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धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।

धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियां
धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियां

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धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियां

यद्यपि धर्म रूढ़िवादी प्रकृति का तथा वस्तु-स्थिति बनाये रखने का समर्थक है, परन्तु आधुनिक समाज की बदलती हुई द्रुतगामी परिस्थितियों के परिवेश में यह अपने आप को बचा नहीं पाया। फलस्वरूप धर्म में नयी प्रवृत्तियां दृष्टिगोचर हुई।

(1) धार्मिक कट्टरता का कम होना (Lessening of Religious Rigidity)- बदलते परिवेश में धार्मिक कट्टरता में कमी आयी है क्योंकि नवीन परिस्थितियों में धार्मिक नियमों का पहले जितनी कठोरता से पालन करना अब सम्भव नहीं है, इसीलिए समाज में चली आ रही कुरीतियों में कमी आयी है। अब समजा में छूआछूत व भेदभाव जैसी धारणाओं में कमी आयी है। हरिजनों की जहां परछाईं भी देखना बुरा था वहां अब वे सार्वजनिक स्थलों में बेरोकटोक आ-जा सकते हैं। इसी प्रकार से बाल-विवाह व सती प्रथा की भी समाप्ति हुई है तथा विधवा पुनर्विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह का प्रचलन हुआ है।

(2) धार्मिक कर्मकाण्डों का सरलीकरण (Simplification of Religious Rites)- औद्योगीकरण व नगरीकरण के फलस्वरूप मानव जीवन का मशीनीकरण हो गया है। ऐसे व्यस्त जीवन में मानव द्वारा जटिल व आडम्बरपूर्ण कर्मकाण्डों को करते रहना सम्भव नहीं है। अतः अब धर्म सरलीकरण की प्रक्रिया के दौर से गुजर रहा है। जहां विवाह से सम्बन्धित धार्मिक कर्मकाण्डो में पहले अत्यधिक समय लगता था वहां अब तीन-चार खण्डों में ही सब कुछ सम्पन्न हो जाता है।

(3) धार्मिक संकीर्णता में कमी (Lessening of Narrowness)- प्राचीन समय में धर्म की प्रकृति अत्यन्त संकीर्ण थी। सभी अपने धर्मों को श्रेष्ठ समझते तथा अन्य धर्मों को हेय दृष्टि से देखते थे। इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप कभी भी दो धर्मों का आपस में मेल नहीं हुआ, परन्तु बर्तमान समय में परिस्थितियां बदल चुकी हैं तथा सब धर्म अब एक-दूसरे को में समान दृष्टि से देखने लगे हैं। यही आज के समाज की सबसे महान् उपलब्धि है।

(4) मानवतावादी धर्म का विकास (Development of Humanitarian Religion ) – मानवतावादी धर्म की कल्पना समाजशास्त्र के जन्मदाता ऑगस्ट कॉम्ट ने अपने ‘मानवता के धर्म’ के अन्तर्गत की थी। श्री कॉम्ट के अनुसार दूसरों की सेवा के लिए अधिक-से अधिक समर्थ होना और उसके लिए शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक उन्नति करना मानवता के धर्म का उद्देश्य है। यह धर्म हिंसात्मक कार्यों का बहिष्कार करता है। प्रेम इसका सिद्धान्त है, सुव्यवस्था इसका आधार और प्रगति इसका ध्येय है। इस प्रकार विभिन्न धर्मों के होते हुए समस्त मानव समाज के लिए एक सामान्य धर्म की प्रतिस्थापना धार्मिक क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। गांधीजी ने भी ऐसी धर्म की कल्पना की थी।

(5) धर्म का व्यवसायीकरण (Commercialization of Religion)– आज धर्म आजीविका का एक साधन बन गया है। आज धर्म के ठेकेदार पण्डे-पुजारी अब उतनी निष्ठापूर्वक धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न नहीं करवाते हैं जितनी पहले कराते थे। आज इनका एकमात्र ध्येय येन केन प्रकारेण अपने जजमानों से खूब पैसा प्राप्त करना होता है। अब छोटे-से छोटे धार्मिक कार्य के लिए अधिकाधिक दक्षिणा देना आवश्यक है। पैसा देकर कोई भी व्यक्ति उलटी-सीधी जन्म-पत्री इनसे मिलवाकर योग्य वर अथवा वधू प्राप्त कर सकता है। हम समाचार पत्रों में नित्य ही ऐसे समाचार पढ़ सकते हैं जिसमें सन्तान प्राप्ति अथवा धन दुगुना कमाने या नक्षत्रों की शान्ति हेतु लोभ देकर कई लोगों को विशेष कर औरतों को लूटा जाता है। अधिक दान-दक्षिणा देने वालों को अधिक सुविधाएं दी जाती हैं। इस प्रकार धर्म का यह व्यवसायीकरण हमें सभी धर्मों में देखने को मिलेगा।

