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प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त | थार्नडाइक का प्रयोग

प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त
प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त

प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त (Principle of Trial and Error)

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थार्नडाइक ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। थार्नडाइक का विचार है कि जब प्राणी के सम्मुख कोई नवीन समस्या उत्पन्न होती है तो उस समस्या के समाधान हेतु वह किसी-न-किसी तरह की प्रतिक्रिया करने लगता है। आरम्भ में यह प्रतिक्रियायें त्रुटिपूर्ण होती हैं परन्तु निरंतर प्रतिक्रियायें करते रहने पर किसी प्रतिक्रिया में संयोगवश सफलता प्राप्त हो जाती है। सीखने के सम्बन्ध में प्रयास एवं त्रुटि का अर्थ है कि सीखते समय आरम्भ में ही सफलता नहीं मिलती और कुछ-न-कुछ त्रुटियाँ या भूलें होती रहती हैं, किन्तु जब निरंतर प्रयास किया जाता है तो शनैः-शनैः त्रुटियाँ कम होती जाती हैं और अन्त में एक समय ऐसा आ जाता है जब त्रुटियाँ होती ही नहीं और व्यक्ति ठीक ढंग से सही कार्य में सफल हो जाता है।

थार्नडाइक का प्रयोग (Thorndike’s Experiment)

कई मनोवैज्ञानिकों ने इस विषय में प्रयोग किये, परन्तु थार्नडाइक ने इन प्रयोगों के आधार पर सुसंगठित रूप प्रदान किया। उसने लकड़ी का एक पिंजड़ा लिया। यह पिंजड़ा बाहर से बंद था। इसका खटका पिंजड़े के दरवाजे से लगा हुआ था। यह पिंजड़ा इस प्रकार का बना हुआ था कि बिल्ली का हाथ पिंजड़े के बाहर आसानी से निकाला जा सकता था। खटका भी इस प्रकार का था कि उस पर दबाव पड़ने पर वह खुल जाता था। अब उन्होंने एक पिंजड़े में एक भूखी बिल्ली बंद कर दी। पिंजड़े के बाहर कुछ गोश्त या मछली रख दी गयी, जो कि पिंजड़े के अंदर से दिखायी देती थी। अब भूखी बिल्ली बाहर रखे हुए भोजन को पाने के लिए पिंजड़े के अन्दर इधर-उधर कूदना-फाँदना प्रारंभ कर देती है। अपने पंजों से पिंजड़े को खोलने की कोशिश करती है। प्रयास करते-करते उसका पंजा एक बार खटके के ऊपर पड़ जाता है, परिणामस्वरूप पिंजड़ा खुल जाता है और बिल्ली बाहर आ जाती है।

जब बिल्ली बाहर आ जाती है तो वह उसे पकड़कर फिर पिंजड़े के अन्दर बंद कर देता है। वह अपना भोजन नहीं कर पाती। बंद होने के पश्चात् बिल्ली फिर पिंजड़े के दरवाजे को खोलने का प्रयास करती है। पहले की भाँति उसका पंजा खटके पर पड़ने से दरवाजा खुल जाता है। इसी प्रकार कई बार उसको बंद किया जाता है। जब बिल्ली खटका खोलकर बाहर आ जाती तो भोजन तक पहुँचने के पूर्व ही उसे फिर पिंजड़े में बंद कर दिया जाता है। इस प्रकार, भूखी बिल्ली को कई बार पिंजड़े के अंदर बंद करने से यह देखा गया है कि बिल्ली के पिंजड़े से बाहर निकलने में जो समय लगता था वह उत्तरोतर कम होता गया।

प्रयास एवं त्रुटि अथवा भूल द्वारा सीखना (Learning by Trial and Error)

थार्नडाइक के प्रयोग से प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त का प्रतिपादन हुआ। इस सिद्धान्त के अनुसार मानव, प्रयत्न और भूल द्वारा सीखता है। प्रयास एवं त्रुटि विधि से सीखने की प्रक्रिया में निम्नलिखित परिस्थिति उत्पन्न होती है-

(i) सीखने वाले में अन्तर्नोद (Drive) का होना आवश्यक है। यह अन्तर्नोद ही सीखने की प्रेरणा देता है और मानव को क्रियाशील बनाता है। भूख के अन्तर्नोद ने बिल्ली को सीखने हेतु प्रेरित किया।

(ii) अन्तर्नोद की संतुष्टि में जब बाधा पड़ती है तब व्यक्ति प्रयत्न करता है। निरंतर प्रयत्न के फलस्वरूप भूल की आवृत्ति कम होती जाती है और अंत में वह सीख जाता है।

(iii) अन्तनोंद की संतुष्टि के हेतु बिना प्रयोजन आंशिक क्रियायें होती हैं क्योंकि सीखने की सही क्रिया का ज्ञान नहीं होता।

