रहस्यवाद क्या है?
‘रहस्यवाद’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- रहस्य और वाद। रहस्य शब्द का अर्थ-छिपा हुआ, न जाना हुआ और वाद का अर्थ है-विचारधारा। इस प्रकार रहस्यवाद का शब्दार्थ हुआ, छिपे अथवा अज्ञात से सम्बन्धित विचाराधारा। संसार में सबसे अधिक छिपा हुआ ईश्वर ही है। उसी को परमतत्त्व, ब्रह्म, असीम आदि शब्दों के द्वारा कहा गया है। मनुष्य, कवि अथवा आत्मा उस अज्ञात परमेश्वर को जानने का प्रयत्न करता है, यहाँ रहस्यवाद है। इस अज्ञात और अप्राप्त परमात्मा को प्राप्त करने के लिए आत्मा जो प्रयत्न करती है, उसी का नाम रहस्यवाद है।
रहस्यवाद की परिभाषा
विद्वानों ने रहस्यवाद की अलग-अलग परिभाषाएँ की है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं- “ज्ञात के क्षेत्र में जिसे अद्वैतवाद कहते हैं, काव्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है ।” इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि रहस्यवाद केवल कविता का विषय है। ब्रह्म के अतिरिक्त किसी की सत्ता न मानना अद्वैतवाद है। आत्मा जब परमात्मा से एकाकार हो जाती है, साध् क जब अपने साध्य में विलीन हो जाता है तो उसे परमात्मा अथवा ब्रह्म के अतिरिक्त क कोई प्रतीत नहीं होता।
रहस्यवाद के अन्तर्गत आत्मा, परमात्मा और यह संसार आते हैं संसार मायामय है। संसार और इसके बन्धन ही आत्मा और परमात्मा के मिलन में बाधक है। कवि जब इस जगत की उपेक्षा करके परमात्मा से एकाकार हो जाता है, तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उसी दशा में कवि की वाणी से निकली कविता रहस्यवादी कविता होती है। संसार की उपेक्षा करना सरल नहीं है। इस संसार के कण-कण में परमात्मा के दर्शन करके अथवा उसी के सौन्दर्य का अनुभव करके परमात्मा से एकाकार हुआ जा सकता है।
रहस्यवाद की अवस्थाएँ
रहस्यवाद की तीन निम्नलिखित अवस्थाएँ मानी जाती हैं-
(1) जिज्ञासा की अवस्था- जानने की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं। यह प्रारम्भिक अवस्था है। गुरु की कृपा अथवा भजन और चिन्तन से साधक अथवा कवि के मन में उस परमतत्त्व को जानने की तीव्र इच्छा जाग उठती है। यही जिज्ञासा की अवस्था है। जयशंकर प्रसाद ने अपने महाकाव्य कामायनी में मनु के माध्यम से के इस दशा का संकेत किया है
हे अनन्त रमणीय! कौन तुम, यह कैसे कह सकता।
कैसे हो, क्या हो, इसका तो भार विचार न सह सकता ।।
(2) दर्शन और परिचय की अवस्था- इस अवस्था में साधक अथवा कवि परमात्मा के दर्शन पाकर अथवा उसकी अनुभूति करके आश्चर्यचकित हो जाता है। इस अवस्था में आत्म विभोर कर देने वाला आनन्द प्राप्त होता है। प्रसाद जी की इन पंक्तियों में इस दशा का वर्णन है-
हे विराट! हे विश्वदेव! तुम कुछ हो ऐसा होता भान ।
मन्द गंभीर धीर स्वर संयुत यही कर रहा सागर गान।।
(3) मिलन अथवा तादात्म्य की अवस्था- इसे सिद्धावस्था कहा जाता है। इसमें साधक और साध्य अथवा आत्मा और परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है, दोनों एकाकार हो जाते हैं। कबीर की इस साखी में यह अवस्था मुखर हुई है
हेरत- हेरत हे सखी! गया कबीर हिराय ।
बूँद समानी समद में सो कत हेरी जाय ।।
कबीर का रहस्यवाद
कबीर कवि होने के साथ-साथ साधक और भक्त भी थे, इसी कारण उनकी कविता में अनुभूति की रहस्यात्मक अभिव्यक्ति बहुत गहरी है। कबीर ने कागद की लेखी न कहकर आँखिन की देखी कही है। कबीर ने जो अनुभव किया, उसी को अपनी कविता में कह दिया है। इसी कारण रहस्यवादी कवियों में कबीर सर्वश्रेष्ठ हैं। कबीर के रहस्यवाद में कहीं सूफियों के प्रेम मार्ग के दर्शन होते हैं और कहीं पर हठ योगियों की छाप दिखाई देती है। कहीं कबीर ने सिद्धों की भाषा बोली है तो कहीं उपनिषदों के आधार पर रहस्यपूर्ण शैली में उस अज्ञात का वर्णन किया है
