राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रगति, विकास तथा पुनरुत्थान की विवेचना कीजिए।

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रगति
राजनीतिक सिद्धान्त की प्रगति

राजनीतिक सिद्धान्त की प्रगति, विकास तथा पुनरुत्थान

राजनीतिक सिद्धान्त

उत्तरोत्तर प्रगति और विकास की ओर

राजनीतिक सिद्धान्त उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है। वर्तमान में यह अपने विकास की चरम अवस्था पर है। इस विचारधारा के प्रमुख समर्थकों में इशिया बर्लिन, लियो स्ट्रॉस व थर्स बाई और गूल्ड आदि विद्वान् हैं। राजनीति विज्ञानी बर्लिन ने ईस्टन व कब्बन का विरोध करते हुए निम्न कहा है-

(अ) जीवित अवस्था – राजनीतिक सिद्धान्त अभी न तो समाप्त हुआ है और न ही उसका पतन हुआ है, इसके विपरीत यह पूर्व के समान अभी भी जीवित अवस्था में है।

(ब) वैज्ञानिक बनाने का विफल प्रयास- अपने व्यवहारवादी और व्यवहारवादी राजनीतिक सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए कहा है कि राजनीतिक सिद्धान्त को वैज्ञानिक बनाने का प्रयास विफल ही रहेगा।

(स) मूल्य निरपेक्ष नहीं – यह चिन्तन से परिपूर्ण होने के कारण कभी भी मूल्य निरपेक्ष नहीं हो सकता है।

(द) नैतिकता पर आधारित – राजनीतिक सिद्धान्त नैतिकता पर पूर्ण रूप से आधारित होती है। अच्छी व बुरी संस्थाओं के मध्य अन्तर करना उसका कर्त्तव्य है । प्रत्येक चिन्तक अच्छे बुरे में अन्तर स्पष्ट करता है, यही उसका प्रमुख कर्त्तव्य है। उन्हें अपना मूल्य निर्णय देना होता है। अतः राजनीतिक सिद्धान्त कभी भी मूल्य-निरपेक्ष नहीं हो सकता।

केवल परिवर्तन- कुछ विचारकों के अनुसार वर्तमान में राजनीतिक चिन्तन का ह्रास नहीं हुआ है। जो कुछ भी ह्रास दिखाई देता है वह इसके कलेवर में परिवर्तन मात्र है। इस सम्बन्ध में कुछ विचार निम्नलिखित हैं-

(अ) बर्लिन ने यह घोषणा की है कि राजनीतिक दर्शन पृथ्वी पर से कभी भी समाप्त नहीं होगा चाहे इसके प्रतिद्वन्द्वी विज्ञान जैसे समाजशास्त्र, दार्शनिक विश्लेषण, समाज मनोविज्ञान, राजनीति विज्ञान, सिद्धान्त के काल्पनिक संसार को नष्ट कर दिया है।

(ब) दुर्खीम ने कहा है कि राजनीतिक दार्शनिक न केवल एक ओर अपने अनुमानों के पर इतिहास का पुनर्निर्माण करते हैं, वरन् दूसरी ओर अपनी व्यक्तिगत अथवा सामूहिक राय को इतिहास पर लाद देते हैं।

(स) जान प्ले मेनाज के अनुसार हमें न तो व्यावहारिक स्तर पर और न ही दार्शनिक स्तर पर और न ही दार्शनिक स्तर पर इसकी जीवित अवस्था में कोई संशय करना चाहिये।

इस प्रकार, यह पूर्णतया सत्य नहीं है कि आधुनिक युग में राजनीतिक सिद्धान्त का पतन हुआ है। आज भी राजनीतिक जगत् में निर्भीक, कर्मठ, समाज के पुनर्निर्माण में अभिरुचि रखने वाले राजनीतिक चिन्तन बहुत से हैं और अपने कार्य में लगे हुए हैं। सात्रे, मारक्यूज, हन्ना आरेन्ट, चे गुवेरा तथा फेनन जैसे दार्शनिक अपने चिन्तन कार्य में लगे हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त का पुनरुत्थान-बर्लिन, ब्लाण्डेल और स्ट्रॉस के विचार उपर्युक्त विचारकों का मत है कि यह कथन कि राजनीतिक सिद्धान्त का ह्रास या इसका निधन हो गया है, एक गलत वक्तव्य देना है। इसके दो कारण हैं-

(अ) एकांगी कथन – ऐसा वक्तव्य राजनीतिक सिद्धान्त के एक पक्ष पर ही लागू होता है जो परम्परावादी परम्परा पर आधारित है। यह आधुनिक समसामयिक राजनीतिक सिद्धान्त पर आगू नहीं होता तो अत्यन्त व्यवहारपरक अथवा परा-व्यवहारपक है।

