समानता और स्वतन्त्रता में सम्बन्ध अथवा स्वतन्त्रता और समानता एक दूसरे के पूरक है।
स्वतन्त्रता और समानता के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर राजनीतिशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद है। कुछ व्यक्तियों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता के लोक प्रचलित अर्थों के आधार पर इन्हें परस्पर विरोधी बताया गया है। इनके अनुसार स्वतन्त्रता अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है। जबकि समानता का तात्पर्य प्रत्येक प्रकार के सभी व्यक्तियों को समान समझने से है। इन व्यक्तियों का विचार है कि यदि सभी व्यक्तियों को स्वतन्त्रता प्रदान कर दी जाती है तो जीवन के परिणाम नितान्त असमान होंगे और शक्ति के आधार पर सभी व्यक्तियों को समान कर दिया जाए तो यह समानता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगी। केवल सामान्य व्यक्ति ही नहीं वरन् डी. टाकविले और लॉर्ड एक्टन जैसे राजनीति विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वानों का भी यह विचार है। कि स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी है। लॉर्ड एक्टन एक स्थान पर कहते हैं कि “समानता की उत्कृष्ट अभिलाषा के कारण स्वतन्त्रता की आशा ही व्यर्थ हो गयी है। “
किन्तु टाकविले और लॉर्ड एक्टन, आदि विद्वानों का विचार सत्य नहीं है। वस्तुतः लॉर्ड एक्टन, आदि विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता और समानता के जिस रूप की कल्पना की गयी है, स्वतन्त्रता और समानता का वह रूप न तो समाज में कहीं प्राप्त है औन ही राजनीति विज्ञान में स्वतन्त्रता और समानता को उस रूप में स्वीकार किया गया है। इस सम्बन्ध में लॉस्की ने लिखा है कि “डी. टाकविले और लॉर्ड एक्टन के मस्तिष्क में स्वतन्त्रता के प्रति उत्कृष्ट अभिलाषा होने के कारण ही उनके द्वारा स्वतन्त्रता और समानता को परस्पर विरोधी समझा गया, किन्तु यह एक गलत निष्कर्ष है और उनके द्वारा समानता का तात्पर्य गलत रूप से लेने के लिए कारण ही ऐसा किया गया ।” सभी व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता तो हॉब्स के बर्बर समाज में ही प्राप्त थी, जिसमें वास्तविक अर्थ में कोई भी स्वतन्त्र नहीं था। इसी प्रकार सभी व्यक्तियों की प्राकृतिक समानता या आय की समानता तो स्वप्नलोक की वस्तु है जिसे समानता पर आधारित साम्यवादी शासन की व्यवस्था के प्रमुख स्टालिन ने भी ‘मूर्खतापूर्ण बकवास’ कहा है।
राजनीति विज्ञान में स्वतन्त्रता और समानता को तात्पर्य लिखा जाता है, उस अर्थ में स्वतन्त्रता और समानता परस्पर विरोधी नहीं वरन् पूरक हैं । स्वतन्त्रता की ठीक परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि ‘स्वतन्त्रता जीवन की ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हो, विशेषाधिकार का नितान्त अभाव हो और व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएं प्राप्त हों।” इसी प्रकार समानता की सही रूप में परिभाषा करते हुए कहा जा कसता है कि “समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिनके अन्तर्गत सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हों और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके जिसका मूल सामाजिक वैषम्य है।”
