राजनीति विज्ञान / Political Science

सिद्धान्त निर्माण में डेविड ईस्टन के विचार | सिद्धान्त निर्माण पर आर्नाल्ड ब्रेख्त के विचार| सिद्धान्त निर्माण पर कार्ल डायश के विचार

सिद्धान्त निर्माण में डेविड ईस्टन के विचार | सिद्धान्त निर्माण पर आर्नाल्ड ब्रेख्त के विचार| सिद्धान्त निर्माण पर कार्ल डायश के विचार
सिद्धान्त निर्माण में डेविड ईस्टन के विचार | सिद्धान्त निर्माण पर आर्नाल्ड ब्रेख्त के विचार| सिद्धान्त निर्माण पर कार्ल डायश के विचार

सिद्धान्त निर्माण में डेविड ईस्टन के विचार

डेविड ईस्टन – डेविड ईस्टन आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त के निर्माण, प्रसार एवं आवश्यकता का प्रबल व प्रमुख समर्थक है। उसका मत है कि राजनीति विज्ञान का भविष्य उसके भविष्य निर्देशन व सामंजस्य की समस्या का समाधान राजनीति सिद्धान्त द्वारा ही सम्भव है। अतएव इस प्रकार के सामान्य सिद्धान्त के निर्माण की आवश्यकता है जो कि अनुशासन के रूप में राजनीति विज्ञान के सम्पूर्ण विषय-क्षेत्र को दिशा-निर्देश, सामंजस्य और व्यवस्था प्रदान कर सके। डेविड ईस्टन का मत है कि सिद्धान्त सवर्गों का प्रखर, आनुभविक, संगतिपूर्ण और तर्कपूर्ण एकीकृत समुच्चय है। इसके द्वारा राजनीति जीवन का विश्लेषण एक राजनीतिक व्यवहार की व्यवस्था के रूप में करना सम्भव हो जाता है। इस प्रकार ईस्टन के सिद्धान्त में व्याख्यात्मकता के साथ-साथ राजनीतिक तथ्यों का विश्लेषण करने की योजना भी निहित है।

डेविड ईस्टन का सिद्धान्त अवधारणात्मक विचारबन्ध के रूप में प्रस्तुत हुआ है। उसकी केन्द्रीय विषय-सामग्री राजनीति है। उसके लिए राजनीति का अभिप्राय समाज के लिए मूल्यों के प्रावधान से सम्बन्धित समस्त गतिविधियों है। ये गतिविधियाँ व्यवहारिक व वैज्ञानिक पद्धति द्वारा विश्लेषण का विषय होना चाहिए। प्रक्रिया में सर्वप्रथम प्राक्कल्पनाएं अथवा परिकल्पनाए निहित हैं। इसके उपरान्त उनका आनुभविक अवलोकन व विश्लेषण किया जाता है तथा सिद्धान्त अथवा सामान्यीकरण प्राप्त किये जाते हैं। ‘अवधारणात्मक विचारबन्ध’ में आवधारणाएँ व विचारबन्ध निहित हैं। ये सिद्धान्त निर्मित करती हैं। इनके उदाहरण व्यवस्था, विश्लेषण, संरचनात्मक प्रकार्यवाद, समूह सिद्धान्त आदि हैं। प्रत्येक अपने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से विषय सामग्री का चयन, प्रेक्षण व वर्गीकरण करता है। यह शोध को अनुसंधान की एक अमूर्त परियोजना देकर मार्ग दिग्दर्शन करता है। इसी के आधार पर वह अपनी विषय-सामग्री का अन्वेषण, निर्धारण, अवलोकन, वर्गीकरण व समीकरण करता है।

विचारबन्ध दो वर्गों में विभक्त किये जा सकते हैं-

(1) वे विचारबन्ध जो राजनीतिक इकाइयों से सम्बन्धित हैं।

(2) वे विचारबन्ध जो राजनीतिक प्रक्रियाओं से सम्बन्धित है।

प्रथम वर्ग के विचारबन्धों में व्यक्ति, समूह, संस्कृति, संगठन आदि का समावेश होता है। द्वितीय वर्ग के विचारबन्धों में घटनाओं के लम्बे अनुक्रम का अध्ययन किया जाता है। ईस्टन का मत है कि राजनीतिक व्यवस्था के उपयुक्त विश्लेषण के लिए इस प्रकार का

