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भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति | पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की धीमी गति | नर्सरी शिक्षा संबन्धी सिफारिशें

भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति | पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की धीमी गति | नर्सरी शिक्षा संबन्धी सिफारिशें
भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति | पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की धीमी गति | नर्सरी शिक्षा संबन्धी सिफारिशें

भारत में पूर्व प्राथमिक (नर्सरी) शिक्षा की वर्तमान स्थिति की संक्षिप्त विवेचना कीजिये। नर्सरी शिक्षा की धीमी गति क्यों हैं ? कारण बताइये तथा सुधार के उपाय बताइये।

भारत में पूर्व प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान स्थिति

वर्तमान में पूर्व प्राथमिक शिक्षा केवल शहरी क्षेत्र तक ही सीमित है। अधिकतर पूर्व प्राथमिक विद्यालय निजी संस्थाओं द्वारा संचालित हैं, सिर्फ कुछ पूर्व प्राथमिक विद्यालय ही पूर्व प्राथमिक शिक्षा केन्द्र राज्य या केन्द्र द्वारा संचालित हैं। यद्यपि राज्य उदार अनुदानों की मदद से पूर्व प्राथमिक शिक्षा को प्रात्साहित करता है परन्तु फिर भी पूर्व प्राथमिक शिक्षा की वर्तमान दिशा सन्तोषप्रद नहीं है। इन पूर्व प्राथमिक विद्यालयों में सिर्फ उच्च वर्ग के बालक ही शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं। इन स्कूलों की फीस भी बहुत अधिक होती है तथा कार्यक्रम भी इस प्रकार का होता है जिसका सम्बन्ध प्रायः सम्पन्न परिवारों के वातावरण से होता है, जिसके कारण अधिकतर भारतीय बालक पूर्व प्राथमिक शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। इसके अतिरिक्त अधिकतर पूर्व प्राथमिक स्कूलों के पास न तो उपयुक्त भवन ही हैं तथा न ही आवश्यक शिक्षण सामग्री। इन विद्यालयों की सबसे बड़ी कमी है अप्रशिक्षित अध्यापकों का होना। ये शिक्षक शिशुमनोविज्ञान के मूलभूत सिद्धान्तों के ज्ञान के अभाव में परम्परागत शिक्षण करते हैं जो कि शिशुओं के स्वाभाविक विकास में बाधा डालता है।

यद्यपि पूर्व प्राथमिक विद्यालय खोलने के लिए बेसिक शिक्षा अधिकारी की अनुमति आवश्यक है परन्तु अधिकतर विद्यालय बिना मान्यता लिए चलाये जाते हैं। ऐसे स्कूलों के संचालन का प्रमुख उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा धन कमाना होता है तथा विद्यालय में आवश्यक सुविधायें उपलब्ध कराने व बालकों को उचित रूप से शिक्षित करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। नर्सरी स्कूल खोलना एक ऐसा लाभदायक व्यवसाय हो गया है कि इच्छा रखता है। कभी-कभी तो एक ही व्यक्ति के द्वारा कई नर्सरी स्कूल चलाये जाने के उदाहरण भी मिलते हैं। इन सभी कारणों से ही पूर्व प्राथमिक शिक्षा अपनी वांछित प्रगति नहीं कर पा रही है, किन्तु यह एक सन्तोषप्रद विषय है कि आम जनता तथा सरकार दोनों ही पूर्व प्राथमिक शिक्षा के महत्व को स्वीकारने लगे हैं।

इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार तथा शिक्षा विशेषज्ञ पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए व्यापक योजनायें तैयार करें जिससे बालकों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा का लाभ प्राप्त हो सके। राज्य सरकारें निजी संस्थाओं को उदार अनुदान देकर पूर्व प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था करके तथा राज्य स्तर पर पूर्व प्राथमिक शिक्षा विकास केन्द्र खोलकर पूर्व प्राथमिक शिक्षा की बढ़ोत्तरी में मदद कर सकती हैं। पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए उपयुक्त साहित्य की रचना करके तथा अनुसन्धान द्वारा पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए कम खर्च वाली शिक्षण विधियों का विकास करना भी बहुत जरूरी है।

पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की धीमी गति

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के सभी स्तरों पर विकास हुआ है। पूर्व प्राथमिक शिक्षा में भी बहुत प्रगति है।

1950-51 में मान्यता प्राप्त पूर्व-प्राथमिक स्कूलों की संख्या केवल 305 थी जो बढ़कर 1998-99 में 51,569 हो गई।