(ब) विकास की उपेक्षा- इसमें दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् की अवधि में राजनीतिक सिद्धान्त के महान् विकास के पक्ष की उपेक्षा की गयी है जिसकी राजनीतिक सिद्धान्त का आश्चर्यजनक पुनरुत्थान और उसका पुनः जीवन कहकर प्रशंसा की गई है।

बर्लिन, ब्लांडेल और स्ट्रॉस यह घोषणा करते हैं कि राजनीतिक सिद्धान्त न तो मर रहा और नही मृत है। यह वर्तमान में भी अस्तित्व में है।

राजनीतिक सिद्धान्त का अक्षुण्ण अस्तित्व – बर्लिन प्रमाणित करता है कि राजनीतिक सिद्धान्त का विषय आज भी यथावत् है—

(1) हितों का टकराव – राजनीति केवल उसी समाज में होती है जहाँ हितों की आपस में टक्कर हो । मार्क्स के भावी समाज में राजनीति का अन्त सम्भव हो सकता है लेकिन उदारवादी व्यवस्था में यह किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं है। अतः राजनीतिक सिद्धान्त अन्त संभव नहीं है।

(2) व्यहारवादियों के व्यर्थ प्रयास- कट्टर व्यवहारवादियों ने मूल्यों के महत्त्व को समाप्त करके और इस प्रकार परम्परागत राजनीति के हास में योगदान देकर राजनीति के अध्ययन को गम्भीर क्षति पहुँचाई है तथा राजनीतिक यथार्थ को गलत तरीके से समझने और उसकी व्याख्या करने का प्रयास किया है। उन्होंने यह विस्मृत कर दिया है कि उन सभी विषयों का अध्ययन जिनका सम्बन्ध राजनीति से है व्यवहारपरक रूप में नहीं किया जा सकता है और न औपचारिक रूप में उनका निगमन ही किया जा सकता है। जो लोग स्वयं को मानव व्यवहार के प्रेक्षण और इसके विषय में व्यवहारपरक कल्पनाओं तक सीमित रखते हैं (जैसे इतिहासकार, मनोवैज्ञानिक, समावैज्ञानिक आदि) उनके अध्ययन कितने ही गहन एवं मौलिक क्यों न हों, लेकिन वे राजनीतिक सिद्धान्तशास्त्री नहीं है। इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त के ह्रास का दायित्व उन कट्टर व्यवहारवादियों पर रखना चाहिए जिन्होंने परम्परा को विस्थापित कर दिया है।

(3) प्राधिकरण- सभ्यता के प्रारम्भ से ही मनुष्य ने किसी प्रकार के ‘प्राधिकरण’ को स्थापित करने का प्रयत्न किया है तथा इसे स्वीकार किया है। राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक आधार के इसी महत्त्वपूर्ण मुद्दे के गर्भ से उत्पन्न हुआ है। प्राधिकरण हर युग में रहा है, इसलिए राजनीतिक सिद्धान्त भी हर युग में विद्यमान रहा है। यह स्पष्ट है कि मनुष्य की जिज्ञासात्मक और विवेकसंगत पृच्छा के परिणामस्वरूप राजनीतिक सिद्धान्त का अस्तित्व सदैव बना रहेगा। राजनीति विज्ञानी बर्लिन के शब्दों में, “जब तक विवेकशील जिज्ञासा उपलब्ध है—प्रेरणाओं और कारणों के लिहाज से औचित्य एवं व्याख्या की भावना का और कारण या प्रकार्यात्मक सह-सम्बन्धों या सांख्यिकीय संभावनाओं की इच्छा विद्यमान है-राजनीतिक सिद्धान्त विश्व से पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकता चाहे इसके प्रतिपक्षी जैसे—समाज विज्ञान, दार्शनिक विश्लेषण, सामाजिक मनोविज्ञान, राज्य विज्ञान, अर्थशास्त्र, न्यायशास्त्र, अर्थविज्ञान आदि इसके कल्पनात्मक जगत् को तितर-बितर कर चुकने का आग्रह करें।”

स्ट्रॉस का कथन है कि, “सम्भव है कि राजनीतिक सिद्धान्त के किसी अंश ने अप्रचलित होने के कारण अपनी सार्थकता या अपना महत्त्व खो दिया हो, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं है। कि सम्पूर्ण विषय ही अस्तित्व विहीन हो गया है।” बर्लिन का आग्रह है, “यह कल्पना करना कि युगों-युगों में राजनीतिक दर्शन का अस्तित्व नहीं रहा है या इसका अस्तित्व नहीं रहा होगा तथा भविष्य में नहीं रहेगा, ऐसी कल्पना करने की तरह है जैसे कुछ आस्था के युग होते हैं, वैसे ही पूर्ण रूप में अनास्था या अविश्वास के युग भी हो सकते हैं। यह एक अर्थहीन विचार है।”

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