विचारबन्ध अत्यधिक आवश्यक है। इसके द्वारा राजनीतिक के चरों का ज्ञान किया जा सकता है। तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जा सकता है। इस प्रकार यह विचारबन्ध शोध की विश्लेषण योजना है। कोई भी अनुसंधान अवधारणात्मक विचारबन्ध के बिना अनुसंधान का विषय नहीं माना जा सकता। दूसरे शब्दों में विचारबन्ध के अन्तर्गत रहकर ही विचारबन्ध सम्भव है। अतः कतिपय तथ्यों का चयन व वर्गीकरण करने के बाद उन वर्गों को बड़े वर्गों में रखकर ‘प्रकारणाओं’ को निर्मित किया जाना चाहिए।

इस प्रक्रिया से पूर्व अपनी विषय-सामग्री स्पष्ट रूप से ज्ञात करना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में सर्वप्रथम परिकल्पित सिद्धान्त के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक है। ईस्टन के सिद्धान्त के सम्बन्ध में तथ्यों व मूल्यों को प्रधान स्थान प्राप्त है। इसके परिणासम्वरूप सैद्धान्तिक वैज्ञानिकता अत्यधिक विवादग्रस्त बन गई है। मीहान ने डेविड ईस्टन के विचारों पर अपना मत प्रकट करते हुए कहा है, “पारसन्स की भाँति, ईस्टन सिद्धान्त की व्याख्या की शब्दावली में नहीं वरन् अवधारणात्मक विचारबन्ध के अर्थों में सोचता है। इसका परिणाम एक ऐसी अमूर्त संरचना है कि तार्किक दृष्टि से संदेहास्पद, अवधारणात्मक आधार पर धूमिल है और आनुभाविकता के बिन्दु से अनुपयोगी है। “

सिद्धान्त निर्माण पर आर्नाल्ड ब्रेख्त के विचार

आर्नाल्ड ब्रेख्त- ब्रेख्त ने केवल राजनीतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। सिद्धान्त की परिभाषा करते हुए उसने कहा है कि, “यह एक प्रकार की प्रस्तावना अथवा प्रस्तावनाओं का समूह है जो विषय सामग्री के सन्दर्भ में प्रत्यक्षतः पर्यवेक्षित अथवा अप्रकट अन्तः सम्बन्धों की या विषय की व्याख्या करता हैं।” उसके अनुसार विज्ञान “अन्तः स्वानुभूतिमूलक संचारणीय ज्ञान है। ” विज्ञान के दो अर्थ हैं—व्यापक व संकुचित । व्यापक अर्थों में विज्ञान के अन्तर्गत शुद्ध तर्क, अन्तःज्ञान, स्वयं साक्ष्य, धर्म प्रकाशन आदि हैं। दूसरी ओर संकुचित अर्थों में विज्ञान का आधार वैज्ञानिक पद्धति, आनुभविक पर्यवेक्षण, तर्कपूर्ण युक्तियाँ आदि हैं। ब्रेख्त ने राजनीति को वैज्ञानिक स्तर प्रदान करते हुए विज्ञान के संकुचित अर्थों को ही स्वीकार किया है। इस प्रकार, वैज्ञानिक सिद्धान्त एक अन्तः सम्बन्ध व्याख्यात्मक प्रस्तावनाओं की व्याख्या है। ओरन आर. यंग ने बैख्त के सिद्धान्त पर विचार प्रकट करते हुए कहा है कि, “वैज्ञानिक सिद्धान्त सामान्यतया परिवत्यों की अन्तःक्रियाओं के पूर्वकथित परिणामों का विचारबन्ध है।”

इस प्रकार वैज्ञानिक सिद्धान्त एक सत्यापित प्राक्कल्पना है। इस प्राक्कल्पना का सत्यापन निगमनात्मक व प्रत्यक्षात्मक पद्धतियों के आधार पर होता है। वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त में परीक्षणशीलता अधिकाधिक होनी आवश्यक है।

उपरोक्त धारणाओं के आधार पर आधुनिक राजनीतिक सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

(i) वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त में इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आनुभविक तथ्यों का अध्ययन किया जाता है।

(ii) वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त में अध्ययन की मान्य व सर्वसम्मत वैज्ञानिक पद्धतियाँ तथा अन्य इसी प्रकार की प्राविधियाँ अपनायी जाती हैं।

(iii) वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त में अध्ययनकर्ता अथवा शोधकर्ता स्वयं को अपने अध्ययन के मूल्यों से प्रभावित नहीं होने देता।

(iv) इसमें अध्ययनकर्ता अवलोकन अथवा अध्ययन करने के पूर्व एक अवधारणात्मक रूपरेखा तैयार कर लेता है।

(v) अध्ययनकर्ता व्याख्या योग्य सिद्धान्त को स्वरूप देने से पहले शोध अथवा विश्लेषण के परिणामों, निष्कर्षों अथवा सामान्यीकरण को एक दूसरे से सम्बन्धित करता है।

