राजनीति विज्ञान / Political Science

राज्यपाल की शक्तियां | राज्यपाल के स्वविवेकी कार्य

राज्यपाल की शक्तियां- राज्यपाल के स्वविवेकी कार्य

दुर्गादास वसु और एम.सी. सीतलवाड ने अपनी रचनाओं में राज्यपाल के कुछ स्वविवेकी कार्यों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं :

( 1 ) मुख्यमन्त्री की निंयुक्ति- राज्यपाल का पहला कार्य मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करना है। यदि राज्य की विधानमण्डल में किसी एक राजनीतिक दल ने अपना नेता चुन लिया है, तो राज्यपाल के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह उसी व्यक्ति को मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्त करें, लेकिन यदि राज्य की विधानसभा में दलीय स्थिति स्पष्ट नहीं है या बहुमत वाले दल में नेता पद के लिए एक से अधिक दावेदार हैं, तो इस सम्बन्ध में राज्यपाल स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में स्वयं राज्यपाल के द्वारा ही निर्णय किया जाएगा कि किस व्यक्ति के नेतृत्व में स्थायी सरकार का गठन हो सकता है।

व्यवहार के अन्तर्गत भी ऐसी कुछ परिस्थितियां आयी है, जबकि राज्यपाल ने स्वविवेक से मुख्यमन्त्री को नियुक्त किया। 1952 में श्री सी. राजगोपालाचारी मद्रास राज्य विधानमण्डल के सदस्य भी नहीं थे और न ही कांग्रेस दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त था, लेकिन फिर भी राज्यपाल श्रीप्रकाश ने टी. प्रकाशन की बहुमत प्राप्त होने के दाबे की अवहेलना करते हुए सी. राजगोपालाचार्य को मुख्यमन्त्री पद ग्रहण करने के लिए आमन्त्रित किया। 1957 में उड़ीसा में हरेकृष्ण मेहताव तथा 1963 में उड़ीसा तथा केरल के मुख्यमन्त्रियों की जिस प्रकार से नियुक्तियां की गयी वह भी राज्यपाल द्वारा स्वविवेक से किया गया कार्य ही था। चतुर्थ आम चुनाव के बाद तो इस सम्बन्ध में राज्यपाल द्वारा स्वविवेक का प्रयोग किए जाने के अवसर और अधिक आये। पंजाब में 1970 में गुरनाम सिंह का दावा अस्वीकार कर प्रकाश सिंह बादल को मुख्यमन्त्री नियुक्त किया। 1969 में उत्तर प्रदेश में सत्ता कांगेस द्वारा समर्पित भारतीय क्रान्ति दल के नेता चररणसिंह और विरोधी दलों के नेता गिरधारी लाल ने मुख्यमन्त्री पद के लिए दावा प्रस्तुत किया, लेकिन राज्यपाल ने गिरधारीलाल के दावे को अस्वीकार की चरणसिंह को मुख्यमन्त्री बनाया। 1 मार्च, 1973 को श्रीमती सत्पथी के बाद राज्यपाल ने प्रगति दल के नेता बीजू पटनायक को सरकार बनाने का अवसर नहीं दिया, यद्यपि श्री पटनायक बहुमत का दावा कर रहे थे। इसी प्रकार 1977 में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमन्त्री शेख अब्दुल्ला के त्याग-पत्र के बाद कांग्रेस विधानमण्डल दल के नेता को सरकार बनाने का अवसर नहीं दिया गया, यद्यपि कांग्रेस दल को जम्मू-कश्मीर विधानमण्डल में स्पष्ट बहुमत प्राप्त था और कांग्रेस विधानमण्डल दल नेता द्वारा स्थायी सरकार देने की क्षमता का दावा किया जा रहा था। 1984 में सिक्किम, जम्मू-कश्मीर और आन्ध्र-प्रदेश में राज्यपाल द्वारा मुख्यमन्त्रियों की नियुक्ति में तथा 1997 में  उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भण्डारी द्वारा जगदम्बा पाल की मुख्यमन्त्री पद पर नियुक्ति में ऐसे आचरण को अपनाया गया है, जिसे ‘स्वविवेक क विवेकहीन प्रयोग के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता।

