राजनीति विज्ञान / Political Science

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार | आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन को राजाराम मोहन राय की देन

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार
राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार

राममोहन राय कें प्रमुख राजनीतिक विचार इस प्रकार है-

(1) वैयक्तिक तथा राजनीतिक स्वतन्त्रता

 राममोहन राय वैयक्तिक स्वतन्त्रता तथा अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। जॉन लॉक तथा टामस पेन की भांति उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की पवित्रता को स्वीकार किया। जीवन, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति धारण करने के प्राकृतिक अधिकारों के साथ-साथ उन्होंने व्यक्ति के नैतिक अधिकारों का भी समर्थन किया, किन्तु उन्होंने अपने प्राकृतिक अधिकारों की धारणा को सामाजिक हित के सांचे में ढालकर उग्र व्यक्तिवादी चिन्तक के बजाय समाजवादी दार्शनिक की झलक प्रस्तुत की है। अधिकारों तथा स्वतन्त्रता की व्यक्तिवादी अवधारणा के समर्थक होते हुए भी उन्होंने आग्रह किया कि राज्य को समाज सुधार तथा शैक्षिक पुनर्निर्माण के लिए विधि निर्माण करना चाहिए। वे चाहते थे कि राज्य को निर्बल तथा असहाय व्यक्तियों की रक्षा करनी चाहिए। राज्य का कर्तव्य है कि वह जनता की सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक और राजनीतिक दशाओं के सुधार के लिए प्रयत्न करें।

वाल्टेयर, मॉण्टेस्क्यू तथा रूसो की भाँति राममोहन को स्वतन्त्रता के सिद्धान्त से उत्कट प्रेम था। वैयक्तिक स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक होने के साथ-साथ वे निजी बातचीत में राष्ट्रीय मुक्ति के आदर्श की भी चर्चा किया करते थे। उनका कहना था कि स्वतन्त्रता मानव मात्र के लिए एक बहुमूल्य वस्तु है, किन्तु राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। उन्हें स्वतन्त्रता की मांग से गहरी सहानुभूति थी, चाहे वह मांग विश्व के किसी भी कोने से उठी हो। उन्हें यूनानियों तथा नेपल्सवासियों की स्वतन्त्रता की मांग से सहानुभूति थी। इसलिए जब सन् 1820 में नेपल्स ने स्वेच्छाचारी शासन की पुनः स्थापना हो गयी तो राममोहन को बहुत क्षोभ हुआ। फ्रांस की 1830 की क्रान्ति से उनके हृदय को बड़ी प्रसन्नता हुई।

राष्ट्रीय स्वाधीनता के सन्दर्भ में राममोहन राय की आकांक्षा और निष्ठा को इंगित करते हुए विपिनचन्द्र पाल ने लिखा है— “राजा राममोहन राय ही वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने भारत की स्वतन्त्रता का सन्देश प्रसारित किया………”

(2) शासन का व्यापक कार्यक्षेत्र

राममोहन राय व्यक्तिवाद अथवा राज्य द्वारा कम से कम हस्तक्षेप के अनुगामी नहीं थे। उन्होंने शासन के कार्यक्षेत्र को अधिक से अधिक व्यापक बनाने के विचार को अपना समर्थन दिया। वे कम्पनी शासन को भारत की सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा शैक्षिक उन्नति के लिए प्रोत्साहित करना चाहते थे। उन्होंने शासन द्वारा धर्म-सुधार के कार्य को करने की भी अनुमति दे दी थी, ताकि असत्य एवं अधार्मिक कृत्यों पर शासन अपना नियन्त्रण स्थापित कर सके। उनके अनुसार भारत में प्रचलित अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवहार को शासन की आज्ञा से ही नियन्त्रित एवं नियमित किया जा सकता था।

(3) प्रेस की स्वतन्त्रता

 राममोहन राय प्रेस की स्वतन्त्रता के महान समर्थक थे। उनका पत्र ‘सम्वाद कौमुदी’ बंगला तथा अंग्रेजी भाषा में और दूसरा पत्र ‘मिरात उल अखबार’ फारसी भाषा में प्रकाशित होता था। वे समाचार पत्रों में निर्भीक और निष्पक्ष समीक्षा के पक्ष में थे।