चूँकि पूर्व प्राथमिक शिक्षा, राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का अंग नहीं हैं, इस कारण पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। अधिकतर स्कूल मान्यता प्राप्त नहीं हैं। वैसे शहरी क्षेत्रों में तो स्कूल गली-गली में हैं।

इस स्तर पर मान्यता प्राप्त स्कूल केवल 17 प्रतिशत बच्चों को शिक्षा प्रदान करते हैं।

आम तौर पर नर्सरी स्कूल गैर-सरकारी संस्थाओं अथवा व्यक्तिगत स्तर पर खोले गए हैं। इस कारण शिक्षा बड़ी खर्चीली हो गयी है।

नर्सरी शिक्षा की प्रमुख समस्यायें तथा धीमी प्रगति के कारण

  1. सरकार की नर्सरी शिक्षा के प्रति उदासीन नीति ।
  2. नर्सरी शिक्षा की योजना का अभाव।
  3. उचित पाठ्यक्रम तथा आवश्यक सामान की कमी।
  4. अधिक फीसें।
  5. नए प्रयोगों का न होना।
  6. पूर्व प्राथमिक शिक्षा संस्थाओं के संगठन की कमी।
  7. नर्सरी अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाओं की कमी।
  8. उचित पठन सामग्री का अभाव।
  9. साधारण जनता का अनपढ़ होना।
  10. अच्छे भवनों की कमी।

पूर्व प्राथमिक अथवा नर्सरी शिक्षा संबन्धी सिफारिशें

समय समय पर गठित शिक्षा समितियों ने तथा कोठारी कमीशन (1964-66), स्वामीनाथन समिति (1972) तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986 तथा 1992) आदि ने जो संस्तुतियाँ की, उनका सारांश नीचे दिया जा रहा है।

(A) पाठ्यक्रम आवश्यक सामान और सेवायें उपलब्ध करना निम्नलिखित की व्यवस्था होनी चाहिए।

1. शारीरिक विकास और संतुलन के लिए सुविधाएँ- खुले मैदान में उछलना, कूदना, फिसलना, झूलना, शारीरिक संतुलन बनाना।

2. निजी स्वास्थ्य सम्बन्धी क्रियायें और आदतों का विकास- इन क्रियाओं का उद्देश्य बच्चों को स्वास्थ्य के नियमों की जानकारी कराना है जिससे वे स्वास्थ्य सम्बन्धी अच्छी आदतें अपनायें और घर तथा स्कूल में उनका स्वतन्त्रतापूर्वक पालन करें। इस सम्बन्ध में शरीर को साफ करना, बालों में कंघी करना, और कपड़ों की देखभाल से सम्बन्धित क्रियाएं हैं।

3. विशेष उपकरणों द्वारा प्रशिक्षण देना- चित्रकला, मिट्टी का काम, कागज काटना, चित्र काटना और चिपकाना, भूमि खोदना, फूलों और पत्तियों को गूंथना आदि क्रियात्मक रूप देने वाली क्रियाएं हैं।

4. आसपास की सफाई- सफाई की क्रियाओं में बच्चों को आनन्द आता है। उनके लिए सफाई द्वारा काम की अपेक्षा मनोरंजन अधिक होता है। इन क्रियाओं का उद्देश्य बच्चों में घर और पास-पड़ोस की सफाई का भाव जागृत करना है।

5. प्रकृति का अनुभव- पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और दूसरे प्राकृतिक दृश्यों का ध्यानपूर्वक देखना और इस प्रकार की सामग्री एकत्र करना। इन क्रियाओं द्वारा बच्चों में भाषा और वैज्ञानिक अनुभवों की सूत्रपात होता है।

6. भाषा और गिनती का ज्ञान- इस शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को विधिवत् लिखना, पढ़ना और हिसाब सिखाना नहीं है, अपितु मनोवैज्ञानिक ढंग से इनकी आयु के अनुसार आवश्यकताओं को पूरा करके प्राथमिक शिक्षा के योग्य बनाना है। इन क्रियाओं के अन्तर्गत वार्तालाप करना, कहानी सुनना, अभिनय द्वारा भाद प्रकट करना, आकृति के अनुसार अक्षरों को पहचानना और ध्वनि से उनका सम्बन्ध स्थापित करना तथा स्थूल वस्तुओं द्वारा अंकों की स्थिति की जानकारी प्राप्त करना है।

