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बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त | Baudh Dharm Ke Pramukh Siddhant in Hindi

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त
बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त (Baudh Dharm Ke Pramukh Siddhant)

बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त महात्मा बुद्ध ने जगत व जीव को माना। मनुष्य अमर है अथवा नश्वर, सीमित है अथवा असीम, जीव और शरीर एक है अथवा अलग-अलग, बुद्ध इन उलझनों में नहीं पड़े। जब भी कभी किसी ने उनसे इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देने का आग्रह भी किया तो वे उन्हें निरर्थक मानकर टालते रहे। बुद्ध का दृष्टिकोण सदैव व्यावहारिक रहा, इस दृष्टिकोण से बुद्ध ने अपने धर्म की नैतिक व्याख्या की। बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्न प्रकार है-

(I) चार आर्य सत्य- (1) दुःख- बौद्ध धर्म दुःखवाद को लेकर चला है। समस्त संसार दुःखमय है। सभी प्राणी किसी-न-किसी दुःख से दुःखी है। दुःख के सम्बन्ध में बुद्ध स्वयं कहते हैं “जन्म भी दुःख है, जरा भी दुःख है, व्याधि भी दुःख है, मरण भी दुःख है, प्रिय वियोग दुःख है, अप्रिय मिलन भी दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना भी दुःख है।” में

(2) दुःख समुदाय – संसार में दुःख है, यह सत्य है। प्रश्न यह पैदा होता है कि इन सभी दुःखों का कारण क्या है? बुद्ध की दृष्टि से इसका कारण इच्छा अथवा तृष्णा है। इस तृष्णा का जन्म कओयं और कैसे होता है? इस सम्बन्ध में बुद्ध ने कहा था कि रूप, गन्ध, शब्द, रस, स्पर्श मानसिक विचारों एवं वितकों से मनुष्य जब आसक्ति करता है तो तृष्णा जन्म लेती है अर्थात् दुःख का कोई न कोई समुदाय (कारण) अवश्य होता है।

(3) दुःख निरोध– संसार दुःखमय है और दुःख के कारण समुदाय है, तो दुःख निरोध अथवा दुखों से मुक्ति भी सम्भव है। दुःख के कारण- तृष्णा के मूलोच्छेदन से दुःख से मुक्ति मिल सकती है। महात्मा बुद्ध का कहना था, “संसार में जो भी कुछ प्रिय लगता है उससे डरेंगे अथवा भयभीत होंगे, वे तृष्णा को छोड़ सकेंगे। इच्छाओं पर नियन्त्रण करके ही दुःख निरोध सम्भव हो सकता है।”

(4) दुःख निरोध का मार्ग – जब मनुष्य को दुःखों का कारण ज्ञात हो तो दुःखों पर विजय प्राप्त करन एका मार्ग सुलभ है। को भी मनुष्य इस मार्ग का अनुसरण करते हुए दुःखों पर नियन्त्रण कर सकता है। महात्मा बुद्ध ने जो मार्ग बतलाया, वह ‘दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा’ के नाम से जाना जाता है। इसके आठ अंग हैं, अतः इस मार्ग को ‘अष्टांगिक मार्ग’ भी कहा जाता है।

(II) अष्टांगिक मार्ग- संसार में उपलब्ध वस्तुओं को भोगने की इच्छा या तृष्णा ही समस्त दुःखों का मूल कारण है। यह इच्छा या तृष्णा ही आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर में जकड़े रहीत है। निर्वाण की प्राप्ति इच्छाओं को समाप्त करने पर भी सम्बव है। यदि मनुष्य सही रूप में अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करे तो इच्छाओं पर पूर्ण नियन्त्रण सम्भव हो सकता है। यह मार्ग ‘मध्यम मार्ग’ भी कहलाता है।

(i) सम्यक् दृष्टि- असत्य से ही चार आर्य सत्यों के तत्त्व का ज्ञान प्राप्त होता है। यह ज्ञान श्रद्धा एवं भावनायुक्त होना चाहिए। सदाचरण-दुराचरण, सत्य-असत्य, उचित अनुचित एवं पाप-पुण्य में अन्तर स्पष्ट करना ही सही ज्ञान है। (ii) सम्यक् संकल्प- हिंसा, राग-द्वेष, आदि सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग, आत्म कल्याण का दृढ़ निश्चय ही सम्यक संकल्प है। (iii) सम्यक् वाणी— सत्य, मृदु एवं विनम्र वचन एवं बोलने पर नियन्त्रण अथवा संयम ही सम्यक् वाणी है। (iv) सम्यक् कर्मान्त— हिंसा, द्वेष, दओह, ईर्ष्या एवं दुराचरण का परित्याग और सत्कर्मों का पालन ही सम्यक् कर्मान्त है। (v) सम्यक् आजीव– न्यायोचित मार्ग से आजीविका अर्जित करना ही सम्यक् आजीव है। (vi) सम्यक् व्यायाम–अच्छे कर्मों और उपकार के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना ही सम्यक् व्यायाम है। (vii) सम्यक् स्मृति- विवेक और स्मरण का अनुपालन करना तथा लोभ, आदि चित्त के सन्तापों से बचना ही सम्यक् स्मृति है। (viii) सम्यक् समाधि– राग-द्वेष और द्वन्द्व विनाश से रहित होकर चित्त को एकाग्र करना ही सम्यक् समाधि है। बुद्ध घोष के अनुसार समाधि कुशलचित्त की एकाग्रता है।