उन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया कि चूँकि भारत की शासन व्यवस्था प्रतिनिधि शासन के सिद्धान्त पर आधारित नहीं थी, ऐसी स्थिति में प्रेस की स्वतन्त्रता आवश्यक थी ताकि इस माध्यम से वाद-विवाद की स्वतन्त्रता प्राप्त हो सके।

प्रेस की स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए सन् 1823 में हाई कोर्ट के सामने एक पिटीशन प्रस्तुत करके उन्होंने लिखित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की मांग की थी। उस समय गवर्नर जनरल ने प्रेस आर्डिनेन्स जारी कर दिया था कि समाचार पत्र निकालने के लिए सरकार से विशेष लाइसेंस लेना पड़ेगा। राममोहन राय ने अपने कुछ साथियों से मिलकर सर्वोच्च न्यायालय में प्रेस की स्वतन्त्रता के लिए जो अपील की वह निष्फल रही और तब उन्होंने अपनी अपील ‘किंग इन-कौंसिल’ में की, वह भी निष्फल रही। राममोहन राय का मुख्य तर्क था कि प्रेस की स्वतन्त्रता शासक और शासित दोनों के लिए हितकर है। शासन के लिए यह इस दृष्टि से लाभप्रद है कि उसे अपनी शासन नीति के बारे में जनता के विभिन्न विचारों का पता लग जाता है। जनता के लिए प्रेस की स्वतन्त्रता इस दृष्टि से हितकर है कि इससे ज्ञान का प्रसार होता है जिससे मानसिक विकास में सहायता मिलती है।

(4) न्यायिक व्यवस्था 

राजा रामोहन राय प्रथम भारतीय थे जिन्होंने शासन और न्याय विभागों की पृथक् की आवाज उठायी। उन्होंने अनुरोध किया कि भारत में सेवा करने वाले दण्डनायकों के न्यायिक तथा प्रशासकीय कार्यों को पृथक् कर दिया जाए। ‘भारत में राजस्व और न्यायिक व्यवस्था’ (An Exposition of the Revenue and Judicial System in India) नामक अपनी पुस्तिका में उन्होंने निर्भीकता से न्यायिक प्रशासन का मूल्यांकन किया और भारत में न्यायिक व्यवस्था के स्वरूप के बारे में अपने विचार रखे। उन्होंने न्यायालयों का सुधार, देश के न्यायालयों का यूरोपीय लोगों पर क्षेत्राधिकार, जूरी प्रथा, कार्यकारी तथा न्यायिक पदों का पृथक्करण, विधि का संहिताकरण, विधि निर्माण में जनता से परामर्श करना, रैयत की दशा का सुधार तथा उनकी रक्षा के लिए कानूनों का निर्माण तथा स्थायी भूमि प्रबन्ध पर जोर दिया।

उन्होंने पुरातन भारतीय व्यवस्था में प्रचलित न्याय पंचायत का समर्थन करते हुए प्रस्तावित किया कि उसी प्रकार की जन सम्बद्ध संस्था द्वारा ही न्यायिक प्रणाली चलनी चाहिए। जूरी प्रथा के बारे में उनका विचार था कि अवकाश प्राप्त और अनुभवी भारतीय विधि विशेषज्ञों को जूरी का सदस्य बनाना चाहिए।

