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वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ

वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ
वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ

वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ

वैदिक कालीन या गुरुकुल शिक्षा की विशेषताएँ अग्रलिखित प्रकार से हैं-

1. उपनयन संस्कार- यह संस्कार प्रत्येक वर्ग के छात्र के लिये अनिवार्य था परन्तु शूद्रों का उपनयन संस्कार नहीं हो सकता था। यह संस्कार उस समय होता था, जब छात्र गुरु के संरक्षण में वैदिक शिक्षा आरम्भ करता था। ‘उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ है- “पास ले जाना” । बालक गुरु से प्रार्थना करता है, “मैं ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने आपके पास आया हूँ, मुझे ब्रह्मचारी बनने दो,” गुरु जी पूछते हैं “तुम किसके ब्रह्मचारी हो ? बालक उत्तर देता, ‘आपका’ । अभिभावक छात्र को गुरु को समर्पित कर देता था।

2. शिक्षण का समय- शिक्षण के समय के विषय में ‘स्मृतियों’ में कोई लेख नहीं है। प्राचीन समय में मुद्रित पुस्तकें नहीं थीं। अतः पठन-पाठन का सभी कार्य गुरु की उपस्थिति में होता था। हम शिक्षण के समय के विषय में कुछ अनुमान लगा सकते हैं। शिक्षण का कार्य प्रातःकाल से दोपहर तक और फिर भोजन तथा विश्राम के पश्चात् सायंकाल तक होता होगा।

3. शिक्षा की अवधि- गुरु-गृह में शिक्षा की अवधि 24 वर्ष की आयु तक होती थी। 25 वें वर्ष में शिष्य को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना पड़ता था। इस समय छात्रों की तीन श्रेणियाँ थीं- (अ) 24 वर्ष तक अध्ययन करने वाले-वसु, (ब) 36 वर्ष तक अध्ययन करने वाले-रुद्र, (स) 48 वर्ष तक अध्ययन करने वाले- आदित्य ।

4. पाठ्यक्रम – पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों प्रकार के विषयों का समावेश था। यह सभी विषय छात्रों को पढ़ना अनिवार्य नहीं था क्योंकि वर्ण व्यवस्था के कठोर होने से विषयों का विभाजन भी वर्ग के आधार पर हो गया था। छात्रों को छन्द-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक था। गणित में रेखागणित का अध्ययन कराया जाता था। ‘ब्राह्मण’ साहित्य का निर्माण भी इसी युग में हुआ। पाठ्यक्रम में-

भौतिक विषय (अपरा) विद्या आध्यात्मिक विषय (परा) विद्या
इतिहास, औषधिशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, भौतिकशास्त्र, प्राणिशास्त्र, भूगर्भ विद्या, रसायनशास्त्र, धनुर्विद्या एवं शल्य विद्या। वेद, वेदांग, उपनिषद्, पुराण, दर्शन एवं नीतिशास्त्र ।

ब्राह्मण छात्रों के लिये धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन तथा क्षत्रियों के लिये सैन्य शिक्षा एवं राजनीति का अध्ययन आवश्यक था।

5. शिक्षण विधि- मौखिक विधि का प्रयोग करके मनोरंजक विधि से शिक्षा दी जाती थी। उसके बाद चिन्तन-मनन के लिये कहा जाता था। गुरुजन प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद तथा शास्त्रार्थ विधि का भी प्रयोग करते थे। इस काल में मॉनिटोरियल व्यवस्था भी प्रचलित थी उच्च कक्षा के छात्र निम्न कक्षा के छात्रों को पढ़ाते थे।

6. गुरु-शिष्य सम्बन्ध – डॉ. अल्टेकर के अनुसार- “छात्र तथा अध्यापक के मध्य सम्बन्ध किसी संस्था के माध्यम से नहीं, अपितु सीधे उन्हीं के बीच था। छात्र विद्याध्ययन के लिये उन्हीं लब्ध प्रतिष्ठित गुरुओं के पास जाते थे, विद्वता के कारण जिनकी ख्याति थी।” इस युग में शिष्य गुरु की तन-मन और धन से सेवा करते थे। उनके कर्त्तव्य इस प्रकार थे-

(i) शिष्य के कर्त्तव्य- भिक्षा माँगना, लकड़ी काटकर लाना, पशु चराना, अध्ययन करना तथा आज्ञा पालन करना।