(2) मन्त्रिमण्डल को भंग करना- राज्यपाल को यह भी स्वविवेक शक्ति प्राप्त है कि वह मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ कर राष्ट्रपति से सिफारिश करे कि सम्बन्धित राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाए। राज्यपाल के द्वारा प्रमुखतया निम्न परिस्थितियों में मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ किया जा सकता है :

(i) यदि राज्यपाल को विश्वास हो जाए कि मन्त्रिमण्डल का विधानसभा में बहुमत समाप्त हो गया है तो राज्यपाल मुख्यमन्त्री को त्यागपत्र देने या विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर अपना बहुमत प्रमाणित करने के लिए कह सकता ऐसी स्थिति में यदि मुख्यमन्त्री अधिवेशन बुलाने के लिए तैयार न हो तो राज्यपाल मन्त्रिमण्डल को पदच्युत कर सकता है। पश्चिम बंगाल में राज्यपाल धर्मवीर द्वारा 1968 में अजय मुखर्जी मन्त्रिमण्डल को इसी आधार पर पदच्युत किया गया था।

(ii) यदि किसी मन्त्रिमण्डल के प्रति विधानसभा के अविश्वास का प्रस्ताव पारित हो जाने पर मन्त्रिमण्डल त्यागपत्र न दे तो राज्यपाल उसे पदच्युत कर सकता है।

(iii) यदि मन्त्रिमण्डल संविधान के अनुसार कार्य न कर रहा हो तो या उसकी नीतियों से राज्य या देश को खतरा हो या उसके द्वारा केन्द्र और राज्य के संघर्ष की स्थिति को जन्म दिया जा रहा हो, तब भी मन्त्रिमण्डल को पदच्युत किया जा सकता है। जनवरी 1976 में तमिलनाडु मन्त्रिमण्डल को इसी आधार पर पदच्युत किया गया था।

(iv) यदि स्वतन्त्र ट्रिब्यूनल द्वारा मुख्यमन्त्री को भ्रष्टाचार के आरोप में दोषी घोषित किया गया हो तो राज्यपाल उसे पदच्युत कर सकता है।” इन सबके अलावा उत्तर प्रदेश के चरणसिंह मन्त्रिमण्डल को तो 1970 में इस आधार पर पदच्चुत कर दिया गया कि शासन में भागीदार बड़े दल सत्ता कांग्रेस ने उसे समर्थन देना बन्द कर दिया है।

(3) विधानसभा का अधिवेशन बुलाना- सामान्य रूप से राज्यपाल मुख्यमन्त्री के परामर्श पर विधानसभा का अधिवेशन बुलाता है, किन्तु असाधारण परिस्थितियों में राज्यपाल स्वविवेक से भी विधानसभा का अधिवेशन बुला सकता है। यदि राज्यपाल के अनुसार कुछ ऐसे महत्वपूर्ण मामले हैं, जिन पर तुरन्त विचार किया जाना चाहिए, तो अनुच्छेद 174 के अन्तर्गत वह विधानसभा के अधिवेशन की कोई भी तिथि निश्चित कर सकता है। इस सम्बन्ध में वह मुख्यमन्त्री के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है, चाहे मुख्यमन्त्री को विधानसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। श्री संथानम और अन्य कुछ विद्वानों के द्वारा ऐसा ही विचार व्यक्त किया गया है।

इसके अलावा यदि राज्यपाल को मुख्यमन्त्री के बहुमत में सन्देह हो जाए तो वह मुख्यमन्त्री से शीघ्र अधिवेशन बुलाने के लिए कह सकता है और मुख्यमन्त्री द्वारा उसके परामर्श का स्वीकार न किए जाने पर वह स्वयं अधिवेशन बुला सकता है। डॉ. एल. एम. सिंघवी के अनुसार, “मन्त्रिमण्डल के बहुमत की जांच करना वह अपना ऐसा स्वविवेकीय अधिकार समझ सकता है जिसके लिए वह मन्त्रिमण्डल के परामर्श के विरूद्ध भी अपनी इच्छानुसार विधानसभा का अधिवेशन बुला सकता है।”

