स्वतन्त्रता का अर्थ
स्वतन्त्रता का अर्थ – आधुनिक युग में स्वतन्त्रता शब्द सबसे अधिक लोकप्रिय है और इस शब्द की लोकप्रियता का परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार स्वतन्त्रता के अलग-अलग अर्थ लेता है। अधिकांश मनुष्य स्वतन्त्रता का अर्थ मनमानी करने से या बिना किसी दूसरे व्यक्ति के हस्तक्षेप के अपनी इच्छानुसार कार्य करने से लेते हैं। स्वतन्त्र विचारक स्वतन्त्रता का अर्थ प्राचीन परम्पराओं एवं बन्धनों से मुक्त होने से लेते हैं, आध्यात्मिक सन्त स्वतन्त्रता का अभिप्राय सांसारिक मोह-माया से मुक्ति होने से लेते हैं और परतन्त्र देश के निवासी स्वतन्त्रता के स्वराज्य का पर्यायवाची समझते हैं, किन्तु व्यवहार में प्रचलित स्वतन्त्रता के इन विविध अर्थों में कोई भी अर्थ पूर्ण नहीं है।
स्वतन्त्रता का अंग्रेजी रूपान्तर ‘लेबर्टी’ लैटिन भाषा के ‘लिबर’ शब्द से निकला है जिसका अर्थ होता है ‘ बन्धनों का अभाव’, किन्तु ‘स्वतन्त्रता’ शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर प्रचलित इस अर्थ को स्वीकार नहीं किया जा सकता। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहते हुए मनुष्य असीमित स्वतन्त्रता का उपभोग कर ही नहीं सकता। उसे सामाजिक नियमों की मर्यादा के अन्तर्गत रहना होता है। अतः राजनीति विज्ञानके अन्तर्गत स्वतन्त्रता की जिस रूप में कल्पना की जाती है, उस रूप में स्वतन्त्रता मानवीय प्रकृति और सामाजिक जीवन के इन दो विरोधी तत्वों (बन्धनों का अभाव और नियमों के पालन) में सामंजस्य का नाम है और इनकी परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि “स्वतन्त्रता व्यक्ति की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति का नाम है। बशर्ते कि इनसे दूसरे व्यक्ति की इसी प्रकार की स्वतन्त्रता में कोई बाधा न पहुँचे।” 1789 की ‘मानवीय अधिकार घोषणा’ में यही कहा गया है कि स्वतन्त्रता वह सब कुछ करने की शक्ति का नाम है, जिससे दूसरे व्यक्तियों को आघात न पहुँचे।” सीले, लॉस्की, पैकेंजी, आदि विद्वानों ने भी स्वतन्त्रता की परिभाषा लगभग इसी प्रकार से की है।
स्वतन्त्रता की परिभाषा
सीले के अनुसार, “स्वतन्त्रता अति शासन की विरोधी है।”
प्रो. लॉस्की के शब्दों में, “स्वतन्त्रता से प्रेम अभिप्राय यह है उन सामाजिक परिस्थितियों के अस्तित्व पर प्रतिबन्ध न हो, जो आधुनिक सभ्यता में मनुष्य के सुख के लिए नितान्त आवश्यक है।’
मैकेंजी के अनुसार, “स्वतन्त्रता सभी प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव नहीं, अपितु अनुचित प्रतिबन्धों के स्थान पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था है।”
सीले, फ्रीमैन और मैकेंजी आदि विद्वानों द्वारा स्वतन्त्रता की जो परिभाषाएं की गयी है, उनमें स्वतन्त्रता का चित्रण अनुचित प्रतिबन्धों का अभाव या उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था के रूप किया गया है और इस प्रकार से परिभाषाएं स्वतन्त्रता के नकारात्मक स्वरूप को प्रकट करती हैं, किन जैसा कि गैटल ने कहा है, “स्वतन्त्रता का समाज में केवल नकारात्मक स्वरूप को प्रकट करती हैं, किन्तु जैसा कि गैटल ने कहा है, ‘स्वतन्त्रता का समाज में केवल नकारात्मक स्वरूप ही नहीं है, वरन् सकारात्मक स्वरूप भी हैं।’ स्वतन्त्रता के सकारात्मक या वास्तविक स्वरूप ही. नकारात्मक स्वरूप से भिन्नता बताते हुए टी. एच. ग्रीन ने लिखा है कि “जिस प्रकार सौन्दर्य कुरूपता के अभाव का नाम ही नहीं होता, उसी प्रकार स्वतन्त्रता प्रतिबन्धों के अभाव का ही नाम नहीं है।” आगे चलकर ग्रीन की स्वतन्त्रता के सकारात्मक रूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि स्वतन्त्रता के इस रूप की व्याख्या करते हुए लास्की ने कहा है कि “स्वतन्त्रता उस वातावरण को बनाये रखना है जिनमें व्यक्ति को अपने जीवन का सर्वोत्तम विकास करने की सुविधा प्राप्त हो|”
