लोक प्रशासन का राजनीतिक परिवेश
लोक प्रशासन का राजनीतिक परिवेश- राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप कैसा है? किसी देश में लोकतन्त्र है या निरंकुशतन्त्र ? व्यक्ति अपने आपको किस राजनीतिक इकाई के साथ जोड़ता है? लोग किस सीमा तक स्वयं को राष्ट्र राज्य का सदस्य समझते हैं? समाज के सदस्य अपने सभी सदस्यों के बारे में किस प्रकार का एकात्म्य रखते हैं? राजनीतिक व्यवस्था में समानता, क्षमता एवं विभिन्नीकरण किस सीमा तक पाया जाता है? एक दल प्रणाली है या द्विदलीय प्रणाली- आदि ऐसे राजनीतिक परिवेश से सम्बन्धित प्रश्न हैं जो प्रशासन को सदैव प्रभावित करते रहते हैं। अति प्रतियोगी बहुदल पद्धति में नौकरशाही एक सशक्त संस्था के रूप में उभरती है। एक दल प्रभुत्व वाली व्यवस्था में नौकरशाही निरंतर मार्गदर्शन के लिए राजनीतिक नेतृत्व पर निर्भर रहती है। निरंकुश सत्तात्मक व्यवस्था में प्रशासनिक ढांचा शासक वर्ग की इच्छा पर निर्भर होता है।
भारत में संविधान द्वारा राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना की गई है। लोकतन्त्र का संसदीय प्रतिमान भारत में प्रचलित है जिसके अन्तर्गत केन्द्र और राज्यों में कार्यपालिका (प्रशासन) संसद और विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनायी गयी है। लम्बे समय तक भारत में एक दल प्रणाली विद्यमान रही जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय राजनीति के कतिपय विशिष्ट लक्षण उभरकर सामने आये। राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल प्रशासन को अपनी राजनीतिक इच्छा के क्रियान्वयन का साधन समझने लगे; सत्तारूढ़ दल प्रशासकों की प्रतिबद्धता की मांग करने लगा; पुलिस और केन्द्रीय जांच ब्यूरो जैसे संगठनों से यह अपेक्षा की जाने लगी कि वे सत्तारूढ़ दल के अभिकर्ता के रूप में कार्य करें। राजनीतिक प्रभुत्त्व अपने भ्रष्ट शासन को बनाए रखने के लिए पुलिस दल का इस्तेमाल करते नहीं हिचकिचाते । मन्त्री निरन्तर अनुचित रूप से पुलिस के मामलों में दखल देते रहते हैं, लेकिन उत्तरदायित्व उठाने को तैयार नहीं रहते। पुलिस आयोग के अध्यक्ष धर्मवीर के शब्दों में “दुनिया के किसी भी देश में चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा पुलिस के रोजमर्रा के काम में ऐसा हस्तक्षेप नहीं किया जाता, जितना भारत में होता है। जो अधिकारी उनकी बात नहीं मानते वे निरन्तर तबादले, अपमान और दूसरी की मुसीबतों की आशंका से परेशान रहते हैं।”
सरकारी कर्मचारियों को मन्त्रियों राजनीतिज्ञों और उनके पट्टों का अनुचर मात्र समझने की प्रवृत्ति विकसित हो रही है। वरिष्ठ अधिकारियों की उपेक्षा करके अपने चहेते कनिष्ठ अधिकारियों को उच्च पद पर आसीन करवाना आम बात हो गयी है। कई राज्यों में आई. ए. एस. अधिकारियों को शटल कॉक की भांति राजनीतिक कारणों से बार-बार स्थानान्तरित किया जाने लगा।
यद्यपि अधिकतर अधिकारी आज भी राजनीतिक दृष्टि से निष्पक्ष हैं, परन्तु काफी संख्या में ऐसे भी वरिष्ठ अधिकारी हैं जिन्होंने अपने को किसी विशेष राजनीतिक दल या किसी विशेष नेता के साथ जोड़ लिया है। ऐसे मामले प्रकाश में आये हैं कि नौकरशाही ने अपने आकाओं के चुनावों में सक्रिय रूप से मदद की है। अपने राजनीतिक आकाओं के हल्के से इशारे पर अधिकतर सरकारी अधिकारी कानून व नियमों को ताक में रखकर निर्धारित मानदण्डों की अवहेलना करके काम करने को तैयार हो जाते हैं। संक्षेप में प्रशासन में राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है, आज उच्च प्रशासनिक वर्ग में पदोन्नति कार्यकुशलता से जुड़ी नहीं है। कई बार अवसरवादी व्यक्ति जो योग्यता व ईमानदारी में शून्य होते हैं, परन्तु लंचीली अन्तरात्मा और मुखौटे लिए घूमते हैं, महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त हो जाते हैं। कई बार वरिष्ठ, योग्य, ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों को जान-बूझकर ऐसे पदों से दूर रखा जाता है। इन परिस्थितियों के फलस्वरूप अधिकारी वर्ग का मनोबल इतना कमजोर हो गया है कि वह अब सरकारी नीतियों को लागू करने में अपने को अक्षम पा रहा है। वह इतना हतोत्साहित है कि रोजमर्रा का सामान्य प्रशासन चलाने में भी कठिनाई अनुभव कर रहा है।
निष्कर्ष- भारत में लोक प्रशासन का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश ऐसा है कि प्रशासन निरंकुश और उदासीन हो जाता है। प्रशासकों की अभिजात पृष्ठभूमि उन्हें जनता से अलग-अलग रखती है, अधिकारी तन्त्र में विकास आवश्यकताओं और कार्यक्रमों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं होती।
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