(ii) गुरु के कर्त्तव्य- अध्यापक द्वारा छात्रों के वस्त्र, भोजन की व्यवस्था करना, चिकित्सा पानी भरना, तथा सेवा सुश्रुषा करना। गुरु योग्य छात्र को उत्साहित करते थे।

7. अनुशासन और दण्ड- विद्यार्थी का जीवन पूर्ण ब्रह्मचर्य का जीवन था जिसमें ब्रह्मचारी को रहन-सहन, खान-पान एवं वेश-भूषा सम्बन्धी नियमों का पालन जागरूक होकर करना पड़ता था। सभी छात्र अनुशासित जीवन व्यतीत करते थे। प्राचीन भारत में छात्रों को दण्ड देने की प्रथा थी। दण्ड के रूप- समझाना, बुझाना, उपदेश तथा उपवास आदि थे।

8. शिक्षालय भवन- जो छात्र विहारों तथा देवालय में पढ़ते थे, उनके लिये भवन बने हुए थे। सामान्यत: शिक्षण कार्य वृक्षों की शीतल छाया के नीचे हुआ करता था, किन्तु वर्षा के समय गुरुगृह में जिनमें आच्छादन की अच्छी व्यवस्था होती थी, अध्यापन किया जाता था।

9. प्रकृति से सम्पर्क- उस समय में शिक्षा के अनेक विख्यात केन्द्र तपोवनों में थे, जहाँ ऋषियों और मुनियों के चरणों में बैठकर छात्र ज्ञान का संचय करते थे। अत: उनका प्रकृति से प्रत्यक्ष सम्पर्क रहता था, जिसका उनके शारीरिक और मानसिक विकास पर अत्यन्त स्वस्थ प्रभाव पड़ता था ।

10. शिक्षा-सत्र एवं छुट्टियाँ- शिक्षा – सत्र, श्रावण मास की पूर्णिमा को ‘उपाकर्म’, ‘श्रावणी’ समारोह से आरम्भ होता था और पौष मास की पूर्णिमा को ‘ उत्सर्जन’ समारोह के साथ समाप्त होता था। इस प्रकार शिक्षा सत्र की अवधि पाँच माह की थी। आधुनिक समय के समान प्राचीन समय में भी शिक्षा-संस्थाओं में अवकाश होते थे। अधिक समय तक अवकाश नहीं होते थे क्योंकि आवागमन सम्बन्धी कठिनाइयों के कारण छात्र साधारणतः शिक्षा समाप्त करके ही घर लौटते थे।

11. निःशुल्क एवं सार्वभौमिक शिक्षा- प्राचीन भारत में शिक्षा निःशुल्क थी। शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् प्रत्येक छात्र अपने गुरु को दक्षिणा अवश्य देता था। वह दक्षिणा के रूप में धन, भूमि, पशु तथा अन्न कुछ भी दे सकता था। गुरु दक्षिणा इतनी कभी नहीं होती थी, जो शिक्षक का पर्याप्त पारिश्रमिक कहा जा सके।

12. अग्र शिष्य प्रणाली- उच्च कक्षा के बुद्धिमान छात्र निम्न कक्षाओं के छात्रों को शिक्षा देते थे। इस प्रकार गुरु के शिक्षण कार्य में सहायता करते थे। इन विद्यार्थियों का सम्मान शिक्षकों की तरह किया जाता था। इस पद्धति के दो लाभ थे-पहला, शिक्षक की अनुपस्थिति में शिक्षण का कार्य अधिकांश कक्षाओं में चलता रहता था। दूसरा, कक्षानायक कुछ समय के बाद शिक्षण कार्य में प्रशिक्षित हो जाते थे।

13. परीक्षा-प्रणाली- प्राचीनकाल की शिक्षा प्रणाली परीक्षाविहीन थी। गुरु नया पाठ तब पढ़ाता था जब छात्र पहले पढ़ाये गये पाठ को पूरी तरह से कण्ठस्थ कर लेते थे। जब छात्र प्रतिदिन के पाठ को अगले दिन सुनाते थे तब वे अपनी कमियों/त्रुटियों को दूर कर लेते थे। शिक्षा समाप्ति पर विद्यार्थी को स्थानीय विद्वानों की सभा में उपस्थित किया जाता था जहाँ वह विद्वानों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देता था। यह समापवर्तन संस्कार के बाद में होता था ।

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