मध्यम मार्ग- महात्मा बुद्ध ने दुःखों से मुक्ति पाने हेतु जो अष्टांगिक मार्ग बताया, वह विशुद्ध आचरण पर आधारित था। इसमें न तो अधिक शारीरिक कष्ट एवं क्लेश मुक्त अधिक कठोर तपस्या को उचित बताया और न ही अत्यधिक भोग-विलासमय जीवन को । मूल रूप से यह दोनों अतियों के बीच का मार्ग है। इस कारण ही इसको मध्य मार्ग (मध्यम प्रतिपदा) भी कहा गया है। इसका सही रूप से पालन कर मनुष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।

(III) दस शील- महात्मा बुद्ध ने अपनी शिक्षाओं में नैतिकता अथवा शील को विशेष महत्त्व दिया। बुद्ध ने अपने अनुयायियों को मन, कर्म वचन की पवित्रता रखने पर अधिक जोर दिया। उन्होंने निम्न दस नैतिक आचरणों का पालन उचित बताया- (1) सत्य बोलना, (2) हिंसा न करना, (3) चोरी न करना, (4) आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना, (5) भोग-विलास से दूर रहना, (6) नाच-गाने का त्याग करना, (7) कुसमय भोजन न करना, से (8) सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग न (9) कोमल शय्या का त्याग करना, एवं (10) राग-कामिनी कंचन का त्याग करना।

(IV) वेदों की प्रामाणिकता में अविश्वास- महात्मा बुद्ध अन्धविश्वासी नहीं थे। उन्होंने वेदों की प्रामाणिकतां में अविश्वास प्रकट किया। वे वेदों को अन्तिम सत्य के रूप स्वीकार करने के तौयार नहीं थे। बौद्ध धर्म ईश्वर को सृष्टि का निर्माता अथवा नियन्ता नहीं मानता क्योंकि यह धर्म वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं रखता।

(V) अनात्मवाद- महात्मा बुद्ध ने यह स्वीकार किया कि आत्मा है और न यह कि आत्मा नहीं है। मूलतः बुद्ध ने आत्मा के सम्बन्ध में विवाद करने से ही इन्कार कर दिया। यदि महात्मा बुद्ध आत्मा को स्वीकारते तो मनुष्य को स्वयं अपने से ही आसक्ति हो जाती, जो कि दुःख का मूल कारण है। यदि वे आत्मा को अस्वीकारते तो मनुष्य यह विचार कर कि मृत्यु के बाद मेरा कुछ भी नहीं रहेगा, मानसिक वेदना से ग्रस्त होता। यही कारण है कि महात्मा बुद्ध इस विवाद में पड़ना उचित नहीं मानते थे।

(VI) कर्मवाद- महात्मा बुद्ध का कहना था कि जो मनुष्य जैसे कर्म करता है, वैसे ही फल उसे भुगतने पड़ते हैं। मनुष्य का यह लोक एवं परलोक उसके कर्म पर निर्भर है। वे मनुष्य के द्वारा मन, वचन व काया से की गयी चेष्टाओं को कर्म मानते थे। ये कर्म ही दुःख या सुख का कारण होते हैं।

(VII) पुनर्जन्म- महात्मा बुद्ध कर्मवाद में विश्वास करते थे। वे इस बात को स्वीकार करते थे कि कर्मों के अनुसार ही मनुष्य का पुनर्जन्म होता है। कर्मफल एवं पुनर्जन्म में गहरा सम्बन्ध है। महात्मा बुद्ध के अनुसार पुनर्जन्म अहंकार का होता है, आत्मा का नहीं। जिस समय मनुष्य की इच्छाएं और वासनाएं नष्ट हो जाती हैं, मनुष्य पुनर्जन्म के अर्थात् आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है।

(VIII) निर्वाण- इस धर्म का चर लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। ‘निर्वाण’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘बुझाना’। महात्मा बुदध का कहना था कि मानव मन में उत्पन्न होने वाली इच्छा या तृष्णा या वासना की आग को बुझा देने पर ही निर्वाण प्राप्ति सम्भव है। निर्वाण का अर्थ है जन्म-मरण की स्थिति से मुक्ति प्राप्त करना अथवा मोक्ष को प्राप्त करना ।

(IX) प्रतीत्य समुत्पाद – बौद्धधर्म कारमवादी है। प्रतीत्य का तात्पर्य है ‘इनके होने से’ एवं समुत्पाद का तात्पर्य ‘यह उत्पन्न होता है’- अर्थात् ‘इसके होने से यह उत्पन्न होता है। यानी किसी कारण से कोई भी बांत उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, इसको कार्य-कारण नियम भी कहा जा सकता है। यह बौद्ध धर्म के मूल उपदेशों में एक है।

(X) क्षणिकवाद- बौद्ध दर्शन क्षणिकता और परिवर्तन में विश्वास रखता है। क्षणिकवाद की उत्पत्ति प्रतीत्य समुत्पाद से मानी जाती है। जगत एवं जीवन में से कोई नित्य नहीं है, इनकी स्वतन्त्रता सत्ता नहीं है। यह दोओनं परिवर्तनशील एवं नाशवान हैं। बुद्ध का मानना था कि संसार परिवर्तनशील है, संसार की प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन जनसाधारण को हर समय दिखायी नहीं देता, जैसे नदी का प्रवाह परिवर्तित होने के उपरान्त भी पूर्ववत् ही दिखायी देता है।

महात्मा बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित हो गया— जो परम्परागत बुद्ध के नियमों को मानते थे ‘स्थविर’ कहलाये जो नियमों में परिवर्तन कर मानना के चाहते थे वे ‘महा साधिक’ कहलाये।

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