक्षा करता है। उदाहरण के लिए, राज्य का कोई भी कानून चोरी, घूसखोरी और कालाबाजारी को व्यक्ति का अधिकार नहीं बना सकता है। इस सम्बन्ध में नॉमर्न वाइल्ड ने उचित ही कहा है, “कानून हमारे अधिकारों को मान्यता देता है और उनकी रक्षा करता है, परन्तु वह उन्हें जन्म नहीं दे सकता। अधिकारों को कानून का स्वरूप दिया जाए या न दिया जाए, उनका अपना अलग अस्तित्व है।” कोई भी अधिकार केवल इसलिए अधिकार नहीं होता है कि उसे कानूनी मान्यता प्राप्त है वरन् कानूनी मान्यता इसलिए प्रदान की जाती है कि नैतिक दृष्टि से यह व्यक्ति का अधिकार होता है। लाँस्की ने कहा है कि “अधिकारों का वैधानिक सिद्धान्त केवल यह बता सकता है कि वास्तव में राज्य का स्वरूप कैसा है, लेकिन उससे यह पता नहीं चलता कि राज्य ने जिन अधिकारों की मान्यता दी है, वे वास्तव में मान्यता योग्य हैं भी या नहीं।”
(2) राज्य निरंकुश व स्वेच्छाचारी हो जाएगा – यदि हम यह मान लें कि राज्य ही अधकारों का एकमात्र जन्मदाता है तो इसके परिणामस्वरूप राज्य निरंकुश व स्वेच्छाचारी हो जायेगा और शासन अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए व्यक्ति के अधिकारों का अन्त कर देंगे। आशीर्वादम् ने इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “यह कहना कि एकमात्र राज्य ही अधिकारों की पुष्टि करता है राज्य को निरंकुश बना देता है।” राज्य को हम ऊंचा स्थान देने को तैयार हैं, लेकिन उसे इतना ऊंचा स्थान नहीं दिया जा सकता। यदि सभी अधिकार राज्य द्वारा प्रदान किये जाने लगें, तो राज्य एक ‘विशालकाल दैत्य’ के रूप में प्रकट होने लगेगा। ऐसी स्थिति में व्यक्ति राज्य के हाथ कठपुतली मात्र बन जायेगा। वह हर बार हर प्रकार की सुविधा के लिए राज्य का मुँह ताकेगा और उसकी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रह जायेगी। वसतुतः राज्य की शक्ति और कार्यों की भी कुछ निश्चित सीमाएँ हैं, जैसे-राज्य इतिहास, परम्परा, रीति-रिवाज व नैतिकता की मर्यादाओं के अन्तर्गत रहते हुए भी कार्य करता है और इन्हीं मर्यादाओं में रहते हुए अधिकारों से सम्बन्धित कानूनों का निर्माण करता है। राज्य न तो निरंकुश होता है और न ही होना चाहिए। लाँस्की के शब्दों में, “अधिकारों की प्रतिष्ठा लिखित विधान की अपेक्षा अभ्यास और परम्परा निर्भर करती है।”
(3) कानून अधिकारों का उचित आधार नहीं— कानून अधिकारों का उचित आधार ही नहीं हो सकतें, क्योंकि कानून में नित्य संशोधन (परिवर्तन) होते रहते है। अधिकारों को उनका यथोचित महत्त्व और सम्मान प्रदान करने की दृष्टि से औचित्य की भावना को ही अधिकार के आधार रूप में स्वीकार किया जा सकता है। लॉर्ड ने ठीक ही कहा है कि “किसी भी प्रकार की नैतिक व्यवस्था अधिकारों की आवश्यकता की पूर्व-कल्पना है। इसके अभाव में प्रभाव, प्रयत्न, दावे या शक्तियाँ भी हो सकती है, परन्तु इनको अधिकार नहीं कहा जा सकता। अधिकार का आधार तो औचित्य की भावना ही होती है।”
(4) वैधानिक अधिकारों के सम्बन्ध में भी स्वीकार नहीं- उपर्युक्त आलोचना से बचने के लिए वैधानिक सिद्धान्त के कुछ प्रतिपादक यह कह सकते हैं कि राज्य केवल वैधानिक कानूनों का निर्माण करता है, परन्तु इस बात को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। व्यवहार में देखा जाता है कि समाज द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकारों को ही राज्य द्वारा स्वीकृत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त जैसा कि प्रो. हॉकिग्स ने कहा है, “विधि का किसी समय जो स्वरूप है और जो होना चाहिए उन दोनों के बीच सदैव ही अन्तर रहता है।” ऐसी स्थिति में वैधानिक सिद्धान्त यह तो बता सकता है कि एक विशेष परिस्थिति में नागरिकों को कौन-कौन से अधिकार प्राप्त है, लेकिन यह नहीं बतला सकता है कि कि नागरिकों को कौन-से अधिकार प्राप्त होने चाहिए।
महत्त्व- यद्यपि इस सिद्धान्त की इस प्रकार से आलोचनाएँ की जाती है, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इस सिद्धान्त में सत्य का अंश है। समाज की ओर से जिन स्वतन्त्रता और सुविधाओं को मान्यता प्रदान कर दी गयी है या व्यक्ति के नैतिक विकास के लिए जो स्वत्व या दावे अनिवार्य हैं, उन्हें उस समय तक अधिकार नहीं कहा जा सकता है, जब तक कि उन्हें राज्य के द्वारा मान्यता न प्रदान कर दी जाय। वस्तुतः अधिकारों के वैधानिक और नैतिक दो पक्ष होते है और अधिकारों के वैधानिक पक्ष पर बल देकर उसके द्वारा आंशिक सत्य का प्रतिपादन किया गया है।
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