राजनीति विज्ञान / Political Science

समानता का अर्थ तथा परिभाषा | औपचारिक और वास्तविक समानता में अन्तर | समानता के प्रकार

समानता का अर्थ तथा परिभाषा | औपचारिक और वास्तविक समानता में अन्तर | समानता के प्रकार
समानता का अर्थ तथा परिभाषा | औपचारिक और वास्तविक समानता में अन्तर | समानता के प्रकार

समानता का अर्थ तथा परिभाषा

साधारणतया समानता का यह अर्थ लगाया जाता है कि मनुष्य जन्म से ही समान होते हैं और इसी कारण सभी व्यक्तियों को व्यवहार और आय की समान अधिकार प्राप्त होना चाहिए, किन्तु स्वतन्त्रता का अभिप्राय उतना ही भ्रमपूर्ण है जितना यह कहना कि पृथ्वी समतल है। प्रकृति के द्वारा भी सभी व्यक्तियों को समान शक्तियाँ प्रदान नहीं की गयी हैं। मानवीय समाज में मोटे, पतले, लम्बे, नाटे, कुशाग्र और मन्द बुद्धि के जो विभिन्न प्राकर के व्यक्ति मिलते हैं, वे प्राकृतिक असमानता के उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त, इस प्रकार की असमानताकी धारणा को समाज द्वारा अपनाया जाना अनुचित नहीं वरन् असम्भव भी है।

वर्तमान समय में हम समाज में जिस प्रकार की असमानता देखते हैं, उस असमानता के कारण दो प्रकार के हैं और इन दो प्रकार के कारणों के आधार पर असमानता भी दो प्रकार की है। एक प्रकार की असमानता वह है जिसका मूल व्यक्तियों में प्राकृतिक भेद है। प्रकृति के द्वारा विभिन्न व्यक्तियों में बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से जो भेद किया जाता है और इस भेद के कारण जो असमानता उत्पन्न होती है, उसे प्राकृतिक असमानता कहते हैं। इस प्राकृतिक असमानता का निराकरण सम्भव और उचित नहीं है।

समाज में विद्यमान दूसरे प्रकार की असमानता वह है कि जिसका मूल समाज द्वारा उत्पन्न की गयी विषमताएँ हैं। अनेक बार बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से श्रेष्ठ होने पर भी निर्धन व्यक्तियों के बच्चे अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते, जैसा कि विकास उससे निम्नतर बुद्धिबल के धनिक बच्चे कर लेते हैं। इस सामाजिक असमानता का मूल कारण समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों का वह वैषम्य होता है जिसके कारण सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं। राजनीतिक जिसके कारण सभी व्यक्तियों के विकास के समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं। राजनीतिक विज्ञान की एक धारणा के रूप में समानता का तात्पर्य सामाजिक वैषम्य द्वारा उत्पन्न इस असमानता के अन्त से है। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य के सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विस्तार के समान अवसर दिए जाने चाहिए, ताकि किसी भी व्यक्ति को यह कहने का अवसर न मिले कि यदि उसे यथेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होतीं, तो वह भी अपने , जीवन का विकास कर सकता था। अतः समानता की विधिवत परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि “समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिनके कारण सब व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हो सके और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके, जिसका मूल कारण सामाजिक वैषम्य है। ”  लास्की ने इसी प्रकार का विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि, “समानता मूल रूप में समानीकरण की एक प्रक्रिया है। इसलिए प्रथमतः समानता का आशय विशेषाधिकारों के अभाव से है। द्वितीय रूप से इसका आशय यह है कि सभी व्यक्तियों को विकास हेतु पर्याप्त अवसर प्रापत होने चाहिए।

औपचारिक और वास्तविक समानता में अन्तर

औपचारिक समानता उस स्थिति का नाम है जिनमें एक देश के संविधान द्वारा सभी नागरिकों के लिए समानता की घोषणा कर दी जाए, लेकिन उस समानता की स्थिति को वास्तविक रूप में प्राप्त करने के लिए आवश्यक सार्थक प्रयत्न न किए जाएं। ऐस स्थिति में नागरिकों की समानता संविधान के पृष्ठों पर ही रह जाती है, जीवन की वास्तविकता नहीं बन पाती। यदि एक देश में जाति और धर्म के आधार पर बहुत अधिक भेदभाव की स्थिति हो, आर्थिक क्षेत्र में इतनी अधिक विषमताएं हों कि धनी व्यक्ति अपने धन के बलबूते पर निर्धन व्यक्तियों पर मनचाहा दबाव डाल सकें तो सामनता एक थोथी घोषणा बनकर रह जाती है-वास्तविकता का रूप नहीं ले पाती।

वास्तविकता समानता उस स्थिति का नाम है जिनमें देश के संविधान और कानूनों द्वारा न केवल समानता की घोषणा की जाए, वरन् व्यवहार में उन परिथितियों की भी व्यवस्था की जाए जिनके आधार पर नागरिकों के द्वारा वास्तव में समानता का उपभोग किया जा सके।

