भारतीय पुनर्जागरण से आप क्या समझते हैं?
भारतीय राष्ट्रीय जागरण पुनर्जागरण (Indian Renaissance) का ही एक अंग था जो राजा राममोहन राय से आरम्भ हुआ था। यह राष्ट्रीय जागरण उस अपार आर्थिक एवं राजनीतिक असंतोष की अभिव्यक्ति थी जो ब्रिटिश शासकों के अन्याय, अत्याचार तथा शोषण की नीति के कारण उत्पन्न हुआ था। साथ ही एक राष्ट्रीय जागरण उन राष्ट्रवादी शक्तियों का संश्लेषण था जो सामाजिक एवं धार्मिक पुनर्जागरण के कारण उत्पन्न हुआ था। प्रो. कूपलैण्ड के अनुसार, “भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन कई शक्तियों एवं कारणों का परिणाम था।” डॉ. ए. आर देसाई के शब्दों में, “भारतीय राष्ट्रीयता आधुनिक चमत्कार है। यह ब्रिटिश काल में अस्तित्व में आयी है तथा ब्रिटिश प्रशासन व विश्व शक्तियों के प्रभाव से भारतीय समाज में जन्मे विभिन्न बाह्य व आन्तरिक तत्वों व शक्तियों की क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं का परिणाम है।
भारतीय पुनर्जागरण पश्चिम से प्रेरित था
(1) राजनीतिक कारण
भारतीय राष्ट्रीय जागरण के राजनीतिक कारणों के अन्तर्गत निम्नलिखित तथ्य उल्लेखनीय है –
(अ) सन् 1847 की क्रान्ति – 1857 की क्रान्ति महज एक सैनिक विद्रोह ही नहीं अपितु अंग्रेजी शासन के अत्याचार, अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध स्वदेश एवं स्वधर्म की रक्षा के लिए भारत का प्रथम स्वतन्त्रता थी। 1857 की घटना ने भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ दिया। इसने यह स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीयों के हृदय में घोर घृणा एवं वे इसका शीघ्र अन्त चाहते हैं। यही वास्तव में भारत में राष्ट्रीय चेतना की शुरूआत कही जा सकती हैं। क्रान्ति के पश्चात् ही भारत ने आधुनिक युग में प्रवेश किया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का सूत्रपात यहीं से होता है।
(ब) राजनीतिक तथा प्रशासनिक समन्वीकरण- महान् मुगल सम्राटों ने भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बाँधने का सफल प्रयास किया था किन्तु औरंगजेब की मृत्यु (1707) के पश्चात् केन्द्रीय सत्ता कमजोर पड़ गई एवं विघटनात्मक प्रवृत्तियाँ जोर पकड़ने लगी। इसका पूरा फायदा अंग्रेजों ने उठाया तथा उनकी विजय पताका पूरे भारत में फहराने लगी। भारत के विभिन्न क्षेत्र, भाषा-भाषी तथा धर्मावलम्बी पहली बार अंग्रेजी शासन के अधीन एक राजनीतिक सूत्र में बँध गए। सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत में एक समान प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित हुई। आवागमन के तीव्र साधनों तथा अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार ने राजनीतिक एकता की नींव को और अधिक ठोस बना दिया। के. बी. पुनिये के शब्दों में, “हिमालय से कुमारी अन्तदीप तक सम्पूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया एवं उसने जनता में राजनीतिक एकता की भावना को जन्म दिया। यही राजनीतिक एकता की भावना भविष्य में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव बन गई।
(स) लार्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीति- लार्ड लिटन (1876-80) की अन्यायपूर्ण एवं साम्राज्यवादी नीति ने भारतीयों में असन्तोष एवं क्षोभ का वातावरण तैयार कर दिया। श्री सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने इस सम्बन्ध में कहा कि “कभी-कभी बुरे शासक भी राजनीतिक प्रगति के विकास में सहायक सिद्ध होते हैं। लार्ड लिटन ने शिक्षित समुदाय में इस सीमा तक नये जीवन की लहर फूंक दी जो कि वर्षों के आन्दोलन से सम्भव नहीं था। ” लार्ड लिटन की दमनकारी व जातीयता की भावना युक्त नीतियों ने भारतीयों को भड़काया। भारतीय सिविल सर्विस (I.C.S.) में सम्मिलित होने की आयु 21 वर्ष से घटाकर 12 वर्ष कर दी गई। इससे भारतीयों का इस परीक्षा में सम्मिलित होना लगभग असम्भव हो गया; 1877 के भीषण अकाल के समय दिल्ली दरबार लगाकर लाखों रुपया फूँका गया, फिर अनावश्यक खर्चीला द्वितीय अफगान युद्ध लड़ा गया। भारतीय भाषा समाचार पत्र अधिनियम बनाकर लोगों का मुँह बन्द करने की चेष्टा की गयी। शस्त्र अधिनियम (Arms Act) पारित कर भारतीयों पर कड़ा अंकुश लगा दिया गया। इन सब बातों की जबर्दस्त प्रतिक्रियाएं हुई। परिणामस्वरूप जनता में नवीन राष्ट्रीय चेतना व देशप्रेम की भावना अंकुरित होने लगी।