(B) उपकरण सामग्री- क्रियाओं के लिए आवश्यक उपकरणों के लिए स्थानीय साधनों का प्रयोग करके अधिकांश सामग्री प्राप्त की जा सकती है। अध्यापकों को प्रशिक्षण काल में उपलब्ध साधनों से सामग्री बनाने और स्थानीय दस्तकारों से सामग्री बनवाने का भी प्रशिक्षण देना चाहिए।

पूर्व प्राथमिक स्कूलों में ‘खिलौनों का बैंक’ बनाया जाए, जहां प्रयोग में आने वाले खिलौने एकत्र किए जाएं। खिलौने बनाने का काम दस्तकारी के रूप में आरम्भ किया जाए।

ग्रामीण क्षेत्रों के अनुभव के आधार पर पाठ्यक्रम बनाया जाए। शिक्षा विभाग के शिक्षा के अनुसंधान ब्यूरों को पूर्व प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में अनुसंधान और प्रयोग करने चाहिएं। यहां से प्राप्त जानकारियों के आधार पर पूर्व प्राथमिक स्कूलों के प्रयोग के लिए निर्देश पुस्तकें बनानी चाहिएं।

(C) दो पालियाँ- पूर्व प्राथमिक स्कूलों में तीन-तीन घण्टे की दिन में दो पालियां होनी चाहिएं। सब बालकों को दो वर्गों में बाँट देना चाहिए। प्रत्येक वर्ग को एक पाली में आना चाहिए। स्थानीय और मौसम की दशानुसार स्कूल का समय निश्चित करना चाहिए। ऐसा करने से पूर्व प्राथमिक शिक्षा का प्रसार कम खर्चे पर और तेजी से हो सकेगा।

(D) स्कूल भोजन- इसका उद्देश्य केवल पौष्टिक भोजन देना नहीं है, बल्कि उन्हें सामाजिक क्रियाओं का प्रशिक्षण देना भी है। सबसे सरल यह है कि बच्चों को स्कूल समय में दूध दिया जाए। इसकी उचित व्यवस्था का उत्तरदायित्व पंचायतों पर छोड़ देना चाहिए।

(E) बालकों की संख्या- प्रत्येक अध्यापक के अधीन 20 से अधिक बालक नहीं होने चाहिए। अध्यापक की सहायता के लिए एक सहायक भी होना चाहिए।

(F) अध्यापक और उनका प्रशिक्षण, नर्सरी स्कूल के अध्यापकों की न्यूनतम योग्यतायें- इस स्तर पर बच्चों को जो प्रशिक्षण दिया जाता है वह भावी शिक्षा का ही आधार नहीं होता बल्कि उस पर हो बालक का वयस्क व्यक्तित्व निर्भर होता है। अत: पूर्व-प्राथमिक स्कूल के कर्मचारियों के शिक्षण का प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है। प्रशिक्षण के लिए न्यूनतम स्तर 11 अथवा 12 पास होना चाहिए।

(G) भवन– पूर्व प्राथमिक स्कूलों की आवश्यकता प्राय: साधारण बिल्डिंग द्वारा पूर्ण हो। जहां सम्भव हो वहां अधिक लागत पर सुन्दर भवन बनाए जाएं। कम लागत वाली बिल्डिंग का सुझाव इसलिए दिया गया है, जिससे कि प्रामीण क्षेत्रों में पूर्व प्राथमिक शिक्षा में बाघा न आए। पूर्व प्राथमिक स्कूलों की आवश्यकताओं को देखते हुए विभिन्न लागत वाले विभिन्न भवनों की रूपरेखा तैयार की जाए। यह प्रयोग किसी विशेष क्षेत्र में किए जाएं।

प्रशिक्षण के लिए दो प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए-

(i) पूर्व प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण का समय दो वर्ष रखा जाए। इस पाठ्यक्रम में बच्चों का विकास, स्वास्थ्य और पूर्व प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य तथा कार्य प्रणाली सम्मिलित होनी चाहिए। पाठ्यक्रम में बच्चों का विकास, स्वास्थ्य और पूर्व प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य तथा कार्य प्रणाली सम्मिलित होनी चाहिए। पाठ्यक्रम का एक प्रयोगात्मक भाग भी होना चाहिए जिसमें प्राथमिक अध्यापक एक अतिरिक्त अध्यापक के रूप में पूर्व प्राथमिक स्कूल में कार्य कर सके और उसके कार्य की जांच की जा सके। इसी उद्देश्य से उसे किसी ऐसे गांव में कार्य करने को भेजा जाए जहाँ पूर्व प्राथमिक स्कूल स्थापित करने का विचार हो अथवा किसी अस्पताल के बाल विभाग अथवा शिशु कल्याण केन्द्र में कार्य करने का अवसर दिया जाए जिससे वह उपकरणों का बनाना और प्रयोग करना पूर्ण रूप से सीख जाए।