(5) विधि सम्बन्धी धारणा

राममोहन राय का विधिशास्त्र सम्बन्धी ज्ञान गहन था। उन्होंने विधि को रीति-रिवाजों एंव सामाजिक मान्यताओं से सम्बन्धित माना था। उनके अनुसार विधि का आधार कालान्तर से चली आ रही सामाजिक मान्यताएं होती हैं जो समय पाकर सम्प्रभु द्वारा विधि में हेर-फेर किया जा सकता है और वह मान्य भी है, किन्तु वे मान्य विधियों में स्वेच्छाचारिताजन्य परिवर्तन के पक्षपाती नहीं थे। यदि प्रचलित विधि तर्कसम्मत है तथा जनकल्याणकारी है तो कोई कारण नहीं कि उसकी मान्यता शासन द्वारा समाप्त कर दी जाये। यदि वह अन्यायपूर्ण है तो चाहे कितनी भी पुरानी मान्यता क्यों न हो वह निरस्त की जा सकती है। कानून और नैतिकता के सम्बन्ध पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि कुछ नैतिक नियम कानून से भी अधिक बाध्यकारी होते हैं तो कुछ कानून भी नैतिक नियमों से अधिक प्रभावशील होते हैं। अन्त में उन्होंने यह माना कि कानून चाहे नैतिक हों अथवा न हों फिर भी हमें उनका पालन करना चाहिए। उन्होंने विधि के क्षेत्र में गवर्नर जनरल द्वारा बनाये गये कानूनों को उचित नहीं माना। उनका यह तर्क था कि भारत पर शासन करने की अन्तिम सम्प्रभु-शक्ति – संसद सम्राट में निहित है। इसलिए वे चाहते थे कि स-संसद सम्राट ही भारत के लिए कानून पारित करे न कि गवर्नर-जनरल उनका विचार था कि एक भारतीय आपराधिक विधि संहिता तैयार की जाये और वह ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित हो जो देश की जनता के विभिन्न वर्गों में आम तौर पर प्रचलित हो और जिन्हें वे सब स्वीकार कर लें। विधि संहिता जटिल न होकर स्पष्ट सरल और जन कल्याण की संरक्षिका होनी चाहिए।

(6) भारत में यूरोप निवासियों का आवास

सन् 1832 में ब्रिटिश कॉमन सभा की प्रवर समिति ने भारत में यूरोपीय लोगों के बसने के प्रश्न पर राममोहन राय की राय मांगी। 1813 के चार्टर एक्ट ने यूरोपियों को भारत में भूमि खरीदकर अथवा पट्टे पर लेकर बसने के अधिकार से वंचित कर दिया था। राममोहन राय का विचार था कि यदि कुछ यूरोपीय भारत में स्थायी रूप से रहकर कृषि कार्य का व्यापार करें तो भारत को उससे लाभ होगा, क्योंकि यूरोपीय लोग अपनी पूंजी लगाकर वैज्ञानिक प्रणाली से व्यापार करेंगे जिससे देश के कृषि कार्य, खनिज, व्यापार, शिल्प कला आदि की उन्नति होगी।

(7) मानवतावाद एवं विश्व भ्रातृत्व

रामोहन राय मानवतावाद की प्रतिमूर्ति थे, विश्व भ्रातृत्व के उपासक थे और धार्मिक मत-मतान्तरों से ऊपर उठकर सार्वभौम धर्म के चिन्तक थे। उनकी मान्यता थी कि सम्पूर्ण मानव समाज एक ही विशाल परिवार है और विभिन्न राष्ट्र तथा जातियों के लोग सिर्फ उसकी शाखाएं हैं। उनका कहना था कि सभी देशों के समझदार लोग अनुभव करते हैं कि मानव समाज के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान को सहज बनाना चाहिए और उसे प्रोत्साहित करना चाहिए। उन्होंने एक ऐसे विश्व संगठन की कल्पना की थी जिसमें दो राष्ट्रों के बीच के मतभेदों को पंच फैसले द्वारा निबटाने के लिए भेजा जा सके। डॉ० वी०पी० वर्मा के शब्दों में, “वे महान मानवतावादी तथा सार्वभौमतावादी थे और डेविड ह्यरुम की भांति सार्वभौमिक सहानुभूति के सिद्धान्त को मानते थे।” संक्षेप में, राय का अन्तर्राष्ट्रीयतावाद बहुत ऊंचे दर्जे पर था। उनकी ईश्वर प्रार्थना में अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की झलक मिलती है- “परमात्मा धर्म को ऐसा बना दे जो मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदों और घृणा को नष्ट करने वाला हो और मानव जाति की एकता तथा शान्ति का प्रेरक हो ।”

 

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