स्वतन्त्रता के प्रकार
फ्रांसीसी विद्वान् माण्टेस्क्यू ने एक स्थान पर कहा है कि स्वतन्त्रता के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐसा शब्द हो जिसके इतने अधिक अर्थ होते हों और जितने नागरिकों के मस्तिष्क पर इतना अधिक प्रभाव डाला हो।” माण्टेस्क्यू के इस कथन का कारण यह है कि राजनीतिक विज्ञान में स्वतन्त्रता के विविध रूप प्रचलित हैं, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
(1) प्राकृतिक स्वतन्त्रता
इस धारणा के अनुसार स्वतन्त्रता प्रकृति की देन है और मनुष्य जन्म से ही स्वतन्त्र होता है। इसी विचार को व्यक्त करते हुए रूसों ने लिखा है कि “मनुष्य स्वतन्त्र सम्पन्न उत्पन्न होता है, किन्तु सर्वत्र यह बन्धनों में बंधा हुआ है।”
प्राकृतिक स्वतन्त्रता का आशय मनुष्यों की अपनी इच्छानुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता से है। संविदावादी विचारकों का मत है कि राज्य की उत्पत्ति के पूर्व व्यक्तियों को इसी प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। संयुक्त राज्य अमेरिका की ‘स्वाधीनता घोषणा’ और ‘फ्रांस की राज्यक्रान्ति’ में इसी प्रकार की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया गया था। या राज्य व्यक्ति की स्वतन्त्रता की किसी भी प्रकार से सीमित या प्रतिबन्धित नहीं कर सकता है।
परन्तु प्राकृतिक स्वतन्त्रता की यह धारणा पूर्णतया भ्रमात्मक है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता की स्थिति में तो ‘मत्स्य न्याय’ का व्यवहार प्रचलित होगा और परिणमतः समाज में केवल कुछ ही व्यक्ति अस्थायी रूप से स्वतन्त्रता का उपभोग कर सकेंगे। व्यवहार में प्राकृतिक स्वतन्त्रता का अर्थ है केवल शक्तिशाली व्यक्तियों की स्वतन्त्रता । जिस समाज के अन्तर्गत स्वतन्त्रता का अस्तित्व शक्ति पर आधारित हो, वहां निर्बलों का कोई जीवन नहीं होगा। इसके अतिरिक्त समाज में रहकर निरपेक्ष स्वतन्त्रता का उपभोग नहीं किया जा सकता। सामूहिक हित में स्वतन्त्रता को सीमित करना नितान्त आवश्यक है।
इस धारणा की आलोचना की जाने पर भी इसका पर्याप्त महत्त्व है। यह सिद्धान्त इस बात पर प्रकाश डालता है कि प्रत्येक व्यक्ति की कुछ स्वाभाविक शक्तियां होती हैं तथा व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास इन शक्तियों के विकास पर ही निर्भर करता है। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह नागरिकों को इन शक्तियों के विकास हेतु पूर्ण अवसर प्रदान करे। वर्तमान समय में प्राकृतिक स्वतन्त्रता का विचार इन रूप में मान्य है कि व्यक्ति समान है और उन्हें व्यक्तित्व के विकास हेतु सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिए।
(2) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता
तात्पर्य यह है कि व्यक्ति के उन कार्यों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए, जिनका सम्बन्ध केवल उसके ही अस्तित्व से हो। इस प्रकार के व्यक्तिगत कार्यों में भोजन, वस्त्र, धर्म और पारिवारिक जीवन को सम्मिलित किया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के समर्थकों के अनुसार इनसे सम्बन्धित कार्यों में व्यक्तियों को पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए। व्यक्तिवादी और कुछ सीमा तक बहुलवादी विचारकों ने इस स्वतन्त्रता का प्रबल समर्थन किया है। मिल व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए ही कहते हैं कि “मानव जीवन को केवल आत्मरक्षा के उद्देश्य से ही, किसी व्यक्ति की स्वतन्त्रता में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से हस्तक्षेप करने का अधिकार हो सकता है। अपने ऊपर, अपने शरीर, मस्तिष्क और आत्मा पर व्यक्ति सम्प्रभु है।”
इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का उदार किया जाना चाहिए, लेकिन वर्तमान समय में सामाजिक जीवन इतना जटिल हो गया है कि व्यक्ति के जीवन के कौन से कार्य स्वयं उससे ही सम्बन्धित हैं, इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता है और अनेक बार ऐसे भी अवसर उपस्थित हो सकते हैं जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य, शालीनता और व्यवस्था के हित में व्यक्ति की भोजन सम्बन्धी, वस्त्र सम्बन्धी और धार्मिक स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करना पड़े। समाजवादी विचारधारा का तो आधार ही यह है कि व्यक्ति के सभी कार्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे समाज पर प्रभाव डालते हैं। अतः समाज के पास इन कार्यों को नियमित करने की शक्ति होनी चाहिए। इस प्रकारयद्यपि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के इस विचार को अब मान्यता प्राप्त नहीं रह गयी है, तथापि इस विचार में इतनी सत्यता अवश्य है कि जिन कार्यों का सम्बन्ध किसी एक व्यक्ति से हो, उनके विषय में उसे पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त होनी चाहिए।
(3) नागरिक स्वतन्त्रता
नागरिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय व्यक्ति की उन स्वतन्त्रताओं से है जो व्यक्ति समाज या राज्य का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। नागरिक स्वतन्त्रता का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर और अधिकार प्रदान करना होता है। अतः स्वभाव से ही यह स्वतन्त्रता असीमित या निरंकुश नहीं हो सकती है।
नागरिक स्वतन्त्रता दो प्रकार की होती है— (1) शासन के विरुद्ध व्यक्ति की स्वतन्त्रता, (2) व्यक्ति को व्यक्ति और व्यक्तियों के समुदाय से स्वतन्त्रता । शासन के विरुद्ध व्यक्ति की स्वतन्त्रता लिखित या अलिखित संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों के अध्ययन से या अन्य किसी प्रकार से स्वीकृत की जाती है। नागरिक स्वतन्त्रता का दूसरा रूप मनुष्य के वे अधिकार हैं जिन्हें वह राज्य के अन्य समुदायों और मनुष्यों के विरुद्ध प्राप्त करता है।
साधारणतया नागरिक स्वतन्त्रता का स्तर सभी राज्यों में एक-सा नहीं होता है। सोवियत रूस के संविधान द्वारा अपने नागरिकों को कुछ विशेष आर्थिक स्वतन्त्रताएं प्रदान की गयी हैं तो पश्चिमी प्रजातन्त्रों के द्वारा अपने नागरिकों को कुछ विशेष नागरिक स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गयी है। वस्तुतः जिरा राज्य में नागरिक स्वतन्त्रता का स्तर जितना ऊँचा होता है, उसे उतना ही अधिक लोकतन्त्रात्मक एवं लोककल्याणकारी राज्य कहा जा सकता है।
(4) राजनीतिक स्वतन्त्रता
अपने राज्य के कार्यों में स्वतन्त्रतापूर्वक सक्रिय भाग लेने की स्वतन्त्रता को राजनीतिक स्वतन्त्रता कहा जाता है। लॉस्की के अनुसार, “राज्य के कार्यों में सक्रिय भाग लेने की शक्ति ही राजनीतिक स्वतन्त्रता है।”
लीकॉक राजनीतिक स्वतन्त्रता का अर्थ संवैधानिक स्वतन्त्रता से लेते हैं जिसका विस्तार से अर्थ है कि जनता अपने शासक को अपनी इच्छानुसार चुन सके और चुने जाने के बाद भी ये शासक उनके प्रति उत्तरदायी हों।
राजनीतिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत व्यक्ति को ये अधिकार प्राप्त होते हैं- (1) मतदान देने का अधिकार, (2) निर्वाचन होने का अधिकार, (3) उचित योग्यता होने पर सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार और (4) सरकार के कार्यों की आलोचना का अधिकार। इन अधिकारों से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक स्वतन्त्रता केवल एक प्रजातन्त्रात्मक देश में ही प्राप्त की जा सकती है। राजनीतिक स्वतन्त्रता के अभाव में नागरिक स्वतन्त्रता का कोई मूल्य नहीं रह जाता क्योंकि राजनीतिक स्वतन्त्रताओं के उपयोग से ही समाज का निर्माण सम्भव होता है जिसमें नागरिक स्वतन्त्रताओं की रक्षा सम्भव हो सके।
