गुरुकुल शिक्षा प्रणाली
वैदिक काल में गुरुकुल प्रणाली थी। छात्र, माता-पिता से अलग गुरु के घर पर ही शिक्षा प्राप्त करता था। यह गुरुकुल पद्धति कहलाती थी। छात्र गुरु-गृह में ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ शिक्षा प्राप्त करता था। श्रवण, मनन, निधि ध्यासन शिक्षण की प्रक्रिया थी। गुरुकुल शिक्षा के केन्द्र थे। गुरुकुलों में योग्य तथा चरित्रवान् व्यक्ति ही शिक्षा देते थे। इन गुरुकुलों में छात्र 12 वर्ष तक विद्याभ्यास करता था। ज्ञान क्षुधा के सम्मेलन भी होते रहते थे। समय-समय पर विद्वानों के सम्मेलन भी होते रहते थे। गुरुकुल के अतिरिक्त अन्य शिक्षा संस्थाओं का प्रचलन भी था। ये संस्थाएँ इस प्रकार थीं-(1) चरण- इनमें एक शिक्षक एक वेद की शिक्षा देता था। (2) घटिका- धर्म तथा दर्शन की उच्च शिक्षा अनेक शिक्षक देते थे। (3) टोल- एक ही शिक्षक केवल संस्कृत भाषा की शिक्षा देता था। (4) परिषद्- लगभग 10 शिक्षकों की एक परिषद् विषयों की शिक्षा प्रदान करती थी। (5) चतुष्पथी- इसे ब्राह्मणीय विद्यालय भी कहा जाता था। एक ही शिक्षक दर्शन, पुराण, तथा व्याकरण की शिक्षा देता था। (6) विशेष विद्यालय- विषय विशेष चिकित्सा, विज्ञान, विधि कृषि, वाणिज्य तथा सैन्य- शिक्षा की व्यवस्था हेतु विशेष विद्यालय होते थे।
प्रत्येक छात्र को गुरुकुल में रहते हुए गुरु-सेवा अनिवार्य रूप से करनी पड़ती थी। गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करना पाप था। इसके लिये कठोर दण्ड दिया जाता था। आचार्य को दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ उपलब्ध कराना, जैसे-दातून, स्नान के लिये जल की व्यवस्था करना, छात्र का प्रमुख कर्त्तव्य था। गुरु भी छात्रों से ऐसे कार्य नहीं लेते थे, जिनसे उनके अध्ययन में बाधा पहुँचे। समापवर्तन के मध्य किसी प्रकार की सेवा छात्रों से नहीं ली जाती थी। उस समय भिक्षावृत्ति को बुरा नहीं समझा जाता था। भिक्षावृत्ति के माध्यम से निर्वाह किया जाता था। प्रत्येक गृहस्थ, छात्र को भिक्षा अवश्य देता था क्योंकि वह जानता था कि उसका पुत्र भी कहीं भिक्षा माँग रहा होगा। भिक्षा का नियम छात्रों के लिये बनाने का कारण यह था कि भिक्षा से जीवन में विनय आती थी। छात्र को यह अनुभूति होती थी कि समाज की सेवा तथा सहानुभूति से ही ज्ञान प्राप्ति एवं जीविकोपार्जन आ सकता है। छात्र जीवन की समाप्ति के पश्चात् भिक्षावृत्ति निषिद्ध थी।
गुरुकुल या वैदिक शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श
वेदों के युग में शिक्षा का स्वरूप आदर्शवादी था। ईश्वर भक्ति, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व के विकास, संस्कृति, राष्ट्र तथा समाज के विकास के प्रति अभिवृत्ति विकसित करने पर आचार्यजन बल देते थे। डॉ. अल्टेकर ने इसी सन्दर्भ में कहा है-“ईश्वर भक्ति, धार्मिकता की भावना, चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व का विकास, नागरिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का पालन, सामाजिक कुशलता की अभिवृद्धि, राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार प्राचीन भारत में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य थे।” वैदिक युग में शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श मानव को उसके आत्मिक विकास की ओर ले जाते थे। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य में ऐसी क्षमता और योग्यता का सृजन करना था, जिसके माध्यम से वह सत्य का ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर सके। अत: गुरुकुल शिक्षा के उद्देश्य तथा आदर्श निम्नलिखित थे-
1. व्यक्तित्व का समन्वित विकास- गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के अनुसार मानव का मुख्य उद्देश्य आत्म-ज्ञान अथवा ब्रह्म-ज्ञान की प्राप्ति होना चाहिये। इसके लिये धार्मिक भावना का विकास किया जाना आवश्यक है। छात्र के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास पर बल दिया जाता था, जिससे उसके व्यक्तित्व का समन्वित विकास हो सके। आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर अधिक बल दिया जाता था। मानसिक विकास के लिये प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ का प्रावधान था, जिससे विद्यार्थियों में चिन्तन, मनन तथा व्यक्तित्व का विकास आदि मानसिक शक्तियों को विकसित किया जा सके।