कबीर के रहस्यवाद में अद्वैतवाद का ज्ञान, प्रेम प्रधान भक्ति और योगियों के अनुभव समन्वय है। कबीर ज्ञात के सहारे अद्वैत की स्थिति में पहुँचते हैं और अद्वैत की स्थिति का वर्णन करने के लिए प्रेम का सहारा लेते हैं। यही कबीर की विशेषता है।
कबीर की कविता में रहस्यवादी अवस्थाएँ
कबीर ने रहस्य अथवा अज्ञात प्रिय को प्राप्त करने की सभी सीढ़ियों पर की थीं, इसलिए कबीर की कविता में रहस्यवाद की सभी अवस्थाएँ पाई जाती है।
(1) जिज्ञासा की अवस्था – रहस्यवाद की पहली सीढ़ी जिज्ञासा की अवस्था कबीर की कविता के उन स्थलों में मालूम होती है, जहाँ प्रियतम की साधारण-सी झलक देखकर उसके प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है। यहाँ प्रेमवाद विरह में बदल जाता है। कबीर को गुरु की कृपा से ही अपने प्रियतम की झलक देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। गुरु के संकेत ही शिष्य पर प्रेम के बादल बनकर आनन्द का जल बरसाते हैं-
सतगुरु हम पर रीक्षि कर एक कह्या परसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग ।।
(2) परिचय की अवस्था – यह रहस्यवाद की दूसरी सीढ़ी है। परिचय की अवस्था से ही कबीर में साधनात्मक रहस्यवाद आरम्भ होता है। कविता में आकर यह साधनात्मक रहस्यवाद भावनात्मक से मिलकर एकरूप हो गया है। इस अवस्था में कबीर को अपने प्रिय के अनुपम सौन्दर्य के दर्शन होने लगते हैं। कबीर परब्रह्म का तेज अनुभव करके कह उठते हैं-
पारब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान |
कहिबै कूँ शोभा नहीं देख्याँ ही परमान।।
परिचय की इस अवस्था में साधक साध्य में और भक्त अपने भगवान में विलीन होना चाहता है। वह द्वैत को समाप्त करके एक होना चाहता है। परिचय के अन्तर्गत मिलन की इस उत्सुकता के दर्शन कबीर की इस साखी में होते हैं-
घट माहें औघट लह्या औघट माहें घाट ।
कहि कबीर परचा मया गुरु दिखाई बाट ।।
(3) मिलन की अवस्था- इस अवस्था को सिद्धावस्था भी कहा जाता है। साधक की साधना पूर्ण हो जाती है। वह जो पाना चाहता है, वह उसे मिल जाता है। इस अवस्था में आत्मा की सत्ता समाप्त हो जाती है। मैं और तू का भेद मिट जाता है। सभी जगह तू दिखाई देता है। जब-तक कबीर को अपने होने का ज्ञान था, तू तब-तक उन्हें हरि अर्थात् भगवान का पूर्ण साक्षात्कार नहीं था। उसका साक्षात्कार करते ही अपने होने का अज्ञान उसी प्रकार मिट गया, जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से अंधकार मिट जाता है-
जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नांहि ।
सब अंधियारा मिटि गया दीपक देख्यां माँहि ।।
कबीर अपने लाल (परमात्मा, प्रिय, इष्टदेव) की लाली देखने निकले थे अर्थात् प्रयत्न कर रहे थे कि कबीर स्वयं लाल हो गये। कबीर अपनापन भूलकर उसी परमतत्त्व में विलीन हो गये, जिसका साक्षात्कार करना चाहते थे। इसके पश्चात् संसार समाप्त हो गया। आत्मा और परमात्मा के मिलन में जो संसार माया के रूप में बाधक बना हुआ था, वह ओझल हो गया। कबीर को सर्वत्र अपने प्रियतम के ही दर्शन होने लगे-
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ।।
मिलन के पश्चात् कबीर के अन्तर में अर्थात् मन में ऐसा कमल विकसित हो गया, जिसमें ब्रह्मरूपी सुगन्ध थी। कबीर का मन रूपी भौंरा चंचलता छोड़कर उसी ब्रह्मरूपी सुगन्ध पर लुभा गया-
अन्तरि कमल प्रकासिया, ब्रह्मबास तहँ होय ।
मन भँवरा तहँ लुबुधिया, जानेगा जन कोय ।।
