जायसी के विरह वर्णन पर एक निबन्ध लिखिये।
हिन्दी के सूफी प्रेम-काव्यों में संयोग वर्णन के साथ ही वियोग वर्णन भी मिलता है। संयोग की अपेक्षा वियोग वर्णन में कवियों की मनोवृत्ति विशेष-सी है, जिसका कारण कदाचित् यह है कि बिना दुःख के परमात्मा का साक्षात्कार संभव नहीं है। जायसी के काव्य में वियोग वर्णन हुआ है। कवि ने नायक-नायिका दोनों की विरह दशा का चित्रण किया है परन्तु उसमें प्रधानता नायिकाओं के विरह की है।
डॉ. त्रिगुणायत के अनुसार ‘जायसी’ विरह के सम्राट हैं। विरहानुभूति उनके जीवन और काव्य की मूल चेतना है। जायसी ने विरह के महत्त्व की व्यंजना करते हुए विरह से स्वर्ण-पाताल का जलना स्वीकार है।
प्रीति बेलि संग विरह अपारा।
सरग पतार जरै तेहि झारा ।।
पद्मावत में जायसी ने रत्नसेन की रानी नागमती तथा पद्मावती दोनों के वियोग का चित्रण किया है। परन्तु प्रधानता नागमती के विरह की है। नागमती के वियोग-वर्णन में भारतीय नारी का आदर्श रूप व्यंजित हैं जिसमें मार्मिकता, पतिपरायणता एवं प्रेम प्रवीणता है। नागमती वियोग खण्ड में कवि ने नागमती के विरह की प्रभावशाली अभिव्यक्ति की है। सारी सृष्टि नागमती के आँसुओं से भीगी है-
कुहुकि– कुहुकि जस कोइल रोई । रकत आंसु घुंघुची बन बोई।।
भइ करमुखी नैन तन राती को सेराव विरहा दुख ताती ।।
जहं-जहं ठाढ़ होई बनवासी। तह-तह कोई घुंघुचि कै रासी ।।
बूंद-बूंद महं जानउ जीऊ। गुंजा गुंजि करे पिउ पीऊ ।।
वेदना की तीव्रता को प्रदर्शित करने के लिए कवि ने ऊहात्मकता का सहारा लिया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में “जायसी का विरह वर्णन कहीं-कहीं अत्यन्त अत्युक्तिपूर्ण होने पर भी मजाक की हद तक नहीं पहुँचने पाया है। उसमें गांभीर्य बना हुआ ह।” नागमती के विरह की व्यापकता की ओर जायसी द्वारा ध्यान दिया गया है। उन्होंन उसके विरह को व्यापक तथा सृष्टि भर में फैला दिखाने की चेष्टा की है। नागमती के वियोग के कारण मेघों का काला होना, राहु, केतु का जलना, तारे नक्षत्रों का जलना तथा धरती लूक उठना वर्णित है-
अस पराजरा विरह परगठा मेघ साम भए धूप जो उठा ।।
दाढ़ा राहु केतु गा दाधा। सूरत जा चांद जरि आधा ।।
और सब नखत तराई जरई। टूटहिं लूक धरति महं परई ।।
कवियों ने वियोगिनी नायिकाओं की मनोदशा का “बारहमासा के माध्यम से चित्रण किया है। वर्ष के बारह महीनों में बदलने वाले मौसम नायिका के विरह ताप को बढ़ाते हैं। विभिन्न त्यौहारों का उल्लास उनके हृदय में विषाद भर देता है। जायसी ने नागमती विरह व्यंजना में बारहमासा की योजना की है। कार्मिक मास में विरहिणी नागमती की अवस्था अवलोकनीय है।
कार्तिक सरद चन्द्र उजियारी। जगत सीतल हों बिरहई जारी ।।
चौदह करा चांद परगासा । जनहुं जरे सब घरनि अकासा।।
तन-मन सेज अगिदाहू। सब कहं चंद भयउ मोंहि राहु ।।
चहूं खण्ड लगे अंधियारा । सब कह नाहीं केत पियारा ।।
भारतीय साहित्य में विरह के प्रसंग में वीभत्स चित्रण का अभाव है। कवियों ने खून आदि का उल्लेख नहीं किया है। फ़ारसी साहित्य में वीभत्स चित्रण अवश्य मिलते हैं। जायसी ने फारसी काव्य से प्रेरणा ग्रहण कर नायिका के विरह का चित्रण किया है। नागमती के खून के आँसुओं से पृथ्वी पर वीर बहूटियों की पंक्ति चलती प्रतीत हो रही है-
रकत के आंसु परहिं भुहं टूटी।
रेंग चली जस वीर बहूदी ।।
विरह की अवस्थाओं का चित्रण भारतीय आचार्यों ने किया है। नागमती के विरह में इन सब अवस्थाओं के चित्र मिलते हैं। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत है-
अभिलाषा-
घिरिना परेवा होइ, पिउ बेगि आउ परि टूटि ।
नारि पराए हाथ है, बिनु पाव न छूटि ।।
स्मरण-
सरवरि संवरि हंस चलि आए ।
सारस कुरलहिं खंजन देखाए ।।
उन्माद-
बरस दिवस धनि रोइ कै, हारी परी चित झंखि ।
मानुष घर-घर बुझि कै, बूझे निसरी पंखि ।।
व्याधि-
तन जस पियर पात भा मोरा ।
तेहि पर विरह देहि झकझोरा ।।
नागमती की विरह संदेश की ज्वाला का जायसी ने ऊहात्मक चित्रण किया है। उसके संदेश से सम्पूर्ण सिंहल जलने लगता है-
लै सो संदेश विहंगम चला।
उठी अग्नि बिनसा सिंहला ।।
जायसी ने नागमती के विरह वर्णन में भारतीय नारी की विरह व्यथा चित्रित की है, जिसमें मार्मिकता एवं संवेदनशीलता है। पुष्य नक्षत्र के आते ही गाँवों के छप्पर की मरम्मत आरम्भ हो जाती है। ग्रामीण नारी की तरह नागमती भी महलों की बात न कर प्रिय के द्वारा छप्पर न छाये जाने की बात कहती है-
पुष्प नखत सिर ऊपर आवा।
हौं बिनु नाह मंदिर को छावा ।।
भारतीय नारी अपने वियोग का प्रदर्शन नहीं करती है। वह भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती है-
बदन पियर जस उम्गत नैना ।
परगट दुख प्रेम की बेना ।।
उसकी अभिलाषा प्रिय के समीप हो जाने की है, वह अपने अस्तित्व को मिटा कर भी प्रिय का सान्निध्य चाहती है-
यह तन जारौ छार कै, कहौं कि पवन उडाव ।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाँव ।।
जायसी के विरह वर्णन में ऊहात्मकता की भी प्रधानता है। नागमती की वियोग ज्वाला पक्षियों तक को जला देती है-
जेहि पंखी कि नियर होई, कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाई जरि, तरुषा होई नियात ।।
नागमती के आँसुओं से समस्त सृष्टि भर उठती है-
कुहुकि- कुहुकि जस कोइल रोई, रकत आंसु घुंघुची बन बोई।
कवि के वियोग में फारसी प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वीभत्सता भी है-
विरह सरागन्हि भुंजै मासू ।
गिरि – गिरि परै रकत के आंसू ।।
इस प्रकार जायसी का विरह वर्णन हिन्दी की अमूल्य निधि है । उसमें सरसता एवं कमनीयता है।
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