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ब्रूनर का खोज अधिगम सिद्धान्त | ब्रूनर के सिद्धान्त की कमियाँ या सीमाएँ

ब्रूनर का खोज अधिगम सिद्धान्त
ब्रूनर का खोज अधिगम सिद्धान्त

ब्रूनर का खोज अधिगम सिद्धान्त (Bruner’s Discovery Learning Theory )

जीरोम ब्रूनर (Jerome Bruner, 1960) का सीखने का सिद्धान्त आधुनिक संगठनात्मक सिद्धान्त की श्रेणी में रखा गया है।

ब्रूनर के सिद्धान्त के अनुसार, सीखना सक्रिय रूप से सूचना को प्रक्रियाबद्ध करना है और इसका संगठन और संरचना प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने अनोखे ढंग से किया जाता संसार के सम्बन्ध में ज्ञान न कि व्यक्ति में उड़ेल दिया जाता है, वरन् व्यक्ति चयनित रूप से वातावरण की प्रक्रिया की ओर ध्यान केन्द्रित करता है और जो सूचना प्राप्त करता है, उसे संगठित करता है और इस सूचना का संकलन अपने अनूठे ढंग से वातावरण के प्रतिमानों में करता है, तथ्य अर्जित किये जाते हैं तथा संचित किये जाते हैं, सक्रिय प्रत्याशाओं के रूप में, न कि निष्क्रिय सम्बन्धों में। साथ ही बहुत कुछ सीखना खोज के द्वारा होता है, जो इस छानबीन के दौरान कौतूहल द्वारा अनुप्रेरित होता है।

प्रत्यक्षीकरण संगठित होते हैं और सक्रिय रूप से अनुमानात्मक होते हैं। नये ज्ञान का . रेखाचित्र विभिन्न वर्गों में खींचा जाता है ताकि यह तर्कपूर्ण रूप से नये ज्ञान के साथ सम्बन्धित हो जाए। अन्तिम रूप से जब ज्ञान का चित्रण एक बड़ी संरचना में किया जाता है तो व्यक्ति का अपना निजी यथार्थता का मॉडल बन जाता है। इसमें बाहरी वातावरण का ज्ञान और साथ-साथ आत्म-सम्बन्धी ज्ञान तथा व्यक्तिगत अनुभव सम्मिलित होते हैं, जिससे सबका संगठन एक गेस्टाल्ट या पूर्ण इकाई में हो जाता है।

ब्रूनर ज्ञान के प्रस्तुतीकरण के सम्बन्ध में तीन पक्षों का वर्णन करता है। यह विचार पियाजे के विकासात्मक स्तरों से मिलता-जुलता है।

ब्रूनर के अनुसार, बुद्धि स्तर अथवा आयु स्तर की ओर बिना ध्यान दिये हुए भी यह कहा जा सकता है कि सीखने वाले अपने ज्ञान में विस्तार परिकल्पनाओं को बनाकर और उनका परीक्षण करके कर सकते हैं। यह सबसे अधिक स्पष्ट खोज अथवा अन्वेषण सीखने में होता है, किन्तु ब्रूनर का विश्वास है कि शिक्षकों द्वारा सिखाये जाने वाले कार्यों में भी विद्यार्थियों की सक्रियता को ज्ञान प्राप्त करने में प्रोत्साहन देना चाहिए। ऐसा करने का मार्ग यह है कि विद्यार्थियों, के समक्ष विभिन्न विचार पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत किए जाएँ। विभिन्न प्रकार से तथा विभिन्न सम्प्रत्यय सम्बन्धी उदाहरण प्रस्तुत किये जाने चाहिए।

ब्रूनर इस बात पर भी बल देता है कि शिक्षकों को अवबोधन को बढ़ाने की भी चेष्टा करनी चाहिए। इससे तात्पर्य है कि अलग-अलग ज्ञान के टुकड़ों को समन्वित अवधारणाओं में बाँधना, सिद्धान्तों को संगठित करना, कारण और प्रभाव की व्याख्या करना और सीखने वाले को अन्य सहायकं सामग्री जुटाना ताकि उनको यह समझने में सहायता मिल सके कि किस प्रकार से वस्तुएँ एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। ब्रूनर सीखने को उद्देश्य केन्द्रित मानता है, जो सीखने वाले की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करता है। वह सीखने वाले को सक्रिय प्राणी मानता है जो अपनी सक्रियता द्वारा सूचना या ज्ञान का चयन करता है, रूप देता है, धारण करता है और इस प्रकार से परिवर्तित करता है कि कुछ निश्चित उद्देश्य प्राप्त हो जाएँ। ब्रूनर शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानात्मक विकास मानता है और वह इस बात पर बल देता है कि शिक्षा की अन्तर्वस्तु को समस्या हल की क्षमता खोज और अन्वेषण द्वारा बढ़ानी चाहिए।

