राजा राममोहन राय के सामाजिक विचार
राममोहन राय वस्तुतः एक समाज सुधारक थे जिन्होंने सामाजिक पुनर्निर्माण एवं शिक्षा के क्षेत्र में उत्तम कार्य किया। उन्हें भारत की सामाजिक क्रान्ति का अग्रदूत कहा जा सकता है। उन्होंने यह विश्वास व्यक्त किया कि धर्म और समाज सुधार की अनुपस्थिति में केवल राजनीतिक विकास का कोई मूल्य नहीं रहेगा। उन्होंने राजनीतिक प्रगति और सामाजिक-धार्मिक सुधारों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध सुनिश्चित करते हुए निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किए
(1) मूर्ति पूजा का विरोध
रामोहन राय ने मूर्ति पूजा का घोर विरोध किया। उन्होंने इस मत का प्रतिपादन किया कि मूर्ति पूजा हिन्दू धर्म का कोई मौलिक अंग नहीं है अपितु इसका चलन बाद में जाकर हुआ है। राममोहन राय का कहना था कि “उपनिषद अद्वैतवाद की शिक्षा देते हैं जिसमें मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं है।”
(2) सती प्रथा का विरोध
राममोहन राय सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाने वाले प्रथम भारतीय थे। उनकी दृष्टि में सती प्रथा या ‘सहमरण’ शास्त्रसम्मत प्रथा नहीं है, शास्त्र विकृत कुसंस्कार है। उनके उग्र विरोध के कारण ही लार्ड विलियम बैंटिंक ने एक आज्ञा जारी कर सती प्रथा को सन् 1829 में निषिद्ध घोषित कर दिया। सोफिया फालेट के शब्दों में, “राममोहन राय ने हिन्दू धर्मग्रन्थों के अपने गम्भीर ज्ञान के आधार पर यह प्रमाणित किया कि सती प्रथा धर्मसंगत नहीं थी। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी दिखाया कि स्वार्थी सम्बन्धीजन किसी धार्मिक प्रेरणा से नहीं, बल्कि विधवाओं के भरण-पोषण के खर्च से छुटकारा पाने के लिए इस प्रथा को जारी रखना चाहते थे।”
(3) नारी स्वातन्त्र्य एवं नारी के समर्थक
राममोहन राय आधुनिक भारत के नारी स्वातन्त्र्य के अग्रदूत माने जा सकते हैं। उन्होंने नारी स्वातन्त्र्य, नारी अधिकार और नारी शिक्षा पर बड़ा बल दिया तथा हिन्दू नारी के साथ किये जाने वाले अन्याय और अत्याचार की कटु निन्दा की। अपने मृत पति की सम्पत्ति में स्त्री को उचित भाग न देने के नियम की उन्होंने विशेष रूप से भर्त्सना की। वे चाहते थे कि सरकार ऐसा कानून पारित करे जिससे कोई भी पुरुष एक पत्नी के रहते हुए दूसरा विवाह न कर सके। राममोहन राय का ही स्वप्न था कि बाल विधवाएं पुनर्विवाह करें और प्रौढ़ विधवाएं आत्म-सम्मान का जीवन व्यतीत करने के लिए शिक्षित की जाएं। उन्होंने यह मानने से इन्कार कर दिया कि स्त्रियां पुरुषों की अपेक्षा मन्द बुद्धि हैं। वे भारतीय महिलाओं को लीलावती, गार्गी, मैत्रेयी आदि के समान विदुषी बनने की प्रेरणा देते थे।
(4) जाति प्रथा का विरोध
उन्होंने जाति व्यवस्था का भी घोर विरोध किया और इसे हिन्दू जाति का कलंक बताया। उनका विचार था कि जाति प्रथा दोहरी कुरीति है— उसने असमानता पैदा की है और जनता को विभाजित किया है और उसे “देशभक्ति की भावना से वंचित रखा है।” वे स्वयं अन्तर्जातीय विवाह के पक्ष में थे। शास्त्र का आधार प्रस्तुत करते हुए उन्होंने शैव विवाह पद्धति का समर्थन किया जिसमें उम्र, वंश एवं जाति का कोई बन्धन नहीं होता।
इस प्रकार राममोहन राय ने सामाजिक कुरीतियों तथा अन्यान्य की कटु भर्त्सना की और परम्परावाद का खुलकर विरोध किया, किन्तु उनका विश्वास था कि सामाजिक बुराइयों का अन्त करने का उग्र तरीका बुद्धिवाद का प्रचार करना है। इस प्रकार उनकी तुलना फ्रेंच ज्ञानकोश के सह-रचयिता दिदरो से की जा सकती है।
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