वास्तविक समानता की प्राप्ति के लिए आवश्यक परिस्थितियां

समानता मात्र औपचारिकता ही न रहे, वरन् एक वास्तविकता की स्थिति को प्राप्त कर सके, इसके लिए निम्न परिस्थितियों को अपनाना नितान्त आवश्यक है-

1. स्वतन्त्रता और समानता की सन्तुलित धारणा को अपनाना- कुछ व्यक्ति स्वतन्त्रता का आशय सभी बातों के सम्बन्ध में अपनी इच्छानुसार कार्य करने की शक्ति से लेते हैं और समानता का तात्पर्य ‘सभी व्यक्तियों की पूर्ण समानता’ विशेषतया ‘सभी व्यक्तियों के लिए एक समान वेतन’ से लेते हैं, वस्तुतः स्वतन्त्रता और समानता अर्थों में ग्रहण करना होगा। स्वतन्त्रता और समानता दोनों का ही उद्देश्य मानवीय व्यक्तित्व को उच्चतम विकास है। स्वतन्त्रता की उचित परिभाषा देते हुए कहा जा सकता है कि “स्वतन्त्रता, जीवन की ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें व्यक्ति के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हों, विशेषाधिकार का नितान्त अभाव हो और व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु अधिकतम सुविधाएं प्राप्त हों।” इसी प्रकार समानता की सही रूप में परिभाषा करते हुए कहा जा सकता है कि “समानता का तात्पर्य ऐस परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिसके अन्तर्गत सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर प्राप्त हों और इस प्रकार उस असमानता का अन्त हो सके, जिसका मूल सामाजिक विषमताएं है।”,

2. विशेषाधिकारों का अभाव- जिस समाज में धर्म, जाति या जन्म के आधार पर किन्हीं व्यक्तियों को विशेषाधिकार प्राप्त हों, उस समाज में वास्तविक समानता को प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं होता। वास्तविक समानता की प्राप्ति के लिए विशेषाधिकारों के अभाव की स्थिति नितान्त आवश्यक है।

3. व्यक्तित्व के विकास हेतु समान अवसर- आज हम जो असमानताएं देखते हैं, मूल रूप में उसके दो कारण हैं। एक प्रकार की असमानता वह है जिसका मूल कारण व्यक्तियों में बुद्धि, बल और प्रतिभा का प्राकृतिक भेद है, लेकिन अधिकांश उदाहरणों में उस दूसरे प्रकार की असमानता को देखा जाता है जिसका मूल समाज द्वारा उत्पन्न की गयी विषमताएं हैं। अनेक बार बुद्धि, बल और विद्या दृष्टि से श्रेष्ठ होने पर भी निर्धन परिवारों के बच्चे अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाते, जैसा विकास उनसे निम्नतर बुद्धि बल के धनिक परिवारों के बच्चे कर लेते हैं। वास्तविक समानता की स्थापना के लिए सामाजिक वैषम्य द्वारा उत्पन्न इस असमानता का अन्त आवश्यक है। राज्य के द्वारा सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास के समान अवसर दिये जाने चाहिए, ताकि किसी भी व्यक्ति को यह कहने का अवसर न मिले कि यदिउसे यथेष्ठ सुविधाएं प्राप्त होती, तो वह भी अपने जीवन का विकास कर सकता था।

जब हम व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसर की बात करते हैं तो उसमें यह बात निहित है कि राज्य के द्वारा निर्धन परिवारों के बच्चों को सम्पन्न परिवरों के बच्चों की तुलना में विकास के लिए अधिक सुविधाएं दी जानी चाहिए, तभी निर्धन परिवारों के बच्चे कुलीन परिवारों में पालित-पोषित बच्चों के साथ प्रतियोगिता कर पाएंगे और ‘समान अवसरों की स्थिति उत्पन्न हो सकेगी। भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए ‘स्थानों के आरक्षण’ की हो व्यवस्था की गयी है वह समानता का उल्लंघन नहीं, वरन् वास्तविक समानता की प्राप्ति का ही एक प्रयत्न है।

4. पर्याप्त सीमा तक जाति और धर्म निरपेक्ष समाज- वास्तविक समानता की प्राप्ति। तभी सम्भव है जबकि सामाजिक जीवन में जन्म, धर्म, जाति और लिंग पर आधारित भेदों को अधिक नहीं दिया जाए। इसके लिए धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना ही पर्याप्त नहीं होती, इससे आगे बढ़कर ‘धर्म और जाति निरपेक्ष समाज’ की स्थापना के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए। इसी बात को दृष्टि में रखते हुए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा ‘अस्पृश्यता के अन्त’ की व्यवस्था की गयी है।

5. अधिकतम सम्भव सीमा तक आर्थिक समानता की स्थापना- समानता की स्थापना के लिए उपर्युक्त बातों का महत्व है, लेकिन सर्वाधिक आवश्यकता बत – वास्तविक निश्चित रूप से यह है कि अधिकाधिक सम्भव सीमा तक आर्थिक समानता की स्थापना की जाए। अर्थ और आर्थिक स्थिति सासामजिक जीवन का बहुत अधिक महत्वपूर्ण तत्व है और जब तक आर्थिक क्षेत्र में समानता की स्थापना नहीं होगी, राजनीतिक और नागरिक समानताएं मात्र ‘थोथी घोषणाएँ’ बनकर रह जाएंगी। धनी व्यक्ति अपने धन के बलबूत पर समाज के निर्धन व्यक्तियों के जीवन पर अधिकार कर लेंगे और निर्धन व्यक्तियों के लिए समानता मात्र एक ‘चुनावी नारा’, बनकर रह जाएगी । वास्तविक समानता की स्थापना के लिए अधिक से अधिक सम्भव सीमा तक आर्थिक समानता की स्थापना नितान्त आवश्यक है।