(6) धर्म में लौकिकीकरण (Secularization in Religion)– डॉ. श्री निवास ने लौकिकीकरण की अवधारणा दी। उनके अनुसार लौकिकीकरण वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत पहले हम जिस चीज को धार्मिक मानते थे, उसे अब हम धार्मिक नहीं मानते तथा साथ ही प्रत्येक स्थिति को हम तर्क के द्वारा समझने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार जिन अनुष्ठानों, व्रतों, यात्राओं, दान-दक्षिणा आदि को पहले धार्मिक निष्ठा व स्वर्ग प्राप्ति के कारण सम्पन्न किया जाता था, वे अब केवल धार्मिक निष्ठा के आधार पर ही सम्पन्न नहीं कर दिये जाते हैं, वरन् उनके पीछे कोई तर्क अवश्य होता है, जैसे- सप्ताह में एक व्रत रखना पाचन शक्ति के लिए अच्छा होता है, इसीलिए कई लोग सप्ताह में एक व्रत रखते हैं। लौकिकीकरण की धारणा के कारण ही वर्तमान में कई धार्मिक अनुष्ठानों व कर्णकाण्डों का प्रभाव क्षीण होता जा रहा है।

(7) धार्मिक कार्यों का अन्य संस्थाओं को हस्तान्तरण (Transfer of many Religous Functions to other Agencies)- डेविस के विचारानुसार संस्कृति के जटिल होने के साथ-साथ धार्मिक कार्यों का विभाजन अन्य संस्थाओं में हो जाता है। आज राज्य भी अनेक धार्मिक कार्यों में रुचि लेता है व कानून बनाकर उन पर नियन्त्रण रखता है। राज्य के अतिरिक्त अन्य कई संस्थाओं ने कई धार्मिक कार्यों को करना प्रारम्भ कर दिया है। इस प्रकार धार्मिक कार्य अब केवल धार्मिक संस्थाओं तक ही सीमित नहीं रह गये हैं। राजनीति भी अब धर्म में लिप्त है। हिन्दू महासभा, जमायते इस्लामी तथा अकाली दल इसके अच्छे व प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

(8) धर्म तथा धार्मिक नेताओं का प्रभुत्व क्षीण होना (Lessening of Importance of Religion and Religious Leaders)– विज्ञान की प्रगति धर्म तथा धार्मिक नेताओं की अवनति का कारण बनती जा रही है। पहले जहां हमारे सामाजिक जीवन व प्रतिष्ठा का आधार केवल धर्म व धार्मिक नेता थे, अब उनका स्थान दूसरों ने ले लिया है। अब धर्म के आधार पर ही केवल उच्च स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती, वरन् इसके लिए वैयक्तिक गुण, धंन, शिक्षा, उच्च व्यवसाय आदि भी आवश्यक हैं। इसीलिए धर्म परिवर्तन की मनोवृत्ति समाज में अधिक परिलक्षित हो रही है। इतिहास साक्षी है कि राज-पुरोहितों का सम्मान राजा से अधिक था। सम्राट भी राजपुरोहित के सम्मान में अपना सिंहासन छोड़ देता था, परन्तु अब ये समाज के अन्य सदस्यों की भांति ही सामान्य सदस्य हैं।

(9) धर्म मनोरंजन के साधन के रूप में (Religion as a Means of Recreation)- आज अलौकिक शक्ति में निष्ठा की प्रवृत्ति का ह्रास होता जा रहा है। आज तीर्थ-स्थलों की यात्रा उस दिव्य शक्ति से प्रेरित होकर नहीं, वरन् मनोरंजन व चिकित्सक की सलाह पर हवा बदलने के लिए की जाती है। धार्मिक उत्सवों पर भजन-कीर्तन, भोज का आयोजन केवल मनोरंजन, एक-दूसरे से मिलने-जुलने, खुशियां मनाने, आदि के लिए किया जाता है। अतः स्पष्ट है कि धर्म का एक अलौकिक व अभूतपूर्व शक्ति के रूप में महत्त्व क्षीण होता जा रहा है।

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