(iv) आंशिक क्रियाओं द्वारा संयोग से सही क्रिया अचानक प्राप्त हो जाती है। इसके पश्चात् शनैः-शनैः प्रयत्न द्वारा बिना त्रुटि के शीघ्र ही सही क्रिया सम्पन्न हो जाती है।

थार्नडाइक का मत है कि प्रयास और त्रुटि द्वारा सीखने की विधि में निम्नलिखित व्यावहारिक अवस्थायें पाई जाती हैं-

(क) लक्ष्य – प्रयास तथा त्रुटि द्वारा सीखने की विधि में लक्ष्य का होना महत्त्वपूर्ण है। यदि लक्ष्य का समुचित ज्ञान सीखने वाले को नहीं है तो उसे समझने में कठिनाई होगी और वह कुछ सीख नहीं सकेगा।

(ख) मानसिक स्थिति- जब हमारा मन किसी समस्यामूलक स्थिति में फँस जाता है तो हम उसका समाधान ढूँढने का प्रयास करते हैं। ऐसी स्थिति में हमारी मानसिक स्थिति प्रयत्नशील हो जाती है। हमारे मन में दृढ़ संकल्प आ जाता है और हम समस्या का समाधान निकालने के लिए दृढ़चित्त हो जाते हैं। इस प्रकार अनुकूल मानसिक स्थिति द्वारा हमें प्रारंभिक प्रयत्नों में सहायता मिलती है।

(ग) बाधायें – जब हमारे लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में बाधायें आती हैं तो हमारे सामने समस्या उत्पन्न हो जाती है, जिसका समाधान आवश्यक हो जाता है। समस्या के समाधान के लिए हम अनेक प्रयत्न करने लगते हैं। इस प्रकार बाधायें हमें प्रयत्न के लिए प्रेरित करती हैं और हम क्रियाशील हो जाते हैं।

(घ) प्रयास- लक्ष्य प्राप्ति में बाधा आने पर हम प्रयास करने लगते हैं। यदि प्रयत्नों में हमें असफलता मिलती है तो उसमें उद्विग्नता आ जाती है। फलस्वरूप हम एक प्रयास के बाद दूसरा प्रयास करते हैं और किसी-न-किसी प्रकार अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

(ङ) आकस्मिक सफलता- अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभिक प्रयास के दौरान ही हमारी समस्या का समाधान मिल जाता है। इसे आकस्मिक सफलता कहते हैं।

(च) उचित समाधान- अनेक बार प्रयत्न करने के दौरान हमें जब सहसा सफल प्रक्रिया की जानकारी होती है तो हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उस प्रक्रिया को चुन लेते हैं और विपरीत दिशा में किये जाने वाले सभी प्रयत्नों को छोड़ देते हैं।

(छ) सफल चेष्टा- जब हमें अपने लक्ष्य से सम्बन्धित समस्या का सफल समाधान – प्राप्त हो जाता है तब हम अभ्यास द्वारा उसे बार-बार दोहराते हैं, जिससे हमारी सफल चेष्टा पूर्ण हो जाय और हम उसे भविष्य में भूल न जायें।

प्रयास एवं त्रुटि-विधि का शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implication of Trial and Error Method)

शिक्षा में प्रयास एवं त्रुटि-विधि की उपयोगिता के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय है-

(i) यह अवधि एक तरह से सुधार की विधि है। इसके द्वारा बालक अपने द्वारा पहले की गयी विधियों से जो अनुभव प्राप्त करता है, उनसे लाभ उठाता है।

(ii) इस विधि में निरन्तर प्रयत्न होता है, फलस्वरूप बालक में परिश्रम के गुणों का विकास होता है।

(iii) इस विधि में जिन क्रियाओं से बालक सफलता प्राप्त करता है वह उन्हें ही दोहराता है। ये क्रियायें उत्तेजक के रूप में सीखने के हेतु प्रेरणा देती हैं। वह ‘सफल प्रतिक्रियाओं’ के चुनाव द्वारा सीखता है। यही कारण है कि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसे ‘सफल क्रियाओं से चुनाव द्वारा सीखना’ (Learning by selection of the successful variations) के नाम से पुकारा है।

(iv) यह विधि प्रयास पर आधारित है। फलस्वरूप यदि बालक किसी कार्य में असफल हो जाता है तो शिक्षक को उसे बार-बार प्रयत्न करने के हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए। चूँकि यह विधि प्रयास पर आधारित है इसलिए इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी होता

(v) यह विधि गणित, व्याकरण आदि विषयों के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

(vi) इस विधि की उपयोगिता बहुत छोटे बच्चों के लिए नहीं है। बाल्यावस्था में इसकी उपयोगिता आरम्भ होती है।

(vii) बालकों में निरन्तर प्रयत्न करने से आत्म-विश्वास, धैर्य और परिश्रम के गुणों का विकास होता है। यह विधि बालक को जीवन की विभिन्न परिस्थितियों और समस्याओं से सामना करने योग्य बनाती है।

(viii) यह विधि मंद बुद्धि के बालकों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है।

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