( 2 ) सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कारण
भारतीय राष्ट्रीय जागरण व राष्ट्रवाद की भावना के निर्माण में सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक प्रगति ने निम्नलिखित रूप से प्रभावित किया।
(अ) पाश्चात्य शासन पद्धति का ज्ञान- पाश्चात्य शिक्षा एवं विदेश गमन के द्वारा भारतीय शिक्षित वर्ग पाश्चात्य देशों की शासन पद्धति या शासन सिद्धान्तों से परिचित हुए। उन्होंने स्वतन्त्रता, समानता एवं विश्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ा। वे उत्तरदायी शासन, स्वतन्त्रता न्यायपालिका, संसदीय शासन पद्धति शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त इत्यादि का महत्व समझने लगे। दूसरी ओर वे अपने देश की दयनीय स्थिति से क्षुब्ध थे और उनमें आवश्यक सुधार लाने के लिए कटिबद्ध हो गये।
(ब) पाश्चात्य शिक्षा पद्धति – मैकाले की शिक्षा पद्धति का उद्देश्य भारत में एक ऐसे वर्ग की स्थापना करना था जो रुचि, विचार, भाषा आदि से अंग्रेज हो। अंग्रेज बहुत हद तक अपने उद्देश्य में सफल रहें किन्तु साथ ही अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीयों में राष्ट्रीय भावना भी कर दी। इस शिक्षा पद्धति का ही प्रतिफल था कि प्रगतिशील भारतीय यूरोपीय विचारों तथा संस्थाओं के निकट आने लगे। लार्ड रोनाल्डरो ने कहा था कि “पश्चिमी शिक्षा की नई मदिरा से भारतीय जाग उठे। सर हेनरी कार्टन ने भी कहा है कि “यह केवल शिक्षा, विशेषकर पाश्चात्य प्रणाली की शिक्षा का परिणाम है कि विविधताओं से भरा भारत एक सूत्र में बँध सका। विभिन्न भाषाओं के चलते एकता का दूसरा सूत्र सम्भव नहीं था । “
(स) पाश्चात्य विचारों का प्रभाव – अंग्रेजी भाषा तथा पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को अपनाने से भारतीय यूरोपीय सभ्यता तथा विचारों के सम्पर्क में आने लगे। मिल्टन, बर्क, मैकाले, हरबर्ट स्पेन्सर, माण्टेस्क्यू, वाल्तेयर, रूसो, जे. एस. मिल, मार्क्स आदि पश्चिमी । विद्वानों के विचारों ने प्रगतिशील भारतीयों को बड़ा प्रभावित किया। अमरीका का स्वतन्त्रता संग्राम, फ्रांस की राज्य क्रान्ति, इटली व जर्मनी के राष्ट्रीय आन्दोलनों आदि ने भी भारतीयों की आँखें खोल दीं।
(द) प्राचीन हिन्दू साहित्य – प्राचीन हिन्दू साहित्य पर भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने शोध कार्य किया। वेद और उपनिषद की प्रशंसा मुक्तकंठ से की गई। जोन्स, काब्रूक, मैक्समूलर, मोनियर, विलियम्स जैसे यूरोपीय विद्वान तथा रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, हरप्रसाद शास्त्रीय, राजेन्द्र लाल मित्रा तथा रानाडे जैसे भारतीय विद्वान प्राचीन भारतीय संस्कृति तथा साहित्य को अपनी रचनाओं द्वारा प्रकाश में लाये। चिरौल के शब्दों में, “इन विद्वानों की रचनाओं में पश्चिमी दुनिया की अपेक्षा भारत को ही उसकी संस्कृत भाषा की सम्पदा तथा हिन्दू साहित्य के ऐतिहासिक तथा साहित्यिक महत्व को बतलाया गया जो भारतीय सभ्यता की कुँजी है।” भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति की महत्ता तथा गौरव से अवगत हो गये।
(इ) भारतीय प्रेस तथा साहित्य का प्रभाव – भारतीय सामाचार पत्रों तथा साहित्य ने राष्ट्रीय जागरण में बड़ा योगदान दिया। प्रेस ने भारतीयों में राष्ट्रीय भावना को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की बुराइयों का नग्न चित्र उपस्थित किया एवं भारतीयों की कुंठित भावनाओं को प्रकाश में लाया । समकालीन समाचार पत्रों में हिन्दू, पेट्रीयट, अमृत बाजार पत्रिका, सोमप्रकाश, कामरेड न्यू इंडिया, केशरी, आर्यदर्शन विशेष उल्लेखनीय है। समाचार पत्रों के अतिरिक्त लोकप्रिय साहित्य भी राष्ट्रीय भावना को जागृत करने में सहायक सिद्ध हुआ। बंकिमचन्द्र के ‘आनन्द मठ’ को बंगाल के क्रान्तिकारियों का बाइबिल कहा जाता था। रवीन्द्रनाथ टैगोर एवं डी. एल. राय की कविता गीत एवं संगीत ने भी राष्ट्रीय जागरण को आगे बढ़ाया। दीनबंधु रचित नील दर्पण एवं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखित भारत दुर्दशा ने भी राष्ट्रीय भावना को जगाया।