(vi) वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त में शब्द, प्रक्रियाएँ आदि निश्चित तकनीकी रूप ग्रहण कर लेते हैं। (vii) इस प्रकार प्राप्त किया ज्ञान निर्धारित पद्धतियों और प्रविधियों द्वारा समझा तथा परखा जा सकता है। इस प्रकार यह ज्ञान विश्वसनीय, पूर्वकथनीय व उपयोगी होता है।

सिद्धान्त निर्माण पर कार्ल डायश के विचार

कार्ल डायस – डायश ने अपने निबन्ध में ‘राजनीतिक सिद्धान्त तथा राजनीतिक मार्ग मीमांसा में यह विश्लेषण किया है कि ज्ञान किस प्रकार सिद्धान्त को जन्म देता है। उसका मत है। कि एक सिद्धान्त अनेक प्रकार के ज्ञान को जन्म देता है। अपनी सुविधा के लिए यह नौ भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम पाँच पक्ष मुख्य रूप से सिद्धान्त की भागवत विशेषताओं का प्रदर्शन करते हैं, अन्तिम चार में क्रियाशीलता पर जोर दिया है। ये नौ पक्ष निम्न प्रकार हैं-

(1) सिद्धान्त स्मृतियों को कुशलतापूर्वक संग्रहण करने तथा भूल को विस्मृतियों से निकालने का एक व्यवस्थित प्रयास है। इस प्रकार प्रत्येक सिद्धान्त एक कोडिंग स्कीम है। उसकी क्षमता की निर्भरता कोडिंग की दक्षता पर है।

(2) सिद्धान्त अन्तर्दृष्टि की गहनता में सहायता प्रदान करता है। सिद्धान्तों की सहायता से बाह्य जगत् की वस्तुओं, घटनाओं, सम्बन्धों, प्रतीकों आदि का व्यवस्थित स्वरूप भली-भाँति अभिज्ञात किया जा सकता है। यह उनके नामकरण में भी सहायक होता है।

(3) सिद्धान्त ज्ञान का सुगठित सरलीकरण करता है। राजनीतिक विज्ञान जैसे शक्ति, औचित्य, प्राकृतिक आदि सिद्धान्त अपने व्यवहारवादी समर्थन अथवा खण्डन हेतु इसी प्रकार के सरलीकरण का कार्य कर सकते हैं, जिनसे राजनीति सम्बन्धी सूचनाओं का सुनियोजित हो सकता है।

(4) यूरुरेस्टिक्स सिद्धान्तों द्वारा निरीक्षण, प्रयोग और आविष्कारों के नवीन शोध उपकरण खोले जा सकते हैं। किसी सिद्धान्त की ह्यूरुरेस्टिक प्रभावशीलता जितनी अधिक होगी वह उतना ही अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसका कारण यह है कि इसके द्वारा नवीन ज्ञान, नवीन आविष्कारों द्वारा नवीन सिद्धान्तों के सृजन के अवसरों की अधिकतम होगी जो प्राचीन सिद्धान्तों को पीछे छोड़ जायेंगे।

(5) आत्म आलोचना बोध- सिद्धान्त का पक्ष कर्म के सत्यापन व संयोग तथा उसकी गलतियों के स्रोतों में अन्तर्निहित मान्यताओं व दुर्भावनाओं पर जोर देता है। कोई भी आत्म आलोचना सिद्धान्त केवल यथार्थता की फर्स्ट आर्डर थ्योरी मात्र न रहकर अन्य सिद्धान्तों सिद्धान्तों और उनकी सीमाओं की एक आलोचना सेकिंड आर्डर थ्योरी भी हैं। सिद्धान्त हमारे चिंतन के क्षेत्र में दो प्रकार से सहायक हो सकते हैं, हमारी प्रथम पूर्व धारणाओं तथा शोध मूलों को बतलाकर तथा दूसरे ज्ञान के सत्यापित तत्वों को पहचान कर डायश ने कहा है कि आत्म आलोचना बोध हमें सामान्य तथ्यात्मक मूल्यों के विरुद्ध ही चेतावनी नहीं देता और वरन् यह भी बतलाया है कि हमारे खोज अथवा शोध में पूर्वग्रह की जटिल भूलें अथवा प्रच्छन्न मान्यताएँ अथवा ऐसे प्रश्न जिन्हें हम जोड़ना भूल गए हैं और जो हमारे अन्वेषण क्षेत्र से बाहर पड़ते हैं, कौन-कौन हो सकते हैं। सिद्धान्त के उपरोक्त पाँच पक्ष यदि मुख्य रूप से बोधपरक हैं तो शेष चार क्रियापरक कहलाएँ जा सकते हैं।