(ii) छ, महीने के अल्पकाल प्रशिक्षण कार्यक्रम बनाए जाएं जिससे ऐसे प्राथमिक अध्यापकों को प्रशिक्षण दिया जा सके जो पूर्व- प्राथमिक स्कूलों में कार्य करना चाहते हैं।

(H) सरकार द्वारा पूर्व प्राथमिक स्कूलों की स्थापना – यद्यपि पूर्व प्राथमिक स्कूलों की स्थापना और इसके विकास की जिम्मेदारी स्थानीय संस्थाओं और निजी संस्थाओं की है, फिर भी सरकार को स्वयं भी स्कूल स्थापित करने चाहिएं—

(1) ऐसे क्षेत्रों में जो विशेष रूप से शिक्षा और आर्थिक क्षेत्रों में पिछड़े हुए हैं, (2) ग्रामीण क्षेत्रों में आदर्श रूप में कार्य करने के लिए।

(i) अनुदान-

(i) राज्य के विभिन्न भागों में प्रचलित विभिन्न अनुदान नियमों को समाप्त करके एक ही प्रकार के नियम बनाने चाहिएं।

(ii) अनुदान का सिद्धान्त यह होना चाहिए कि सरकार और निजी संस्थाओं को उत्तरदायित्व निभाना है। वास्तविक परिस्थितियों को देखकर सरकार को चाहिए कि वह अध्यापक के वेतन की सीमा तक अनुदान धन के रूप में दे।

विडिंग और उपकरणों के ऊपर खर्च होने वाले धन को निजी संस्थाए एकत्र करें।

(iii) अविलम्ब वेतन देने की व्यवस्था की जाए।

( J ) पूर्व प्राथमिक शिक्षक संघ- यह आवश्यक है कि राज्य के पूर्व प्राथमिक शिक्षकों का एक संघ हो, जिसका उद्देश्य स्कूल के अनुभवों, विशेष रूप से ग्रामीण स्कूलों के अनुभवों का आदान-प्रदान करना और शिक्षा का विकास करना होना – चाहिए। ऐसी संस्था बनाने के लिए शिक्षकों को प्रोत्साहन दिया जाए। यदि पूर्व-प्राथमिक शिक्षकों को परिषद् बने तो उसका सम्मेलन बुलाया जाए जिसमें उसका संविधान और कार्य निश्चित किया जाए और सरकार की नई योजनाओं को कार्य रूप देने पर विचार किया जाए।

(K) पुस्तकें तथा अन्य सामग्री- (i) बच्चों की अच्छी पुस्तकों के लिए सरकार सहायता दे और ऐसी प्रणाली बनाए कि पुस्तकें खरीदकर स्कूलों को भेंट-रूप में दे। सरकारी सहायता के बिना निजी लेखक बच्चों के लिए अच्छी पुस्तकें प्रकाशित नहीं कर सकेंगे। सरकार को चाहिए कि वह लेखकों से उचित शर्तों पर पुस्तकों के प्रकाशन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले।

(ii) छ: वर्ष से कम आयु वाले बच्चों के लिए उपलब्ध पुस्तकों का संकलन किया जाए। यह संकलन कार्य एक कुशल संस्था करे। नई-नई अच्छी पुस्तकें प्रकाशित होने पर इन्हें सूची में जोड़ा जाए। बच्चों की किताबों का चुनाव करते समय विशेष ध्यान रखा जाए। इन पुस्तकों में मुख्य रूप से चित्र हो ।

(L) स्कूलों का सर्वेक्षण- बच्चों को शिक्षा के सम्बन्ध में देशव्यापी जांच की जाए जिससे कि यह मालूम किया जा सके कि देश में 3 वर्ष से 6 वर्ष तक की आयु वाले बच्चों के कितने स्कूल हैं और उनमें कितने बच्चे पढ़ते हैं।

(M) नये प्रयोग- बाल मन्दिर के कार्य के सम्बन्ध में नये प्रयोगों की आवश्यकता है। मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षा-शास्त्रियों को संयुक्त रूप से नये प्रयोग करने चाहिए। इन प्रयोगों के निष्कर्षो के आधार पर नई योजना बनानी चाहिए। देश की परिस्थितियों के अनुकूल शिशु-शिक्षण की व्यवस्था तभी ठीक ढंग से की जा सकती है।

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