ब्रूनर के विचार में ज्ञानात्मक प्रक्रिया लगभग एक साथ होने वाली तीन प्रक्रियाओं को प्रकट करती है-

(i) नवीन ज्ञान अथवा सूचना का ग्रहण करना,

(ii) अर्जित ज्ञान का रूपान्तरण, एवं

(iii) ज्ञान की पर्याप्तता की जाँच ।

ब्रूनर सीखने में स्वायतत्ता पर बल देता है। वह सुझाव देता है कि जब विद्यार्थी को अन्वेषण की क्रिया द्वारा सिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा, तो वह सीखने के लिये अधिक प्रयास करेगा। स्वायत्तता में उसे आनन्द आयेगा और सीखने की स्वतंत्रता स्वयं में ही उसका पुरस्कार बन जायेगी। दूसरे शब्दों में, “विद्यार्थी स्वयं अपने आप ही अपने को अनुप्रेरणा प्रदान करेगा।” ब्रूनर शिक्षक की भूमिका यह मानता है कि वह ऐसा वातावरण विद्यार्थियों के लिये निर्मित करे कि जिसमें विद्यार्थी अपने प्रयास ही बहुत कुछ सीखने का प्रयास करें। संक्षेप में, इस सिद्धान्त को निम्नलिखित सोपानों के अन्तर्गत प्रस्तुत किया जा सकता है-

1. अन्तर्दर्शी चिन्तन (Intuitive Thinking)- ब्रूनर का मत है कि कक्षा शिक्षण में शिक्षकों द्वारा अन्तर्दर्शी चिन्तन पर विश्लेषणात्मक चिन्तन की अपेक्षा बहुत कम ध्यान दिया जाता है, जबकि होता यह है कि अन्तर्दर्शी चिन्तन का महत्त्व विषय-वस्तु को सीखने में कहीं अधिक है। किसी विषय-वस्तु के तात्कालिक बोध (Understanding) या संज्ञान (Cognition) को ही अन्तदर्शन (Intuitive) कहा जाता है। ब्रूनर के अनुसार अन्तदर्शी समझ (Intuitive Understanding) या ज्ञान को शिक्षक प्रोत्साहित न करके हतोत्साहित करते देखे गये हैं। ब्रूनर (Bruner, 1960) के शब्दों में, “अन्तर्दर्शन से तात्पर्य ऐसे व्यवहार से होता है, जिसमें अपने विश्लेषणात्मक उपायों पर बिना किसी तरह की निर्भरता दिखाए ही किसी परिस्थिति या समस्या की संरचना, अर्थ एवं महत्त्व से समझा जाता है। अक्सर देखा गया है कि शिक्षक छात्रों में विश्लेषणात्मक चिन्तन पर अधिक बल डालते हैं। वे छात्रों को कोई समस्या के लिये देते हैं और उसके तात्कालिक उत्तर (Immediate Answer) देने के प्रयास को प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि उसे सोच-समझकर एक-एक कदम आगे बढ़कर समस्या का समाधान करने समाधान करने पर बल डालते हैं। दूसरे शब्दों में, शिक्षक छात्रों में अन्तर्दर्शी चिन्तन को हतोत्साहित (Discourage) करते हैं तथा विश्लेषणात्मक चिन्तन को प्रोत्साहित करते हैं। इससे कक्षा के शिक्षण की गति मंद हो जाती है।

2. विषय-विशेष की संरचना (Structure of Particular Discipline)- ब्रूनर का मत है कि प्रत्येक विषय या पाठ के कुछ विशेष संप्रत्यय, नियम तथा प्रविधियाँ ( Procedures) होती हैं, जिसके छात्रों को सीखना आवश्यक है, क्योंकि तब ही वे उन चीजों का सही-सही प्रयोग कर सकते हैं। इस तरह ब्रूनर का मत था कि प्रत्येक विषय को अपनी एक संरचना (Structure) होती है और स्कूल के छात्रों के लिए इस संरचना को सीखना आवश्यक है। शिक्षकों को इन संरचनाओं को अर्थात् उसके संप्रत्यय (Concepts), नियम (Principles) एवं प्रविधियों को सिखाने पर अधिक बल डालना चाहिए।