2. स्वस्थ चरित्र का निर्माण- वैदिक कालीन शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थियों में राष्ट्रीय आदर्शों के अनुरूप चरित्र का निर्माण करना था। अतः सरल जीवन, सदाचार, सत्याचरण एवं अहिंसात्मक व्यवहार और ब्रह्मचर्य उनके दैनिक जीवन के अंग थे। इसके लिये वर्णाश्रम धर्म का पालन करना समाज के प्रत्येक सदस्य के लिये आवश्यक था।
3. सभ्यता एवं संस्कृति का संरक्षण एवं प्रसार- वैदिक काल में विद्यार्थियों को ऐसी शिक्षा प्रदान की जाती थी, जिससे वे अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं का संरक्षण करें तथा उनका प्रसार करने हेतु एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित कर सकें। यह कार्य शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। वैदिक काल में व्यक्ति के व्यवसाय एवं कार्यों का आधार वर्ग व्यवस्था थी। पिता जो व्यवसाय करता था, उसकी शिक्षा पुत्र को देता था। पुत्र भी पारिवारिक संस्कृति तथा परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करने में विश्वास करते थे।
4. व्यावसायिक कुशलता का विकास- वैदिक कालीन जीवन संघर्षमय था । इस संघर्षमय स्थिति में यह आवश्यक था कि शिक्षा की ऐसी व्यवस्था हो जिससे व्यक्ति अपनी रुचि के अनुरूप व्यवसाय का चयन कर सके तथा व्यावसायिक कुशलता में वृद्धि कर स्वयं को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बना सके। इसलिये विभिन्न व्यवसायों, उद्योगों तथा जीविकोपार्जन से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान की जाती थी। अतः शिक्षा का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति करना ही नहीं रहा वरन् भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी हो गया था।
5. दायित्वों के निर्वाह की क्षमता का विकास- गुरुकुल शिक्षा व्यक्ति को उसके स्वयं के प्रति कर्त्तव्यों का बोध तो कराती ही थी, साथ ही साथ सामाजिक दायित्वों का भी बोध कराती थी। एक नागरिक होने के कारण उसके अपने प्रति अर्थात् व्यक्तित्व का विकास, ईश्वर भक्ति, चरित्र-निर्माण तथा धर्म में विश्वास आदि कार्यों का बोध होना चाहिये। शिक्षा का दायित्व था कि वह व्यक्ति में नागरिक एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने की क्षमता का विकास करे।
6. ज्ञान एवं अनुभव पर बल- गुरुकुलों में विद्यार्थियों को ज्ञान एवं अनुभव प्राप्त करने पर बल दिया जाता था। उस समय उपाधि वितरण जैसी प्रथा न थी। छात्र अर्जित योग्यता का प्रश्न विद्वानों की सभा में शास्त्रार्थ द्वारा किया करते थे। डॉ. आर. के. मुकर्जी के शब्दों में, “शिक्षा का उद्देश्य पढ़ना नहीं था, अपितु ज्ञान और अनुभव को आत्मसात् करना था।”
7. चित्तवृत्तियों का निरोध- मानव अपनी चित्त की वृत्तियों का दास है। इन्द्रियों से वशीभूत होकर वह विपरीत मार्ग पर चल पड़ता है। इन्हीं चित्तवृत्तियों का मार्गान्तीकरण करना, मन को भौतिक ज्ञान से हटाकर आध्यात्मिक जगत् में लगाना तथा आसुरी वृत्तियों पर नियन्त्रण करना ही शिक्षा का उद्देश्य था। उस समय शरीर की अपेक्षा आत्मा को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता था क्योंकि शरीर नश्वर है, जबकि आत्मा अनश्वर है, अमर है। अत: आत्मिक उत्थान के लिये जप, तप एवं योग पर विशेष बल दिया जाता था।
8. ईश्वर भक्ति एवं धार्मिकता- प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में ईश्वर भक्ति और धार्मिकता की भावना का समावेश करना था। छात्रों में इस भावना को व्रत, यज्ञ, उपासना तथा धार्मिक उत्सवों आदि के द्वारा विकसित किया जाता था।
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