स्वतन्त्रता और समानता की इन परिभाषाओं के अनुसार स्वतन्त्रता और समानता दोनों का ही उद्देश्य मानवीय व्यक्तित्व का उच्चतम विकास है और इस प्रकार स्वतन्त्रता और समानता एक दूसरे के सहायक और पूरक हैं, परस्पर विरोधी नहीं। इस सम्बन्ध में एक्टन ने लिखा है कि “विरोधाभास यह है कि समानता और स्वतन्त्रता जो कि परस्पर विरोधी विचार के रूप में प्रारम्भ होते हैं, विश्लेषण करने पर एक-दूसरे के लिए आवश्यक हो जाते हैं। यह सत्य है कि समानता के अर्थ की उचित व्याख्या स्वतन्त्रता के सन्दर्भ में ही जा सकती हैं।” यदि समान अवसरों के द्वारा सबके लिए खुले रहते हैं तो व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार अपनी शक्तियों का विकास करने की यथार्थ स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकता है। जिस समाज में किसी एक वर्ग के विशेषाधिकार प्राप्त रहते हैं और सामाजिक तथा आर्थिक अन्तर पाये जाते हैं, वहाँ वह वर्ग अन्य वर्गों पर दबाव डालने की अनुचित शक्ति प्राप्त कर लेता है और निम्न वर्गों के केवल नाममात्र की ही स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। लॉस्की के मतानुसार, “सम्पत्ति की असमानता स्वतन्त्रता की विरोधी है। साधनों के अभाव के कारण निर्धन व्यक्ति न्यायालयों से उचित न्याय नहीं प्राप्त कर सकते हैं और मुकदमेबाजी की लम्बी प्रक्रिया से धनी लोग अपने निर्धन पड़ोसियों को तबाहकर देते हैं।” एक अन्य स्थान पर लॉस्की लिखते हैं कि “यदि स्वतन्त्रता का अर्थ मानवीय आत्मा में लगातार विकास की शक्ति से है, तो यह समान लोगों के समाज के अतिरिक्त शायद ही कहीं सम्भव है। जहाँ गरीब और साहूकार हों, शिक्षित और अशिक्षित हों, वहाँ मालिक और नौकर जरूर मिलेंगे।”
वास्तव में, समानता के द्वारा स्वतन्त्रता के आधार के रूप में कार्य किया जाता है। एक ऐसे राज्य में जिसमें समानता नहीं है, स्वतन्त्रता हो ही नहीं सकती। इस बात को निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) यदि राजनीतिक समानता नहीं होती, तो स्वतन्त्रता व्यर्थ हो जाएगी और जनता के एक बहुत बड़े भाग को शासन में कोई भाग प्राप्त नहीं होगा।
(2) यदि नागरिक समानता नहीं होती, तो जो व्यक्ति नागरिक अयोग्यताओं में पीड़ित है, उन्हें स्वतन्त्रता उपलब्ध नहीं होगी।
(3) यदि सामाजिक समानता नहीं होगी तो स्वतन्त्रता कुछ ही व्यक्तियों का विशेषाधिकार हो जायेगा।
(4) यदि आर्थिक समानता नहीं होगी, तो धन कुछ ही व्यक्तियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएगा और केवल वही वर्ग स्वतन्त्रता का लाभ उठा सकेंगा।
ऐसी स्थिति में डॉ. आशीर्वादम ने ठीक ही कहा है कि “फ्रांस के क्रान्तिकारी न तो पागल थे और न ही मूर्ख, जब उन्होंने स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व का नारा लगाया था।”
प्रो. पोलार्ड ने इस सच्चाई को एक ही वाक्य में इस प्रकार व्यक्त किया है “स्वतन्त्रता की समस्या का केवल एक हल है और वह हल समानता में निहित है।” वास्तव में स्वतन्त्रता और समानता मानव जीवन सरिता के दो तट है, ये मानव कल्याण रूपी रथ के दो पहिये हैं, सत्य तथा शिव का जो अभिन्न सहयोग है, वहीं मानवीय जीवन में स्वतन्त्रता और समानता का है।
यह नितान्त सम्भव है कि भारत के गरीब किसानों और मजदूरों में अनेक व्यक्ति नेहरू और टैगोर के समान ही प्रतिभा सम्पन्न हों, लेकिन पर्याप्त सुविधाएं प्राप्त न होने के कारण वे अपने जीवन का विकास कर सके हों। वस्तुतः समानता के अभाव में सबसे अधिक योग्य व्यक्तियों की खोज उसी प्रकार ‘बहुत कठिन है, जिस प्रकार एक ऐसी दौड़ में सबसे तेज दौड़ने वाले व्यक्ति से का पता लगाना, जिसके अन्तर्गत प्रतियोगी अलग-अलग स्थानों से दौड़ शुरू करते हैं। इस प्रकार स्वतन्त्रता और समानता एक दूसरे की पूरक और सहायक हैं। आर.एच. टॉनी ने सत्य ही कहा है कि “समानता की एक बड़ी मात्रा स्वतन्त्रता की विरोधी न होकर इसके लिए आवश्यक है।”
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