(4) विधानसभा को भंग करना – उत्तरदायी शासन की धारणा के अनुसार सामान्यतया यह माना जाता है कि विधानसभा को भंग करने का कार्य राज्यपाल उसी समय करेगा, जबकि मुख्यमन्त्री उन्हें ऐसा करने के लिए परामर्श दें, लेकिन विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल विधानसभा भंग करने के सम्बन्ध में मुख्यमन्त्री के परामर्श को मानने से इन्कार कर सकता है या मुख्यमन्त्री के परामर्श के बिना ही विधानसभा भंग कर सकता है। ऐसे उदाहरण है जिनमें इस सम्बन्ध में राज्यपाल ने अपने ही विवेक से कार्य किया। 1953 में ट्रावनकोर कोचीन में पराजित मन्त्रिमण्डल ने राज्यपाल को विधानसभा भंग रकने की सलाह दी, जिसे उसने स्वीकार कर लिया। 1984 में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल जगमोहन द्वारा फारूख अब्दुल्ला मन्त्रिमण्डल की विधानसभा भंग करने की सिफारिश को स्वीकार नहीं किया गया। 1976 में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा मुख्यमन्त्री के परामर्श के बिना ही विधानसभा को भंग किया गया था। न्यायाधीश सूरज प्रसाद और विधानशास्त्री के. संघानम का विचार है कि विधानसभा को भंग करने के सम्बन्ध में राज्यपाल स्वविवेक से कार्य कर सकता है।

( 5 ) मुख्यमन्त्री के विरूद्ध मुकदमा दायर करने की अनुमति देना – संवैधानिक व्यवस्था यह है कि राज्यपाल की अनुमति के बिना किसी भी पक्ष द्वारा मुख्यमन्त्री के विरूद्ध मुकदमा दायर नहीं किया जा सकता। 1995 के ‘जयललिता प्रकरण’ से स्पष्ट हो गया है कि जब कोई पक्ष भ्रष्टाचार या किन्हीं आरोपों के आधार पर मुख्यमन्त्री के विरूद्ध मुकदमा दायर करने के लिए राज्यपाल से अनुमति मांगता है, तब इस सम्बन्ध में वह अपने ही विवेक के आधार पर निर्णय करेगा अर्थात् वह स्वविवेक के आधार पर मुकदमा दायर करने की अनुमति दे सकता हैं। वर्तमान समय में जब हर किसी मुख्यमन्त्री के विरूद्ध भ्रष्टाचार के आरोप हैं, तब राज्यपाल की यह शक्ति व्यवहारिक राजनीति में बहुत अधिक महत्व प्राप्त कर लेती है। राज्यपाल द्वारा स्वविवेक के आधार पर किए गये इस कार्य को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती अवश्य ही दी जा सकती है।

इसके अलावा भी राज्यपाल के द्वारा स्वविवेक से कुछ कार्य किए जा सकते हैं। वह मुख्यमन्त्री से किसी विषय में सूचना मांग सकता है, वह मुख्यमन्त्री से कह सकता है कि वह किसी ऐसे मामले को, जिस पर किसी मन्त्री ने अकेले निर्णय कर लिया हों, समस्त मन्त्रिपरिषद् के सामने रखे। विधानमण्डल द्वारा पारित विधेयक यह पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है या राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज सकता है। 1957 में केरल के राज्यपाल द्वारा केरल शिक्षा विधेयक राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा गया था और इस सम्बन्ध में मुख्यमन्त्री से कोई परामर्श नहीं किया गया था।

इन सब बातों से हय नितान्त स्पष्ट है कि यद्यपि राज्यपाल को राज्य की कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसके साथ ही, “वह केवल नाममात्र का अध्यक्ष नहीं है। वह एक ऐसा अधिकारी है जो राज्य के शासन में महत्वपूर्ण रूप से भाग ले सकता है।” 

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