उस समय कबीर को लगा कि मैं तो उस मृग के समान था, जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है और जो उसे खोजता फिरता है। उसके राम तो उसके मन में ही थे। जब तक कबीर के सामने दुनियाँ थी, तभी तक वे अपने राम को नहीं देख पा रहे थे। बहिर्मुखी दृष्टि के अन्तर्मुखी होते ही कबीर ने अपने राम का साक्षात्कार कर लिया-
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढै वन माँहि ।
ऐस ही घट-घट राम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि ।।
माया को जीतने के बाद ही कबीर अपने प्रिय के दर्शन करके उससे एकाकार हो सके थे। माया को जीतने में गुरु की कृपा ही कबीर का सहारा था। यदि गुरु देती की कृपा नहीं होती तो खंड के समान मीठी माया कबीर को हास्य का पात्र बना-
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खाँड़ ।
सतगुरु की किरपा भई, नहीं तो करती भाँड़ ।।
सतगुरु की कृपा से कबीर जान गये थे कि माया ठगिनी है। वह फंदा लेकर बाजार में बैठी है। सारा संसार माया के जिस फंदे में पड़ गया, उसे कबीर ने काट दिया-
माया ऐसी पापिनी फँद ले बैठी हाट ।
सब जग तौ फंदे पर्या, गया कबीरा काटि ।।
रहस्यवाद के तत्त्व और कबीर
रहस्यवाद के जो तत्त्व बताये गये हैं, वे सभी कबीर की कविता में पाये जाते हैं।
(1) अनिर्वचनीयता- ब्रह्म अथवा परमात्मा अनिर्वचनीय है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उस ब्रह्म आभास मात्र से साधक मतवाला होकर झूमन लगता है। वह ऐसी मदिरा है, जिसका नशा कभी नहीं उतरता-
हरि रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाय खुमार ।
मैमन्तः घूमत रहै, नाहीं तन की सार ।
(2) आस्तिकता – आस्तिकता रहस्यवाद के लिए बहुत आवश्यक शर्त है। साधक जब तक ब्रह्म की सत्ता स्वीकार नहीं करेगा, तब तक न उसे पाने का प्रयत्न करेगा और न पा सकेगा। कबीर को वह ब्रह्म सारे संसार में व्याप्त सुनने की अभिलाषा थी । वे ज्ञानियों से उसी तत्त्व की बात सुनना चाहते थे
जल में कुंभ, कुंभ में जल हैं, बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथहु गियानी ।।
(3) प्रेम भावना– साधनात्मक रहस्यवाद का काम चाहे प्रेम के बिना चल जाता हो, पर रहस्यवादी कवि का नहीं चलता। कबीर की कविता में भारतीय पद्धति और सूफी पद्धति दोनों प्रकार का प्रेम देखा जा सकता है। भारतीय पद्धति केवल पति-पत्नी के प्रेम की अनुमति देता है। यह प्रेम कबीर ने अपने आपको राम की बहुरिया बताकर प्रकट किया। सूफी पद्धति का प्रेम निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है
हिरदा भीतर दो बलै धुआँ न परगट होय ।
जाकै लागी सौ लखै, जेहि लाई होय ।।
(4) सतगुरु के प्रति श्रद्धा- कबीर में अपने गुरु के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा है कि वे अपने गुरु को गोविन्द से भी अधिक महान् समझते हैं।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय ।
बलिहारी गुरु आपणै, जिन गोविन्द दियो बताय ।।
(5) आत्म-शुद्धि- कबीर आत्म शुद्धि की उस स्थिति तक पहुँच गये थे, जहाँ वे किसी को ठगने की अपेक्षा स्वयं ठगा जाना श्रेष्ठ समझते थे
कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिये कोय ।
आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुःख होय ।।
अन्त में डॉ. भगवान स्वरूप मिश्र के स्वर में मिलाकर कहा जा सकता है- “कबीर केवल पाश्चात्य सूफी परम्परा के रहस्यवादी ही नहीं है अपितु उनमें भारतीय अद्वैत वेदान्त के ज्ञान, वैष्णव भक्ति के अनन्त प्रेम का अपूर्व समन्वय है। यही कारण है कि डॉ. श्याम सुन्दर दास ने कबीर को रहस्यवादी कवियों में सर्वश्रेष्ठ माना है।”
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