3. अन्वेषणात्मक सीखना (Discovery Learning)- ब्रूनर (Bruner) ने इस बात पर बल दिया है कि कक्षा में किसी विषय या पाठ को सीखने की सबसे उत्तम विधि अन्वेषणात्मक सीखना (Discovery Learning) है। दूसरे शब्दों में, छात्र को किसी समस्या के विभिन्न पहलुओं पर स्वयं ही आगमनात्मक चिन्तन (Inductive Thinking) करके विषय से सम्बन्धित संप्रत्ययों (Concepts) एवं सम्बन्धों की खोज (Discovery) करनी चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षकों को इस नियम में विश्वास रखना चाहिए कि ज्ञान आत्म-अन्वेषित होता है (Knowledge is self-discovered)। ऐसा ज्ञान जो छात्रों द्वारा आत्म-अन्वेषित (Self discovered) होते हैं, उनके लिये अधिक सार्थक होते हैं तथा साथ-ही-साथ वे अधिक दिनों तक ज्ञान रखे जाते हैं। ब्रूनर ने तो यहाँ तक कहा है कि ऐसी कक्षा जिसमें छात्रों द्वारा कोई आत्म-अन्वेषित सीखना (Self-discovered Learning) नहीं होता है, उसमें शिक्षण प्रक्रिया के मूल तत्त्व की कमी होती है साथ-ही-साथ पढ़ाए गये विषय का सीखना भी ठीक ढंग से नहीं हो पाता है।

4. सम्बद्धता का महत्त्व (Importance of Relevance)- ब्रूनर के अनुसार स्कूल शिक्षण (School Learning) का सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य (Important Goal) छात्रों को भविष्य में लाभ पहुँचाना होता है। दूसरे शब्दों में, छात्रों को भविष्य में उपयोगी कार्य करने में मदद करने से है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी रेलिवेन्स ऑफ एजुकेशन’ (Relevance of Education) में ब्रूनर ने दो तरह की संबद्धता (Relevance) का वर्णन किया है- सामाजिक सम्बद्धता (Social Relevance) तथा व्यक्तिगत सम्बद्धता (Personal Relevance) । ब्रूनर के अनुसार शिक्षा सिर्फ व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि सामाजिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के भी अनुरूप होनी चाहिए। उनका मत था कि स्कूल में दिये जाने वाले शिक्षण का सम्बन्ध व्यक्तिगत सम्बद्धता तथा सामाजिक सम्बद्धता दोनों से होता है।

5. तत्परता (Readiness)- ब्रूनर ने बालकों के सीखने की तत्परता की एक भिन्न दृष्टिकोण से व्याख्या की है। उनका विचार है कि प्रत्येक वर्ग के लिए एक पाठ्यक्रम तैयार करके छात्रो को उस पाठ्यक्रम के अनुसार तत्पर बनाना या उस पाठ्यक्रम के अनुसार उनमें क्षभता विकसित करना एक (Healthy) स्वस्थ प्रथा नहीं है, बल्कि उन्होंने इस बात पर अधिक बल दिया है कि किसी भी उम्र या वर्ग के छात्र को कोई भी विषय सीखने के लिए तत्पर (Ready) किया जा सकता है। अतः ब्रूनर के अनुसार शिक्षकों का प्रमुख कार्य छात्रों के अनुरूप पाठ्यक्रम तैयार करना होता है।

6. सक्रियता (Activeness)- ब्रूनर का कहना था कि छात्रों को सीखने की परिस्थिति में निष्क्रिय न होकर सक्रिय ढंग से भाग लेना चाहिए। इसके दो लाभ होते हैं- पहला तो यह कि छात्र विषय या पाठ को ठीक ढंग से समझ जाता है तथा दूसरा यह कि उसे वह जल्दी सीख लेता है तथा अधिक दिनों तक याद किए रहता है। बिना सक्रियता के छात्र से किसी भी कार्य को संतोषजनक रूप से किये जाने की आशा नहीं की जा सकती।

ब्रूनर के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ (Educational Implications of Bruner’s Theory)

