उपनयन संस्कार से क्या आशय है?
वैदिक युग में यह संस्कार प्रत्येक वर्ग के छात्र के लिये अनिवार्य था परन्तु शूद्रों का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। यह संस्कार उस समय होता था, जब छात्र गुरु के संरक्षण में वैदिक शिक्षा आरम्भ करता था। ‘उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ है- “पास ले जाना” । बालक गुरु से प्रार्थना करता है, “मैं ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने आपके पास आया हूँ, मुझे ब्रह्मचारी बनने दो,” गुरु जी पूछते हैं “तुम किसके ब्रह्मचारी हो ? बालक उत्तर देता, ‘आपका’। अभिभावक छात्र को गुरु को समर्पित कर देता था। उपनयन संस्कार से पहले छात्र शूद्र कहलाता था तथा इस संस्कार के बाद द्विज। ‘गुरु छात्र को पहले ‘गायत्री मन्त्र’ का उपदेश देता था और उसके बाद उसे शिक्षा का ज्ञान देना प्रारम्भ करता था। उपनयन संस्कार की आयु ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिये 8, 11 तथा 12 वर्ष थी। अध्ययन काल की साधारण अवधि 12 वर्ष थी। 24-25 वर्ष की आयु तक अध्ययन पूरा करके ब्रह्मचारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने योग्य हो जाता था।
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