(6) मूल्यों और उद्देश्यों का अभिज्ञान और अनवरत चेतना – व्यक्ति के लिए इस चेतना में निम्नलिखित बातें सम्मिलित की जा सकती हैं—व्यक्तिगत वाँछनाएँ व प्राथमिकताएं उसकी उपयोगिता सूची उनके इच्छित परिणाम अथवा वे उद्देश्य चित्र जो न्यूनाधिक रूप में वास्तविक उद्देश्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। डायस का कथन है कि मूल्य चेतना में सम्मिलित बातें उस सम्पूर्ण मूल्य परिवेश को लेकर चलती हैं जिसमें इच्छित परिणामी के सारे वर्ग जैसे सम्मान, शक्ति, वैभव, इतिहास आदि पर जोर दिया जाता है। इस प्रकार मूल्य चेतना के अन्तर्गत मूल्यों का वह संश्लिष्ट पार्श्व चित्र भी सम्मिलित हो सकता है जो कि प्रायः उपलब्ध दर्शनों, धर्मों,राजनीतिक विचारों व नवीन उद्बोधनों द्वारा प्रस्तावित किये जाने वले चित्र की अनुकृति होते हैं।

(7) अनुभवपरक ज्ञान- डायश का कथन है कि अनुभवपरक ज्ञान से ही राजनीति का अध्ययन बनता है। अनुभवपरक ज्ञान वह ज्ञान है जिसका परीक्षण तथा सत्यापन किया जा सकता है। यह ज्ञान विभिन्न अन्वेषकों द्वारा, चाहे इनका व्यक्तित्व व प्राथमिकताएँ कैसी भी हों, मिल-जुलकर बाँटा जा सकता है। व्यक्ति प्रकृति का एक अंग है, अतएव उसके आचरण के सम्बन्ध में पर्याप्त ज्ञान उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, जिस प्रकार प्रकृति के विभिन्न अंगों के तथ्यों के विषय में राजनीतिक आचरण सम्बन्धी ज्ञान यह बतला सकता है कि राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति किस प्रकार की जाए। ये कौन से उद्देश्य हैं, जो प्राप्त करने योग्य हैं तथा वे उद्देश्य से भी किन परिस्थितियों में, कितने समय में तथा किस मूल्य पर प्राप्त किये जा सकते हैं। अनुभवपरक ज्ञान उद्देश्यों की अनुरूपता अथवा प्रतिकूलता का भी परिचय दे सकता है।

(8) परिणामवादी दक्षताएँ- डायश के अनुसार दक्षता या काम करने की प्रणाली जिसे व्यावहारिक राजनीति भी कहा जाता है, वह तकनीकी है जिसके द्वारा यथार्थ को नियन्त्रित किया जा सकता है। इन तकनीकों को खोजा जा सकता है, सीखा जा सकता है, वर्णित किया जा सकता है, व दूसरों तक पहुँचाया जा सकता है। समस्त राजनीतिक क्रियाओं में ‘दक्षता’ का एक अपरिहार्य तत्व होता है। राजनीतिक सिद्धान्त से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राजनीतिक प्रक्रिया और हमारे कार्य की सफलता में निहित प्रणाली, अवधि और करिश्मा की भूमिका तथा सीमाएँ अधिक अच्छी प्रकार से समझने में सहायक प्रदान करे।

(9) बुद्धि – बुद्धि का कार्य यह बतलाना है कि किस ज्ञान की खोज की जाए, किन दक्षमताओं को खोजा जाए तथा किन मूल्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयास किया जाए। सामान्यतः बुद्धि की भूमिका हमारे उद्देश्यों का चयन व उनकी प्राथमिकता का निर्धारण है। इस प्रकार यह हमारे उद्देश्यों चित्रों में परिवर्तन की सूचना देती हैं। बुद्धि इस बात का भी आभास देती है कि हम क्या अनुभव कर रहे हैं, क्यों आभास कर रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, और हमारे जीवन की क्या मान्यताएँ हैं। अपने अन्तिम विश्लेषण में बुद्धि हमारी भावनाओं, विचारों व क्रियाओं के सन्दर्भ का चयन है। किसी नैतिक, बौद्धिक व कल्पनात्मक प्रश्नों के उत्तर के शोध के लिए हम किस सन्दर्भ का चयन करें अथवा बनायें, यह बतलाना बुद्धि का ही कार्य है। इसके अतिरिक्त बुद्धि यह भी बतलाती हैं कि किस राजनीतिक कर्म को सोचने, नियोजित करने, क्रियान्वित करने व परिणामों को मूल्यांकित करने के लिए कौन-कौन से संदर्भ चुने जाए।

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