(5) आर्थिक स्वतन्त्रता
वर्तमान समय में आर्थिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्ति की ऐसी स्थिति से है जिसमें व्यक्ति अपने आर्थिक प्रयत्नों का लाभ स्वयं प्राप्त करने की स्थिति में हो तथा किसी प्रकार उसके श्रम का दूसरे के द्वारा शोषण न किया जा सके। लॉस्की के अनुसार, “आर्थिक स्वतन्त्रता का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीविका कमाने की समुचित सुरक्षा तथा सुविधा प्राप्त हो व्यक्ति को बेरोजगारी और अपर्याप्तता के निरन्तर भय से मुक्त रखा जाना चाहिए जो कि अन्य किसी भी अपर्याप्तता की अपेक्षा व्यक्तित्व की समस्त शक्ति को बहुत अधिक आघात पहुँचाती है। व्यक्ति को कल को आवश्यकताओं से मुक्त रखा जाना चाहिए। कुछ विचारक आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ ‘उद्योग में प्रजातन्त्र’ की स्थापना से भी लगाते है। ‘उद्योग में प्रजातन्त्र’ की स्थापना का अर्थ यह है कि एक श्रमिक केवल अपने श्रम को बेचने वाला ही नहीं, वह उत्पादन व्यवस्था का निर्णायक भी है। कुछ भी हो, उद्योग में प्रजातन्त्र की स्थापना श्रमिक वर्ग के हित का एक साधन ही है और मूल रूप में आर्थिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य सभी व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताओं की सन्तुष्टि और गम्भीर आर्थिक विषमताओं के अन्त से ही है।
(6) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता
प्रत्येक व्यक्ति के स्वतन्त्रता के अधिकार के समान ही प्रत्येक राष्ट्र को भी स्वतन्त्र होने का अधिकार होना चाहिए और राष्ट्रों की स्वतन्त्रता सम्बन्धी इस व्यवस्था को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता कहा जाता है। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के विचार के अनुसार भाषा, धर्म, संस्कृति, नस्ल, ऐतिहासिक परम्परा, आदि की एकता पर आधारित राष्ट्र का यह अधिकार है कि वह स्वतन्त्र राज्य का निर्माण करे तथा अन्य किसी राज्य के अधीन न हो।
किन्तु जिस प्रकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता दूसरे व्यक्तियों की समान स्वतन्त्रता से सीमित होती है, उसी प्रकार एक राष्ट्र की स्वतन्त्रता भी दूसरे राष्ट्रों की समान स्वतन्त्रता से सीमित होती है। सम्पूर्ण मानवता के हित में ऐसा होना भी चाहिए।
(7) नैतिक स्वतन्त्रता
व्यक्ति को अन्य सभी प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्राप्त होने पर भी यदि वह नैतिक दृष्टि से परतन्त्र हो, तो उसे स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता है। नैतिक स्वतन्त्रता कही वास्तविक एवं महान् स्वतन्त्रता है। नैतिक स्वतन्त्रता का तात्पर्य व्यक्ति की उस मानसिक स्थिति से है जिसमें वह अनुचित लोभ-लालच के बिना अपना सामाजिक जीवन व्यतित करने की योग्यता रखता हो। काम्टे के विचार में व्यक्ति की विवेकपूर्ण इच्छा शक्ति ही उसकी वास्तविक स्वतन्त्रता है। प्लेटो, अरस्तू, ग्रीन, बोसांके तथा काण्ट ने इस बात पर बल दिया है कि नैतिक स्वतन्त्रता में ही मनुष्य का विकास सम्भव है।
वैसे तो सभी प्रकार के जीवन और शासन व्यवस्थाओं के लिए नैतिक स्वतन्त्रता की आवश्यकता होती है, किन्तु लोकतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था के लिए तो नैतिक स्वतन्त्रता नितान्त आवश्यक ही है।
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