आर्थिक समानता का तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों की आयु में बहुत अधिक असमानता नहीं होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, उसकी आय में इतना अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए कि एक व्यक्ति अपने धन के बल पर दूसरे व्यक्तियों के जीवन पर अधिकार कर ले। जब तक सभी व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताएं सन्तुष्ट नहीं हो जाती हैं, उस समय तक समाज के किन्हीं भी व्यक्तियों को आरामदायक एवं विलासिता के साधनों के उपभोग का अधिकार प्राप्त नहीं होना चाहिए। वस्तुतः धन का उचित वितरण होने पर ही वास्तविक समानता को प्राप्त किया जा सकेगा।

समानता के प्रकार

स्वतन्त्रता के समान ही समानता के भी अनेक प्रकार हैं, जिनमे निम्नलिखित प्रमुख है-

1. प्राकृतिक समानता

प्राकृतिक समानता के प्रतिपादक इस बात पर बल देते हैं कि प्रकृति ने मनुष्यों को समान बनाया है और सभी मनुष्य आधाभूत रूप में बराबर हैं। सामाजिक समझौता सिद्धान्त के प्रतिपादकों ने प्राकृतिक अवस्था में मनुष्यों की समानता का विशेष रूप से उल्लेख किया है। वर्तमान समय में प्राकृतिक समानता की इस धारणा को अमान्य किया जा चुका है और इसे ‘कोरी कल्पना’ योग्यता, सृजनात्मक शक्ति, समाज सेवा की भावना और सम्भवतः सबसे अधिक कल्पना-शक्ति में एक-दूसरे से मूलतः भिन्न है।

2. सामाजिक समानता

सामाजिक समानता का तात्पर्य यह है कि समाज के विशेषाधिकारों का अन्त हो जाना चाहिए और समाज में सभी व्यक्तियों को व्यक्ति होने के नाते ही महत्व दिया जाना चाहिए। समाज में जाति, धर्म, लिंग और व्यापार के आधार पर विभिन्न व्यक्तियों में किसी प्रकार का भंद नहीं किया जाना चाहिए। सामाजिक दृष्टिकोण से सभी व्यक्ति समान होने चाहिए और उन्हें सामाजिक उत्थान के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए। भारत की जाति-व्यवस्था और दक्षिण अफ्रीका में प्रचलित रंगभेद सामाजिक समानता के घोर विरुद्ध हैं।

3. नागरिक समानता

नागरिक समानता के सामान्यतः दो अभिप्राय लिए जाते है। प्रथम, राज्य के कानूनों की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान होने चाहिए और राज्य के कानूनों द्वारा दण्ड या सुविधा प्रदान करने में व्यक्ति कोई भेद नहीं किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी व्यक्तियों को नागरिकता के अवसर अर्थात् नागरिक अधिकार एवं स्वतन्त्रताएं समान रूप से प्राप्त होने चाहिए। सारांशतः सभी व्यक्तियों को कानून का समान संरक्षण प्राप्त होना चाहिए।

4. राजनीतिक समानता

वर्तमान समय में राजनीतिक समानता पर भी बहुत अधिक बल दिया जाता है। राजनीतिक समानता का अभिप्राय सभी व्यक्तियों को समान राजनीतिक अधिकार एवं अवसर प्राप्त होने से है, परन्तु इस सम्बन्ध में पागल, नाबालिग और घोर अपराधी व्यक्ति अपवाद कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनके द्वारा अपने मत का उचित प्रयोग नहीं किया जा सकता। राजनीतिक समानता का आशय यह है कि राजनीतिक अधिकार प्रदान करने के सम्बन्ध में रंग, जाति, धर्म और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए और सभी व्यक्तियों को समान राजनीतिक अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।

5. आर्थिक समानता

वर्तमान समय में इस तथ्यपूर्ण विचार को लगभग सभी पक्षों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है कि मानव जीवन में आर्थिक समानता का महत्व सबसे अधिक है और आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक एवं नागरिक समानता नहीं होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, उनकी आय में इतना अधिक अन्तर नहीं होना चाहिए कि एक व्यक्ति अपने धन के बल पर दूसरे व्यक्तियों के जीवन पर अधिकार कर ले। जब तक सभी व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताएं सन्तुष्ट नहीं हो जाती हैं, उस समय तक समाज के किन्हीं भी व्यक्तियों को आरामदायक एवं विलासिता के साधनों के उपभोग का अधिकार नहीं प्राप्त होना चाहिए। इस प्रकार आर्थिक समानता धन के उचित वितरण पर बल देती है।

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