(3) सामाजिक-धार्मिक कारण
19वीं शताब्दी भारतीय इतिहास की एक युगान्तकारी शताब्दी है। इस समय धार्मिक सामाजिक एवं राजनीतिक सुधार की लहर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गई। भारतीय समाज अनेक बुराइयों एवं कुप्रथाओं जैसे बाल विवाह, बहुविवाह, सती-प्रथा, छुआ-छूत, पर्दा-प्रथा आदि से ग्रसित था। सामाजिक व धार्मिक सुधारकों ने समाज में प्रचलित धार्मिक अंधविश्वासों के अतिरिक्त सामाजिक कुप्रथाओं का भी विरोध किया। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, ऐनी बेसेंट अदि के प्रयत्नों के फलस्वरूप भारतीय समाज में नवचेतना उभर आई। 19वीं शताब्दी के धर्म सुधारकों द्वारा आरम्भ किये गये प्रयत्नों को चालू रखने के लिए अनेक संस्थाओं तथा समुदायों की स्थापना हुई। इनमें ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन व थियोसोफिकल सोसाइटी आदि उल्लेखनीय हैं। स्वामी विवेकानन्द युवा भारत की आकांक्षाओं के प्रतीक बन गए। देवेन्द्रनाथ टैगोर, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महर्षि फुले, केशव कर्वे, रानाडे आदि ऐसे कितने ही समाज व धर्म-सुधारक थे जो एक देशव्यापी चेतना भारतीय समाज में जगा रहे थे। इस चेतना ने समन्वित होकर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए उपजाऊ भूमि का काम किया।
( 4 ) आर्थिक कारण
भारतीय जनता ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति से बहुत असंतुष्ट थी। सरकार की आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य अंग्रेज व्यवसायियों को लाभ पहुँचाना था। भारतीयों का घोर आर्थिक शोषण किया जा रहा था। अंग्रेजों ने भारतीय उद्योगों को बिल्कुल नष्ट ही कर दिया था। लंकाशायर व लिवरपूल के बने कपड़े भारतीय बाजारों में लाये जाने लगे। भारत का धन विदेशों में जाने लगा। अकाल व दुर्भिक्ष से स्थिति दयनीय होती चली गयी।
सामान्यतः मुगलकालीन भारत की अपेक्षा ब्रिटिश कालीन भारत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त ही दयनीय थी। फिशर के शब्दों में, “लाखों भारतीय आधा पेट भोजन कर जीवन बसर कर रहे हैं।” अतः स्वाभाविक था कि देश की बिगड़ती आर्थिक दशा तथा सरकार की राष्ट्रविरोधी आर्थिक नीति ने असन्तोष को जन्म दिया, जनता मुखर हो उठी तथा जनजागरण का रास्ता शनै शनैः प्रशस्त होने लगा।
( 5 ) अन्य कारण
भारतीय राष्ट्रीय जागरण व राष्ट्रवाद के उदय के लिए अन्य सहायक तत्वों में लार्ड कर्जन (1899-1905) की नीति एवं रूस-जापान युद्ध है। कर्जन एक उग्र साम्राज्यवादी था जिसका इरादा भारत पहुँचते ही नवोदित भारतीय राष्ट्रीयता का अन्त करना था। उसके समय में तीन विधेयक कलकत्ता अधिनियम, भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम व आफिसियल सीक्रेट्स अधिनियम पारित किये गये। इन अधिनियमों का उद्देश्य भारत पर साम्राज्यवादी शिकंजों को और मजबूत करना था। अंतः इन कानूनों का जबर्दस्त विरोध शुरू हुआ। इसके साथ ही लार्ड कर्जन की बंगाल विभाजन नीति ने नवोदित राष्ट्रवादियों को काफी उत्तेजित किया।
इसके पूर्व इलबर्ट बिल विवाद ने जनता में जबर्दस्त असन्तोष पैदा कर दिया था।
सन् 1904-1905 के रूस-जापान युद्ध में एशिया के एक छोटा-सा देश जापान-यूरोप के शक्तिशाली देश रूस को पराजित करने में सफल हुआ। जापानी विजय का प्रभाव भारत पर भी पड़ा। अब एशियाई देशों का यह भ्रम दूर हुआ कि यूरोपीय देश अजेय हैं। भारत सहित सम्पूर्ण एशिया राष्ट्रीयता की लहर में ओत-प्रोत होने लगा।
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