ब्रूनर के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ इस प्रकार हैं-

1. ब्रूनर का मत है कि छात्रों को जटिल विषय भी आसानी से पढ़ाये जा सकते हैं। यदि शिक्षक उनको छात्रों के सम्मुख सरलतम तरीके से प्रस्तुत करे।

2. शिक्षक को ज्ञान इस तरह से पुनर्गठित करना चाहिए, जिससे यह छात्रों की सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप महत्त्वपूर्ण हो।

3. छात्रों में आगमन चिन्तन (Inductive Thinking) विकसित करके समस्या समाधान के लिये अंतर्दृष्टि उत्पन्न करने का प्रयास किया जा सकता है।

4. अधिगम को चिन्तन प्रधान बनाने के प्रयास किये जा सकते हैं।

5. छात्र निष्क्रिय श्रोता नहीं बने रहते, बल्कि उन्हें समस्या का समाधन स्वयं करके नये ज्ञान को प्राप्त करने के अवसर मिल जाते हैं।

6. संज्ञानात्मक अधिगम में भाषा का विशेष योगदान रहता है, अतः शिक्षकों को छात्रों की भाषा विकसित करने के पूर्ण प्रयत्न करने चाहिए।

7. अध्यापक छात्रों के सम्मुख समस्या को इस तरह प्रस्तुत करता है कि थोड़े से मार्गदर्शन से वे समस्या का स्वयं समाधान खोज लेते हैं।

8. अध्यापक विभिन्न स्रोतों से नये ज्ञान का अर्जन करके, उसे छात्रों तक पहुँचाने का पूर्ण प्रयत्न करता है, ताकि छात्र अपनी क्षमताओं के अनुरूप उसे ग्रहण कर सकें।

9. अध्यापक नये ज्ञान को उससे सम्बन्धित चित्र, रूपरेखा तथा सूत्रों के द्वारा छात्रों के समक्ष व्यवस्थित क्रम में प्रस्तुत कर सकता है।

10. ब्रूनर ने बाह्य पुरस्कार को आन्तरिक पुरस्कार (Self-Satisfaction) की ओर स्थानापन्न (Shift) करके अधिगम को अधिक स्थायी बनाने का प्रयत्न किया है।

11. यह सिद्धान्त छात्रों के बौद्धिक सामर्थ्य (Intellectual Potential) में वृद्धि करता है, साथ ही यह सिद्धान्त छात्रों को यह सीखने में भी सहायता प्रदान करता है कि कैसे सीखा जाता है (How to Learn ) ?

12. समस्या समाधान तथा किसी चीज अथवा तथ्य के बारे में गहन जानकारी ( Inquiry ) प्राप्त करने के कौशल को सीखने के लिये यह सिद्धान्त बहुत उपयोगी है।

ब्रूनर के सिद्धान्त की कमियाँ या सीमाएँ (Limitations of Bruner’s Theory)

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने ब्रूनर के सिद्धान्त की कुछ सीमाओं (Limitations) की ओर भी संकेत दिया है, जो निम्नांकित हैं

(1) ब्रूनर का यह मानना कि पाठ्यवस्तु को सरल तरीके से प्रस्तुत करके बालक को किसी भी आयु में कुछ भी पढ़ाया जा सकता है, उचित नहीं कहा जा सकता।

(2) इस सिद्धान्त द्वारा पाठ्यवस्तु को निर्धारित समय सीमा में आसानी से पूरा नहीं किया जा सकता।

(3) यह सिद्धान्त मेधावी छात्रों के लिये अधिक उपयोगी है, सामान्य या मंदबुद्धि बालकों के लिये नहीं।

(4) कुछ आलोचकों का मत है कि अन्वेषणात्मक सीखना (Discovery Learning) मात्र एक ऐसी विधि है, जिससे सिर्फ समय की बर्बादी होती है। प्रत्येक प्रकरण को इस विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता।

(5) कुछ आलोचकों का मत है कि ब्रूनर द्वारा प्रतिपादित विषय की संरचना (Structure of Discipline) जैसे संप्रत्यय अपने-आप में अस्पष्ट हैं। ऐसे छात्र जिनमें अभिप्रेरणा (Motivation) की मात्रा औसत या औसत से कम होती है, उनमें इस ढंग की संरचना को बात करना प्रतीत उचित नहीं होता।

(6) प्रत्येक बालक से यह आशा करना कि वह कुछ-न-कुछ खोज अवश्य कर लेगा, तर्कसंगत नहीं है।

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